दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हां! दीपक भी जलता है !
सीस हिलाकर दीपक कहता
"बन्धु, वृथा ही तू क्यों दहता ?"
पर पतंग पड़कर ही रहता ! कितनी विह्वलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय ! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़कर प्राण धरे क्या ?
जले नहीं तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है ?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
कहता है पतंग मन मारे,
"तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे ? शरण किसे छलता है ?"
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलने में प्राली,
फिर भी है जीवन की लाली,
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है ?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं परिणाम निरखती, मुझे वही खलता है ।
दोनों ओर प्रेम पलता है ।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते
सिद्धि हेतु स्वामी गए, यह गौरव की बात;
पर चोरी-चोरी गए, यही बड़ा व्याघात।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते ?
मुझको बहुत उन्होंने माना,
फिर भी क्यों पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसीको जाना,
जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को प्राणों के पण में,
हमी भेज देती हैं रण में
क्षात्र धर्म के नाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।
हुप्रा न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहें स्मरण ही पाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
गए तरस ही खाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
जाएँ, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूं मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते । सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।
गए, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे ?
पर क्या गाते-गाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते।