कृषि संकट एक व्यापक प्रश्न बने

16 अप्रैल को ‘देस हरियाणा’ पत्रिका द्वारा रोहतक में एक परिचर्चा आयोजित की गयी। विषय था -‘हरियाणा में खेती किसानी -अंतर्विरोध और समाधान’। इस परिचर्चा में मुख्य रूप से दो प्रश्नों पर विचार किया गया।

पहला प्रश्न न्यूनतम समर्थन मूल्य और मजदूरी से सम्बन्धित था। कई बार ये संदेह उठाया जाता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढऩे से अनाज का जो बाजार भाव बढ़ता है उससे भूमिहीन या दिहाड़ीदार मज़दूर की दिक्कत बढ़ जाती है, चूंकि मज़दूर को तो अनाज खरीदकर ही खाना होता है।

शुरुआत में सत्यपाल खोखर ने कहा कि खेती में जो लागत बढ़ी है वो इस सारे संकट के लिए जि़म्मेदार हैं। कम्पनियां अपने मुनाफे के लिए गैर ज़रूरी चीज़ों को खेती में फिट कर रही हैं। कृषि विभाग को जो करना चाहिए वो कर नहीं पा रहा। पूरा तंत्र प्राइवेट कम्पनियों के आगे झुक चुका है। इसलिए जब तक ‘इनपुट’ यानी लागत कम नहीं होती तब तक स्थायी समाधान नहीं हो सकता। रविंदर खत्री ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत राशन डिपो की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि सरकार मामूली दामों पर राशन डिपो के द्वारा अनाज उपलब्ध करवाती है। इसलिए मज़दूर के लिए समाधान यही हो सकता है कि राशन डिपो सुचारु रूप से काम करें। सुधीर दांगी ने ये बिंदु रखा कि एग्रीकल्चर का मतलब एग्रो-इंडस्ट्री हो गया है और किसान तक सब्सिडी पहुंच ही नहीं रही। धर्म सिंह अहलावत ने एक अन्य बिंदु सामने रखा। उन्होंने कहा कि खेती अकेली ऐसी जगह है जहां उपज पैदा करने वाला किसान खुद उसका भाव तय नहीं करता। जबकि उद्योग में प्लास्टिक जैसी चीज पर भी पचास प्रतिशत तक मुनाफा कमा लिया जाता है। ये देखा जाना चाहिए कि जिसने अपना खेत ठेके पर दे दिया है वो खतरे के बाहर है जबकि जो व्यक्ति मशीनें लगाकर अब उस पर खेती करेगा वो मुश्किल में होगा। सरिता ने समर्थन मूल्य की अवधारणा को सही ठहराया और कहा कि समर्थन मूल्य किसान को उत्पादन की तरफ प्रोत्साहित करने के लिए होता है। यदि समर्थन मूल्य न हो तो किसान मुश्किल में फंस सकता है। मज़दूर की लिए समाधान राशन-डिपो व्यवस्था में ही है। सर्च संस्थान के पूर्व निदेशक अविनाश सैनी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि अब सब कुछ बाजार के हवाले है। अगर गन्ने का समर्थन मूल्य है तो चीनी का क्यों नहीं है। सब्जियां इस व्यवस्था से बाहर क्यों हैं। क्या जो अनाज बी पी एल को मिलता है वो सच में खाने लायक है? अविनाश के अनुसार ‘मज़दूरी बढऩी चाहिए’ इसके बढऩे पर उत्पादन लागत फिर बढ़ेगी। ये एक पूरा चक्र है। और इस चक्र पर ज़्यादा गहरायी से बात होनी चाहिए। इसके बाद प्रवासी मज़दूरों के बच्चों के लिए एक स्कूल चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता  नरेश कुमार ने अनुभव सांझे किये उन्होंने महम के नजदीक अपने गांव से ही कई आकंड़े देकर खेती में होने वाले बेहद मामूली मुनाफे का जिक्र किया जो एक परिवार को चलाने के लिए बिलकुल नाकाफी है। उनके अनुसार आज खेती से सिर्फ उसका रिश्ता है जिसके पास आमदनी का कोई और स्रोत नहीं है। खेती का पूरी तरह नैगमीकरण (कॉर्पोरटाइजेशन) हो चुका है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य को मज़बूत करती है। मज़दूर की क्रय शक्ति बढ़ाई जानी चाहिए। इस सवाल की चर्चा का एक दौर पूरा होने के बाद सत्यपाल खोखर ने पुन: टिप्पणी की और कहा कि हम इस एक सवाल को अलग करके नहीं देख सकते। खेती की बहुत सारी समस्याएं जैसे रसायनों का इस्तेमाल ,घटती जोत के बावजूद ट्रैक्टरों की बढ़ती बिक्री और बैंक ऋण के पहलू इससे जुड़े हैं। हमें मज़दूरी को न्यूनतम समर्थन मूल्य से इस तरह जोड़कर नहीं देखना चाहिए।

