स्वयंभू (चतुर्मुख स्वयंभू) कविराज कहे गये हैं, किन्तु इतने से स्वयंभू की महत्ता को नहीं समझा जा सकता। मैं समझता हूं, 8वीं से लेकर 20वीं सदी तक की 13 शताब्दियों में जितने कवियों ने अपनी अमर कृतियों से हिन्दी कविता साहित्य को भरा पूरा किया है, उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि हैं। मैं ऐसा लिखने की हिम्मत न करता, यदि हिन्दी के कुछ जीवित चोटी के कवियों ने स्वयंभू “रामायण” के उद्धरणों को सुन कर यही राय प्रकट न की होती।
स्वयंभू ने रामचरित (रामायण) और कृष्णचरित को लेकर दो विशाल काव्य लिखे हैं । वे कितने बड़े हैं, इसका इसी से अंदाजा लग सकता है कि दो चौपाइयों की एक पंक्ति लेने पर, उनके ये दोनों काव्य 80 हजार पंक्तियों के होंगे। स्वयंभू ने अपने कृष्णचरित (हरिवंश पुराण) को छ: वर्ष, तीन मास और 17 दिन में समाप्त किया था। “रामायण” के बनाने में भी कवि ने इस से कम समय नहीं लगाया होगा।
काव्यों के इस विशाल आकार को देख कर संदेह हो सकता है कि कवि ने कितनी ही जगह अपने काव्यों के शरीर को जैसे-तैसे फुलाने की कोशिश की होगी। किन्तु इनके काव्य में ऐसी जगहें बहुत कम हैं। ऐसे स्थल वहीं आते हैं, जहां अपने सहधर्मियों को सन्तुष्ट करने के लिए उन्होंने जैन-धर्म की कितनी ही नीरस रूढ़ियों को जबर्दस्ती बखानने की कोशिश की है। यह ऐसी ही बात है, जैसे पुराने कुशल चित्रकार और मूर्तिकार बुद्ध और तीर्थंकरों की मूर्तियां बनाने में बेगार टालते दिखायी पड़ते हैं, या भक्त कवियों को भी इसी तरह की बेगार का शिकार होना पड़ता है। तो भी मैं देखता हूं, ऐसे बेगार वाले अंश स्वयंभू की कविता में बहुत कम हैं और वे उनके काव्य-शरीर के अभिन्न अंग भी नहीं हैं। ऐसे स्थलों को हटा देने से न कथानक की शृंखला ही टूटती है और न रस-धारा ही।
यद्यपि स्वयंभू “रामायण” में लिखते हैं कि उन्होंने बाण से “घण घणउ” को उधार लिया है, लेकिन उनके काव्य में “हर्षचरित” और “कादंबरी” के विकट समासों का कहीं पता नहीं है । स्वयंभू की भाषा का प्रवाह बिल्कुल स्वाभाविक है। उन्होंने खामखाह दुरूहता लाने की कोशिश कहीं नहीं की है। पद्य-स्वर बड़े ही कर्ण-प्रिय हैं । शब्द बिल्कुल नपे-तुले हैं और परिपाक तो निरन्तर ऊपर उठता जाता है। उनका कवि कौशल कितना श्रेष्ठ है, यह इसी से मालूम हो जायगा कि जब मैंने “रामायण” से शृंगार, वीर, वीभत्स, आदि, रसों के उदाहरणों को अपनी “काव्यधारा” के लिए जमा करना शुरू किया, तो भय होने लगा कि ग्रंथ का कलेवर बहुत बढ़ जायेगा। इसलिए मुझे एक ही एक उदाहरण से संतुष्ट होना पड़ा। लेकिन, जब मैंने छांटने के लिए फिर से पढ़ना शुरू किया, तो देखा कि स्वयंभ के वर्णन में हर जगह नवीनता थी।
स्वयंभू ने प्रकृति का बहुत गहरा अध्ययन किया था। समुद्र, नदी, पर्वत, वन, आदि, के प्रकृति-चित्रण में वह अद्वितीय हैं। सामन्त-समाज के वर्णन में तो उनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। एक स्त्री के सौंदर्य-चित्रण में हमारे और भी महाकवियों ने सफलता पायी है, लेकिन सुंदरियों के सामू हिक सौंदर्य का इतना अच्छा वर्णन, शायद स्वयंभू से अन्यत्र मुश्किल से मिलेगा। रावण और अयोध्या के रनिवासों के चित्रण में कवि ने कमाल किया है।
