सुख-दुख- सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत
मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
चाहता नहीं अविरत दुख,
सुख-दुख की आँख-मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख।
सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन।
जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बँट जावें
दुख सुख से औ' सुख-दुख से, 
अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में
सोता-जागता जग-जीवन।
यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का,
चिर हास अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का! 

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