यह मनुज, ब्रह्माण्ड का सबसे सुरम्य प्रकाश,
कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश ।
यह मनुज, जिसकी शिखा उद्दाम ।
कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम।
यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार ।
ज्ञान का, विज्ञान का, आलोक का आगार।
पर, सको सुन तो सुनो, मंगल-जगत् के लोग!
तुम्हें छूने को रहा जो जीव कर उद्योग
वह अभी पशु है; निरा पशु, हिंस्र, रक्त-पिपासु,
बुद्धि, उसकी दानवी है स्थूल की जिज्ञासु,
कड़कता उसमें किसी का जब कभी अभिमान,
फूंकने लगते तभी, हो मत्त, मृत्यु-विषाण ।
यह मनुज ज्ञानी, शृगालों, कुक्कुरों से हीन
हो, किया करता अनेकों क्रूर कर्म मलीन ।
देह ही लड़ती नहीं, हैं जूझते मन-प्राण,
साथ होते ध्वंस में इसके कला-विज्ञान ।
इस मनुज के हाथ से विज्ञान के भी फूल,
वज्र होकर छूटते शुभ धर्म अपना भूल ।
यह मनुज, जो ज्ञान का आगार ?
यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार!
नाम सुन भूलो नहीं, सोचो-विचारो कृत्य।
यह मनुज, संहार-सेवी, वासना का भृत्य।
छद्म इसकी कल्पना, पाषण्ड इसका ज्ञान
यह मनुष्य, मनुष्यता का घोरतम अपमान।
व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय
पर, न यह परिचय मनुज का यह न उसका श्रेय
श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत
श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान
तोड़ दे जो, बस, वही ज्ञानी वही विद्वान,
और मानव भी वही।