काव्य-मर्मज्ञों ने करुण-रस को रसों का परमेश्वर कहा है। स्वयंभू ने विलाप-वर्णन में गजब ढाया है। रावण के मरने पर मंदोदरी और विभीषण के विलाप को पढ़ कर पाठकों के नेत्र ही सिक्त नहीं हो जायेंगे, बल्कि मंदोदरी, विभीषण और मत रावण के प्रति गंभीर उदात्त भावों को देख कर वे कवि की महान कला की दाद दिये बिना नहीं रहेंगे।
सामन्ती युग में स्त्रियों के अधिकार ही क्या हो सकते हैं ? किन्तु हिन्दी कवियों ने उन्नीसवीं सदी तक नारी के जिस स्वरूप का चित्रण किया है, उसकी अपेक्षा स्वयंभू की नारी ज्यादा उन्नत, ज्यादा आत्माभिमानी है।’ स्वयंभू ने सीता का जो रूप-रावण को जवाब देते समय और अग्नि-परीक्षा के समय-चित्रित किया है, उसका आगे फिर कहीं पता नहीं लगता। जान पड़ता है, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने से आठ सौ वर्ष पहले लिखी गयी स्वयंभू रामायण को देखा जरूर होगा। जिस सोरों के शूकर क्षेत्र में नवतरुण तुलसी ने राम की कथा पहले-पहल सुनी थी, उसमें आज भी कितने ही जैन घर मौजूद हैं। उस समय उनकी संख्या अधिक रही होगी। वैश्य होने से वे सभी साक्षर थे, और उनके घरों में मुश्किल से कोई ऐसा रहा होगा
जिसमें स्वयंभू रामायण न रही हो। उस समय नये राम-भक्त रामानंदी साधु रामकथा को खोज निकालने में बड़ी तत्परता दिखा रहे थे। यह कैसे हो सकता है कि उन्हें इस सुन्दर रामकथा का पता न लगा हो। इससे कम से कम इतना तो हम कह ही सकते हैं कि गोस्वामी जी के लिए स्वयंभू रामायण बहुत सुलभ थी। मेरे कितने ही मित्र स्वयंभू रामायण के कितने ही स्थलों को पढ़ कर “रामचरितमानस” पर उसकी छाप होने के बारे में कहते हैं।
मैं यह कहने के लिए तैयार नहीं हूं कि गोस्वामी जी ने स्वयंभू के कवित्व को बिना आभार स्वीकार किये ले लिया। हां, स्वयंभू के महान काव्य से गोस्वामी जी को प्रेरणा जरूर मिली, लेकिन उससे गोस्वामी जी की काव्य प्रतिभा के महान होने में सन्देह करने की गुंजाइश नहीं। हरेक आने वाली पीढ़ी को अपने पूर्वजों की कृतियों से सहायता मिलती है, इससे ज्यादा इस बारे में हम नहीं कह सकते।
गोस्वामी जी ने अपनी कथा के मूलस्रोत के बारे में लिखा है-“नाना पुराणनिगमागमसम्मतंयद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि”। इसमें निगम (वेद), आगम (शास्त्र), पुराण और रामायण में ब्राह्मणों की रामकथा आ जाती है । कालिदास, भवभूति, आदि, कवियों की रामकथाओं के भी मूलस्रोत ये ही हैं। फिर “क्वचिदन्यतोऽपि” (कहीं अन्यत्र से भी) से तो, मुझे मालूम होता है, गोस्वामी जी का किसी अब्राह्मण स्रोत की ओर इशारा है। 16वीं-17वीं सदी में ऐसा अब्राह्मण स्रोत जैनों का ही हो सकता है, यद्यपि जैनों के प्राकृत और संस्कृत रामायण (पद्मपुराण), स्वयंभू का अद्भुत काव्य उसी भाखा, अपभ्रंश (सामाण भास) सामान्य भाषा, “देसी भाषा”, में मौजूद था, जिसमें गोस्वामी जी स्वयं अपने महान् काव्य को लिखने जा रहे थे।
