दलित साहित्य: एक अन्तर्यात्रा – कमलानंद झा

पठनीय पुस्तक

दलित साहित्य के लिए यह शुभ संकेत है कि अब हिंदी में भी लगातार आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हो रहीं हैं। रचना के साथ-साथ आलोचना का यह तादात्मय दलित साहित्य के स्थायित्व के लिए उत्साहवर्धक है। इन पुस्तकों  में दलित साहित्य पर पैनी, सचेत और गंभीर दृष्टि रखने वाले बजरंग बिहारी तिवारी की नयी पुस्तक ‘दलित साहित्य: एक अन्तर्यात्रा’ सहसा ध्यान खींचती है। क्योंकि बजरंग वर्षों से दलित साहित्य की चिंताओं, सरोकारों, अवधारणाओं तथा उसकी चिंतन प्रणाली से मुखातिब रहे हैं। दलित साहित्य का व्यापक अध्ययन, दूसरी भाषाओं के दलित साहित्य को देखने की बेचैनी उनके सुचिंतित लेखन का आधार रहा है। इनकी आलोचना का वैशिष्ट्य यह है कि जहां वे दलित साहित्य की आवश्यकता, महत्व, प्रासंगिकता और व्याप्ति का संधान पूरे दमखम के साथ करते हैं, वहीं दलित साहित्य की सीमाओं और भटकावों पर उंगली रखने से परहेज नहीं करते हैं। आलोचना का नीर-क्षीर विवेक बजरंग की आलोचना दृष्टि का मुख्य तत्व है।

‘दलित साहित्य: एक अन्तर्यात्रा’ में लेखक पुस्तक के आरंभिक हिस्से में दलित साहित्य की पृष्ठभूमि, उद्भव-विकास और उसकी अवधारणा पर अत्यंत महत्वपूर्ण सै़द्धांतिक पक्षों से रु-ब-रु होते हैं। बात दलित साहित्य के  विकास की हो या या उसकी पृष्ठभूमि की, बजरंग क्रमवार इतिहास लिखने की बजाय स्थितियों-परिस्थितियों के घात-प्रतिघात तथा उसकी द्वंद्वात्मकता को केंद्रीयता प्रदान करते हैं। यही वजह है कि वे बिल्कुल आरंभ में ही नोट करते हैं कि ”ऐतिहासिक दबाबों और सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के फलस्वरूप साहित्य जगत में नई धाराओं, प्रवृत्तियों, आंदोलनों का जन्म होता रहता है। साहित्य की गतिशीलता का यह सबसे बड़ा कारण है। किसी लेखक विशेष के कारण साहित्य में युगांतर नहीं होता, युगांतर होता है ठोस भौतिक परिस्थितियों में आनेवाले परिवर्तनों के आधार पर।’’ (पृ. 4)

दलित साहित्य की पृष्ठभूमि की पड़ताल करते हुए बजरंग बिहारी बौद्ध – जैन साहित्य के साथ भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति साहित्य तथा प्रगतिशील आंदोलन को मुख्य कड़ी के रूप में शिनाख्त ही नहीं करते बल्कि दलित लेखन की परंपरा और निरंतरता की ओर भी संकेत करते हैं। तात्पर्य यह कि आधुनिक काल की लोकतांत्रिक परिवेश में दलित साहित्य मुख्य धारा के साहित्य के समानान्तर उठ खड़ा हुआ लेकिन उसकी उपस्थिति और अनुगूंज भारतीय संस्कृति और चिंतन परंपरा में हमेशा से रही है। यह दीगर प्रश्न है कि ब्राह्मणवादी कील-कवच ने उसे हाशिये पर धकेले रखा। ज्योतिबा फुले तथा बाबासाहब अंाबेडकर आदि ने सारी लानते-मलालतें सहने के बावजूद दलित चिंतन और सरोकार को  भारतीय जमीन पर अस्तित्व प्रदान करने में सफल रहे।

