देखो, हमारे हाथों मुल्क का इतना भी न बुरा हाल हो
कि शहीदों की रूहों को अपनी कुर्बानी का मलाल1 हो
अवाम2 का लहू-पसीना निचोड़ करते हैं ऐश रहनुमां3
दौलते4-मुल्क की हो लूट-खसोट, तो क्यों न बवाल हो
हुस्नो5-नकहत में इंसानियत की हो इजाफा6 खूब पैहम7
फरिश्तों को भी हो रश्क8 जिससे ऐसा उसका इकबाल9 हो
आदमी का अपना भी हो कुछ उसूलों10-ईमां जिंदगी में
ये नहीं कि चले वैसा हरदम, जैसी वक्त की चाल हो
तस्वीर मुल्क की बदले न क्यों, ‘गाफिल’ गर हर शहरी11 को
प्यारी रिज़्के12 हराम नहीं, हरदम रिज़्के13 हलाल हो
भ्रष्टाचार से है गिला जितना उतना ही क्या हमें प्यार नहीं
उसे कोसते तो हैं सब, पर अपनाने से किसी को इंकार नहीं
बहुत तेज-तर्रार को भी वक्तो-मतलब बना लेते हैं पालतू
आदमी वो बेशक अच्छा है, पर उसमें पहले-सी धार नहीं
जन्नत की ख्वाहिश है सबको, पर मिलती नहीं वो यहां किसी को
क्योंकि उसे पाने के लिए मरने को कोई भी तैयार नहीं
सूरज की किरणें इन्द्रधनुष के सातों रंगों में रक्श1 करती हैं
तो, फिर जहां को इक रंग में रंगने की कोशिश क्या बेकार नहीं
मरने की दुआ करने वाले कहते कुछ हैं, चाहते कुछ हैं
दिल पे हाथ रख के कह दें वो, जिंदगी से उन्हें प्यार नहीं
शिकवे ‘गाफिल’ से भलेें हों तुम्हें, पर उसे समझना न कभी गैर
आओ करीब उसके और बताओ, क्या वो यारों का यार नहीं
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मई-जून 2016) पेज- 71