मैं स्वयंभू को हिन्दी के तेरह सौ वर्षों के कवियों में ही सर्वश्रेष्ठ नहीं समझता, बल्कि भारत के एक दर्जन सर्वश्रेष्ठ कवियों के साथ रखता हूं। हमारे पाठक इसे सुन कर आश्चर्य करेंगे। सबसे अधिक आश्चर्य तो उन्हें इसलिए होगा कि इतने महाकवि होने पर, स्वयंभू भुला क्यों दिये गये । ब्राह्मणधर्मी पाठक ही नहीं, जैन पाठक भी यह सवाल कर सकते हैं क्योंकि जैनों के यहां भी स्वयंभू भुलाये जा चुके हैं। उनकी रामायण की दो-तीन पुरानी प्रतियां मुश्किल से ढूंढने पर मिली हैं, कृष्णचरित (हरिवंश पुराण) की प्रति तो और भी दुर्लभ है । अभी तक ये ग्रंथ कहीं प्रकाशित नहीं हुए।
स्वयंभू की कृतियों की ओर से यह उपेक्षा शायद इस बात का प्रमाण समझी जायगी कि उनमें वह कवित्व नहीं था, इसलिए अपने पराये सबने उन्हें भुला दिया। इसके बारे में मैं कोई तर्क-वितर्क करने की आवश्यकता नहीं समझता क्योंकि इसका उत्तर उनकी कविता है। समय और हमारी उपेक्षा ने स्वयंभू को मार ही डालना चाहा था। किन्तु यदि वह अब तक बचे रह गये हैं, तो आज उनके लिए समय और अनुकूल आ गया है।
स्वयंभू को भुलाने का कारण थी वह पुरानी भाषा, जो 8वीं सदी में बोली जाती थी और पीछे बदल गयी। यद्यपि क्रिया और नामरूप में वह गोस्वामी जी की भाषा से बहुत अन्तर नहीं रखती, लेकिन इसमें एक भी संस्कृत तत्सम् शब्द रखा नहीं जा सकता था। पीछे 14वीं शताब्दी से जब हमारी भाषाओं में तत्सम् शब्दों का प्रयोग बहुत जोर से बढ़ने लगा, तो उसी के अनुसार तद्भव (अपभ्रंश) शब्दों को लोग भूलने लगे। इस प्रकार तद्भव शब्दों के बायकाट के कारण स्वयंभू की रामायण को समझना लोगों के लिए मुश्किल होने लगा। और, वह धीरे-धीरे विस्मृति के गर्भ में चली गयी। जहां हम तद्भव शब्दों को तत्सम् रूप दे देते हैं, वहां उसी विभक्ति और क्रिया के रूप में उसको समझना सुगम हो जाता है।
स्वयंभू ने अपनी “रामायण” को उसी तरह चौपाइयों में (पज्झड़िया) छन्द में लिखा है, और 8-8 पंक्तियों के बाद दोहा, सोरठा या किसी दूसरे छंद में विश्राम (घत्ता) के साथ, जैसा कि पीछे गोस्वामी जी ने अपनी “रामायण” में किया । स्वयंभू ने जहां-तहां दूसरे छन्दों का भी प्रयोग किया है। भाषा छंद के वह स्वयं एक महान् आचार्य थे। ‘स्वयंभू छंद’ के नाम से उन्होंने एक ग्रंथ लिखा था, जिसका कुछ खंडित अंश प्राप्त हो चुका है।
स्वयंभू ने अपने समय के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। उनके ग्रंथों से इतना ही मालूम होता है कि वह रमड़ा, धनंजय, नाग, श्रीपाल और धवलई के आधित थे। रमड़ा को कोई-कोई राजोष्ठि का अपभ्रंश मानते हैं। हो सकता है धनंजय ही वह राजश्रेष्ठि हो। लेकिन इन नामों से हम उनके समय के बारे में कुछ नहीं जान सकते।
स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू भी कवि थे। उन्होंने अपने पिता के पूर्ण ग्रंथों को भी अपनी ओर से जोड़कर और पूर्ण करने की कोशिश की है। त्रिभुवन के आश्रयदाता थे बंदार्य (वंदक) और उसके ज्येष्ठ पुत्र गोबिन्द। ये सभी आश्रयदाता कुछ धनी भले ही रहे हों, किन्तु उनके हाथ में कोई राजनीतिक प्रभुत्व नहीं था। इसलिए इन नामों से हमें स्वयंभू के काल निर्णय में सहायता नहीं मिलती। हां, इनसे यह पता लगना किती “देसी भासा” के कवियों की राजदरबार ने प्रतिष्ठा नहीं की थी जो यही साबित करता है कि स्वयंभू “देसी भासा” काव्य साहित्य के प्रथम प्रतिष्ठाताओं में से थे।