लेखक ने पुस्तक में दलित तथा दलित साहित्य किसे कहा जाए आदि विषय पर सूक्ष्मता से विचार किया है। इसमें दो राय नहीं कि यह विचार दलित साहित्य के अध्ययन संबंधी कई गुत्थियों, भ्रांतियों और द्वंद्वों का परिष्कार कर दलित साहित्य को समझने की एक साफ और समग्रतापूर्ण दृष्टि प्रदान करती है। पुस्तक में सन् 1990 में हुए कुछ राजनीतिक बदलाव को  दलित चेतना के विस्तार के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। मंडल कमीशन, राम जन्मभूमि के संदर्भ में उग्र धार्मिकता तथा वैश्वीकरण-उदारीकरण ने दलित चिंतन को नये ढंग से गढऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया।

बजरंग बिहारी तिवारी ने वेदना, नकार और विश्लेषण को दलित साहित्य का तीन महत्वपूर्ण पड़ाव माना है। ‘नकार’ और ‘विश्लेषण’ को  लेखक कदाचित इसलिए महत्पूर्ण मानते हैं क्योंकि जहां यह आधुनिक दलित चित्त का परिचायक है, वहीं दलित जागरण का कारण भी। ‘वेदना’ की व्याप्ति और अभिव्यक्ति बौद्ध जैन साहित्य से लेकर भक्ति साहित्य तक में देखने को मिलती है लेकिन ‘नकार’ और ‘विश्लेषण’  आधुनिक दलित चिंतन और साहित्य की देन है। ‘नकार’ के महत्व को रेखांकित करते हुए लेखक बजरंग लिखते हैं, ‘वेदना की अभिव्यक्ति जरूरी है लेकिन सिर्फ  इतने से  मकसद पूरा नहीं होता। जिस समाज व्यवस्था ने यातना के कुएं में ढकेला है उसे नकारना बहुत आवश्यक है। ‘नकार’ दलित विमर्श का आजमाया हुआ अस्त्र है। गुलामी का नकार, यंत्रणा से नकार, समस्त सवर्णवादी मूल्यों, मान्यताओं  का नकार दलित लेखनी की पहचान है। दलित रचनाकार जानता है कि उसके पूर्वजों ने चुपचाप देखा झेला लेकिन नकारने की हिम्मत नहीं दिखा सके, इसलिए यातना की धारा अबाधित रही।’ (पृ. 26)

लेखक दलित सहित्य में आत्मालोचन की प्रवृत्ति को इस साहित्य के विकास का एक आवश्यक प्रस्थान बिदु मानते हैं। बकौल लेखक, सब पर उंगुली उठाने वाले दलित लेखकों ने अपने भीतर झांकने की भी हिम्मत दिखायी। उनके आत्मकथनों में आत्मालोचन की प्रवृत्ति  विशेष तौर पर दिखायी देती है। आत्मालोचन के जिन तीन बिंदुओं को लेखक ने रेखांकित किया है, वे हैं 1 वैयक्तिक स्तर पर अपनी विफलताओं चूकों का स्वीकार, 2 आंतरिक जातिवाद की समस्या पर विचार, 3 दलित स्त्री की तिहरी उपेक्षा पर चिंता। आत्मालोचन के इन सभी मुद्दों पर उदाहरण और साक्ष्य के साथ अपनी बात कहने की कोशिश पुस्तक में की गई है।

