चिन्ता-जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद
चिन्ता करता हूँ मैं जितनी 
उस अतीत की, उस सुख की:
उतनी ही अनन्त में बनती,
जातीं रेखाएँ दुख की।

आह सर्ग के अग्रदूत! तुम 
असफल हुए, विलीन हुए; 
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।

अरी आँधियो। ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नर्तन,
उसी वासना की उपासना
वह तेरा मा प्रत्यावर्त्तन।

मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशापर्ण भविष्य। 
देव-दम्भ के महा मेघ में 
सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अरे अमरता के चमकीले
पुतलो! तेरे वे जयनाद;
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि 
बनकर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में:
भोले थे, हाँ तिरते केवल
सब विलासिता के नद में। 

वे सब डूबे; डूबा उनका नाम 
विभव, बन गया पारावार;
उमड़ रहा है देव सुखों पर, 
दुःख जलधि का नाद अपार।

वह उन्मत्त विलास हुआ क्या?
स्वप्न रहा या छलना थी!
देव सृष्टि की सुख विभावरी
ताराओं की कलना थी। 

चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय नि:श्वास;
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, 
केन्द्रीभूत हुआ इतना; 
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना। 

सब कुछ थे स्वायत्त, विश्व के 
बल, वैभव, आनन्द अपार;
एक उद्वेलित लहरों-सा होता, उस 
समृद्धि का सुख-संचार।

कीर्ति, दीप्ति शोभा थी नचती 
अरुण किरण सी चारों ओर
सप्त सिंधु के तरल कणों में, 
द्रुम दल में, आनद-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्तिः प्रकृति थी 
पद तल में विनम्र विश्रांत;
कंपती धरणी, उन चरणों से
होकर प्रतिदिन हा आक्रान्त!

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर 
निशाना क्यों न विशृंखल होती सृष्टि,
अरे अचानक हुई इसी से, 
कड़ी आपदाओं की वृष्टि। 

गया, सभी कुछ गया, मधुरतम 
सुर बालाओं का श्रृंगार;
उषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित 
मधुप सदृश निश्चिन्त विहार।

भरी वासना-सरिता का 
कैसा था मदमत्त प्रवाह
प्रलय जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।

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