स्वयंभू ने अपने ग्रंथों में सबसे पीछे होने वाले जिन कवियों के नाम दिये हैं, वे हैं – बाण (हर्ष-कालीन 606 – 48 ई.) और रतिषेण (679 ई.)। उनका नाम “देसी भासा” के दूसरे महाकवि पुष्पदंत (659 – 72 ई.) ने भी लिया था।
इस प्रकार, स्वयंभू 676 और 859 ईस्वी के बीच में हुए ।
स्वयंभू ने “रामायण” में ध्रुवराजा (ध्रुवराय) का नाम लिया है। दक्षिण के राष्ट्रकूट, पूर्वगामी शातवाहनों (शालिवाहनों) की तरह, प्राकृत और “देसी भासा” के प्रेमी थे। अभी इसके लिए नाम सादृश्य और देगी भासा के प्रेम के सिवा मैं और कोई कारण नहीं बतला सकता कि यह ध्रुवराय जरूर राष्ट्रकूट वंश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था। गुर्जर प्रतिहार वत्सराज और गोडेश्वर धर्मपाल (770 – 809 ई.) जिस वक्त कन्नोज को हड़पना चाहते थे, उस वक्त ध्रुव ने ही उन दोनों को विफल मनोरथ किया था। ध्रुव धारावर्ष का समय 780 – 943 ई. है।
स्वयंभू की “देसी भासा” में जो अवधी (कोसली) का बीजमूल मिलता है, उससे यदि वह युक्त प्रांत के निवासी रहे हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। संभव है ध्रुव के कन्नौज आने के समय उसके दरबारी रमड़ा धनंजय, स्वयंभू को अपने साथ ले गये हों। इस ध्रुव के अलावा, उसके पुत्र इंद्र से चलने वाली गुर्जर शाखा में भी दो ध्रुव – प्रथम ध्रुव (830 -35 ई.), और उसका पोता द्वितीय ध्रुव (867 ई.) – हुए हैं । इस तरह इन ध्रुवरायों के समय को देखने से ये 780 से 867 के बोच रहे होंगे। मैं समझता हूं स्वयंभू ने जिस ध्रुवराय का स्मरण किया है, वह महान विजेता ध्रुव धारावर्ष (780 – 943) ही होगा।
स्वयंभू का कुल कवियों का कुल मालूम होता है। उनके पिता माडरदेव भी कवि थे। उनकी मां पद्मिनी को काव्यानुराग था या नहीं, यह नहीं कह सकते। लेकिन स्वयंभू की पत्नी आदित्य देवी अवश्य रसज्ञ थीं, यह स्वयंभू के उल्लेख से ही मालूम होता है।
स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू की कविता तो पिता की कृतियों से, परिशिष्ट के तौर पर, अब भी प्राप्त है। इससे अधिक स्वयंभू के कुल के बारे में हमें नहीं मालूम । धर्म से वह जैनी थे।
हिन्दी के आदिकवि सरहपा (760 ई.) और उनके शिष्य शबरपा ही स्वयंभू से पहले के कवि हैं। लेकिन उनकी कृतियां -दोहाकोष- कबीर के ‘शब्द और साखी’ की तरह हैं। उन्होंने कोई खण्ड-काव्य या महाकाव्य नहीं लिखा ।
इस तरह स्वयंभू हमारे सबसे पुराने महाकवि हैं ।
मैं समझता हूं कि वह समय जल्दी आयेगा, जब हमारे साहित्यिकों के लिए स्वयंभू का पढ़ना अनिवार्य हो जायेगा। मैंने अपनी “हिन्दी काव्यधारा” में स्वयंभू के काफी उद्धरण दिये हैं। लेकिन हिन्दी वालों का उचित योग होगा – यदि वे स्वयंभू की “रामायण” और हरिवंश पुराण (कृष्णचरित) को पूरा देखना चाहें।
इन दोनों काव्यों को खोज निकालने का श्रेय मुनि दिग्विजय जी को है। उन्होंने “रामायण” के सम्पादन का भार लेने के लिए मुझ से कहा है। मैं भी इस काम को करना चाहता हूं। लेकिन 28000 पंक्तियों के विशाल ग्रन्थ को सम्पादित करने से पहले, मैं चाहता हूं, तद्भव और तत्सम दोनों रूपों के साथ छ:-सात सौ पृष्ठों में पहले स्वयंभू की रामायण का संक्षिप्त संस्करण (कथा प्रवाह और उच्चतम कवित्व को बिना छोड़े) निकाला जाय ।