पुस्तक में स्वतंत्र अध्याय के माध्यम से दलित साहित्य और अंाबेडकर दर्शन के आपसी रिश्ते को समझने का प्रयास किया गया है। लेखक ने पूरी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ सिद्ध किया है कि दलित साहित्य का आधार अंाबेडकर दर्शन ही है। अंाबेडकर के विचार से पल्लवित-पुष्पित होकर ही सभी भाषाओं का दलित साहित्य अपना रूपाकार ग्रहण करता है। पूरे अध्याय में लेखक आंबेडकर दर्शन की सीमाओं से बचने का प्रयास किया है। यह विडंबनापूर्ण तथ्य है कि ‘मूर्तिभंजक’ अंाबेडकर को कुछ दलित रचनाकारों ने देवी-देवता के समान निरा मूर्ति में तब्दील कर दिया है। राष्ट्र और संविधान की तरह अंाबेडकर को आलोचना से परे मान लिया गया है। और यह मानना दलित साहित्य के लिए नुकसानदेह है। गेल ओमवेट, सुभाष गाताडे और आनंद तेलतुंबडे जब दलित आंदोलन और अंाबेडकर की भूमिका पर अत्यंत गंभीरतापूर्वक आलोचनात्मक तरीके से विचार करते हैं तो उनके खिलाफ  लामबंदी की कोशिश की जाती है। प्रत्येक महान व्यक्ति के संघर्ष में सफलता-असफलता, अन्तर्विरोध हो ही सकता है। उन अंतर्विरोधों पर बात करना कहीं से भी उस महान व्यक्ति की निंदा नहीं होती, इस तथ्य को संवेदनशीलता से दलित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।

पुस्तक में अत्यंत व्यवस्थित और सिलसिलेवार ढंग से दलित कविता, दलित कहानी और दलित आत्मवृत्त पर अलग-अलग विमर्श प्रस्तुत किया गया है। जयप्रकाश लीलावान, मलखान सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि के साथ-साथ नवोदित दलित कवियों पर लेखक ने सविस्तार विचार किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये कवि हिंदी दलित कविता के प्रतिनिधि स्वर माने जा सकते हैं। लेखक इन कविताओं को आशा भरी नजरों से देखते हुए लिखते हैं, ”पिछले दो दशकों से हिंदी दलित कविता की परिधि में आशातीत विस्तार हुआ है। परस्पर मिलते-टकराते कई आयाम इस परिदृश्य को समृद्ध करते हैं।’’कई दलित रचनाकार भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाजारवाद को दलितों के लिए श्रेयस्कर मानते हुए नारा देते रहे हैं कि ‘दलितों को भूमंडलीकरण का स्वागत करना चाहिए।’ लेकिन इस विचार के विपरीत दलित कवि जयप्रकाश लीलावान  पूंजीवाद से नि:सृत भूमंडलीकरण के शातिराना स्वभाव से पाठकों को आगाह करते हैं। इस संदर्भ में लेखक ने उनकी लंबी कविता ‘समय की आदमखोर धुन’ की महत्ता को उद्घाटित करते हुए उसे ‘भारतीय कविता का प्रतिनिधि स्वर’ घोषित किया है। बकौल लेखक ”यथार्थ के सुनियोजित आभासीकरण को पहचानती हुई यह कविता उन क्रूरताओं और नृशंसताओं को चिह्नित करती है जिसे ‘तकनीक सज्जित निरकुंश वर्चस्व’ ने चकाचौंधी आवरण से ढक दिया है। (पृ. 62) मलखान सिंह को लेखक ने ‘घनीभूत दलित संवेदना’ का कवि कहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के लिए वे लिखते हैं, ”बदले हुए वैश्विक और राष्ट्रीय संदर्भों में नई चुनौतयों की पहचान, उनसे जूझने का रचनात्मक संकल्प और तदनुसार विजन निर्माण ही वाल्मीकि के विवेकपूर्ण काव्य यात्रा की पहचान है।’’

बजरंग बिहारी तिवारी दलित कविता के सचेत पाठक पहले हैं आलोचक बाद में। एक सच्चे पाठक की यही सजग चेतना दलित कविता को सही परिप्रेक्ष्य में देख पाने की दृष्टि दे पाती है। यही कारण है कि वे इन कविताओं की सीमाओं और संभावनाओं की ही पड़ताल नहीं करते बल्कि कविता की भविष्योन्मुखता पर भी गंभीरता से विचार कर ले जाते हैं। उनके अनुसार ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ दलित कविता का नियामक तत्व तो है लेकिन अनुभव के साथ ‘विजन’ का होना आवश्यक है। विजन प्रामाणिक अनुभवों को एक परिप्रेक्ष्य देने से उभरता है। परिप्रेक्ष्य देने का मतलब है अनुभवों से परे देख सकने की क्षमता। अनुभव जगत को अतिक्रांत कर सकने का साहस’’ अनुभव के साथ अध्ययन का योग कविता को अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है।

‘दलित साहित्य: एक अन्र्तयात्रा’ में जहां दलित कहानी की सैद्धांतिकी पर बात की गई है वहीं लेखक ने कुछ उम्दा कहानियों की टोह भी ली है। दलित कहानी के साम्प्रतिक परिदृश्य से लेखक आश्वस्त दिखते हैं। किंतु आरंभिक दलित कहानियों में पूर्व निर्मित ढांचे में कुछ स्थितियों और चरित्रों को डाल देने की प्रवृत्ति अधिक रही है। साम्प्रतिक दलित कहानियां भूमंडलीकरण को ललचायी नजरों से न देखकर भेदक दृष्टि से देखती है और भूमंडलीकरण की चुनौतियों से टकराती हैं। इस दृष्टि से  कैलाश वानखेड़ेे की कहानी ‘कितने बुश कितने मनु’ के मुरीद हैं लेखक। उक्त कहानी को इस विषय पर लिखी गई पहली ‘बड़ी रचना’ मानते हुए लिखते हैं, ”अपनी सीमित जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि तमाम भारतीय भाषाओं की दलित कहानी लेखन में ऐसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य और गहरी अन्तर्दृष्टि वाली कहानी पहले नहीं आई है।’’ (पृष्ठ 121) टेकचंद की कहानी ‘दौड़’ को वे इसी कड़ी की श्रेष्ठ कहानी मानते हैं।

जेंडर के सवालों से जबाव-तलब साम्प्रतिक दलित कहानियों की अन्यतम विशेषता है। लेखक के अनुसार, ”दलित स्त्रियों की संगठनात्मक सक्रियता, संघर्षपूर्ण लेखन और प्रतिरोधी चेतना ने दलित विमर्श में जेंडर के सवालों के प्रति सजगता, संवेदनशीलता और सकारात्मक प्रतिक्रिया को जन्म दिया है। डिटेलिंग दलित कहानी को विशिष्ट बनाता है। लेेखक के मतानुसार नये दलित कहानीकारों ने परिवर्तित परिस्थितियों के मद्देनजर व्यौरों के विनियोजन, पुनर्नियोजन तथा संयोजन की जरूरत महसूस की। डिटेल्स से ज्यादा उन्हें रखने-रचने वाली दृष्टि को महत्व दिया। व्यौरे के साथ इन कहानियों की भाषिक प्रौढ़ता भी लेखक को अभिभूत करती है, ”कैलाशचंद्र चौहान की प्रवाहपूर्ण भाषा, अनिता भारती की तल्ख स्त्री भाषा, टेकचंद की सुगठित कथा भाषा और कैलाश वानखेड़े की अशेष सर्जनात्मक भाषा पर दलित कहानी उचित ही गर्व कर सकती है।’’ (पृष्ठ 126)

दलित साहित्य की पहचान मुख्यत: आत्मकथनों से होती है। पुस्तक में दलित आत्मवृत्त पर कुछ महत्वपूर्ण अध्याय हैं। लेखक बजरंग बिहारी के अनुसार दलित आत्मवृत्त सर्वाधिक मुखर रूप से दलित साहित्य की चुनौतियों से मुठभेड़ करती प्रतीत होती है। कुछ विद्वान विदुषियों का मानना है कि आत्मकथा लेखकों को ‘अतीत प्रेम’ से मुक्त होना चाहिए, तभी वे उत्तम आत्मकथा लिख पायेंगे। लेखक इस अतीत मुक्ति को दूसरी तरह से देखने की सिफारिश करते हैं, ”श्रेष्ठ आत्मकथाओं के लिए अतीत को भुला देना या अतीत से भागना समस्या का समाधान नहीं है बल्कि अतीत की जटिल गतिशीलता को समझकर ही उसमें रमा जा सकता है।’’ आपको स्वयं अपनी स्मृतियों की जिम्मेदारी लेनी होगी, अपने अतीत के तहों में उतरना होगा, उसकी पुनर्रचना करनी होगी। इस पुनर्रचना का नाम ही आत्मकथा है।’’ (पृष्ठ 155)

पुस्तक में संकलित ‘दलित आत्मवृत्त:स्वरूप विश्लेषण’ मेरी संक्षिप्त जानकारी में दलित आत्मकथा पर लिखी गई सर्वश्रेष्ठ आलोचनाओं में एक है। उक्त आलेख में दलित आत्मकथाओं का ऐतिहासिक संदर्भ, उसका महत्व, उसके अन्तर्वस्तु का वैशिष्ट्य, उसकी संरचनात्मकता, स्थापत्य, शिल्प-भाषा के अतिरिक्त स्त्री आत्मवृत्त की संभावनाएं और जरूरत आदि को अत्यंत संश्लिष्ट रूप में सामने रखने का प्रयास किया गया है। यह आलेख सर्वप्रथम तेजसिंह संपादित ‘अपेक्षा’ में सन् 2010 में प्रकाशित हुआ था। इस बीस पृष्ठीय विस्तृत आलेख में लेखक ने दलित आत्मकथाओं की कुछ सीमाओं की ओर भी संकेत किया। मूल रूप से दलित आत्मकथाओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते हुए लिखा गया कि, ”क्या आत्मवृत्तों की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पायी है? हम यह कैसे तय करें कि कोई अनुभव विशेष, कोई जीवन प्रसंग कितना सच और कितना अतिरंजित?’’ (पृष्ठ 189) लेखक के इस एक जेन्यून सवाल ने दलित साहित्य में हलचल मचा दिया और लेखक के विरुद्ध कुछ दलित लेखकों मोर्चा खोल दिया। आश्चर्यजनक बात यह हुई कि ओमप्रकाश वाल्मीकि सरीखे ‘रेशनल’ लेखक भी इस मोर्चे में शामिल हो गए। उन्होंने इस सवाल के खिलाफ  जनसत्ता में ‘दलित साहित्य और पुरोहितवाद’ शीर्षक से एक फतवापरक आलेख लिखा। जिसका अत्यंत विनम्र जबाव जनसत्ता में ही लेखक ने ‘पुरोहित कौन’ शीर्षक से दिया।

पुस्तक में  ‘जूठन’ और ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ की स्वतंत्र समीक्षा प्रस्तुत की गई है। लेखक के अनुसार इस तरह की आत्मकथाएं साहित्य के ‘आनंद और विनोदवादी’ स्वरूप, हेतु और लक्षण को प्रश्नांकित करती हैं। अब तक आनंदवादी साहित्य सत्ता व्यवस्था पर काबिज लोगों की संपत्ति रहा है, ऐसे साहित्य का एकमात्र प्रकार्य विनोद पैदा करने तक सीमित किया गया। जरूरत साहित्य की इस विनोदमूलक पकृति के रूपांतरण की है। ‘विनोद’ को ‘कचोट’ में तब्दील करना इन्हीं लोगों के बूते संभव है, जिन्होंने अनुभव दग्ध जीवन जीया है। (पृष्ठ 193) दरअसल यह विनोदप्रिय साहित्य जिंदगी में सकून पैदा करता है। जूठन के लिए लेखक लिखते हैं, ”जूठन इसी सुनियोजित सकून के पवित्र दुर्ग में विक्षोभ पैदा  करने का काम करता है।’’ ‘दलित साहित्य:एक अन्तर्यात्रा’ दलित साहित्य को समझने की दृष्टि तो देती ही है साथ ही दलित साहित्य के वृहत्तर सरोकार से भी साक्षात्कार कराती है।

पुस्तक-‘दलित साहित्य: एक अन्तर्यात्रा
लेखक- बजरंग बिहारी तिवारी
प्रकाशक-नवारुण  सी-303, जनसत्ता एपार्टमेंट, सेक्टर-9 वसुंधरा, गाजियाबाद, मूल्य-160


स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 73 से 75

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