 इसके बाद परिचर्चा में दूसरा प्रश्न यह लिया गया कि खेती के संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित कौन है। क्या ठेकेदार प्रभावित है या खेत मज़दूर या फिर खुदकाश्त-ज़मींदार या फिर ये सभी बराबर प्रभावित हैं ? इस पर सुधीर दांगी ने आरम्भ करते हुए कहा कि संकट में वो है जो खेत को ठेके पर लेता है। यानी किसी भी आपदा से काश्तकार किसान सबसे बुरी तरह प्रभावित होता है। सत्यपाल खोखर जी ने कहा कि वर्तमान में खेती में कई अलग अलग व्यवस्थाएं है। किसी में फसल आने पर उसका हिस्सा खेत मालिक को दिया जाता है। कहीं नकद और किसी में सांझे की खेती होती है। सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है खेत को बंटाई पर लेने वाला। नरेश कुमार ने कहा कि संकट में सिर्फ वही है जिसके पास खेती के अलावा आय का कोई साधन है ही नहीं। वर्तमान हालात ये है कि ठेका भी कम होता जा रहा है जिसकी वजह खेत की उपजाऊ ताकत में कमी है। ठेका और उत्पादन दोनों गिरावट पर हैं। मदन भारती ने कहा कि मज़दूर और किसान में एक अंतर्विरोध तो है। पहले किसान के द्वारा मज़दूर की जो चिंता होती थी आज वो नहीं होती। मज़दूर औरत के प्रति भी व्यवहार में एक तनाव आया है। जिस आदमी ने ठेका लिया होता है वो जमीन से ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाना चाहता है, क्योंकि सबसे ज़्यादा आर्थिक दबाव में वही होता है। सबसे ज़्यादा मार उसी पर होती है। धर्म सिंह अहलावत ने कहा कि मुझे सबसे ज़्यादा संकट ‘मिट्टी’ पर लगता है जो रसायनों के प्रयोग में फंसी हुई है। अविनाश सैनी ने कहा कि खेती करने वाले किसान के अलावा हम जमीन के मालिक को भी छोड़ नहीं सकते। अगर उसके खेत की मिटटी पर रसायनों का प्रयोग होता है तो वो भी लम्बे समय में प्रभावित तो होता ही है। जहाँ तक मज़दूर के संकट की बात है ,अगर वो संकट नहीं होता तो आज पंजाब-हरियाणा में प्रवासी मज़दूर की जगह स्थानीय मज़दूर काम पर होता। ये भी ध्यान रखना चाहिए कि भी मुआवज़ा ज़मीन पर आश्रित मज़दूर को नहीं मिलता।

परिचर्चा के अंत में प्रोफेसर महावीर नरवाल ने कहा कि बीते वर्षों में गैर-कृषि अर्थव्यवस्था बढ़ी है और लगातार बढ़ रही है। हमारी अर्थव्यवस्था की वृद्धि असल में व्यापार और उद्योग की वृद्धि है। कृषि संकट के समाधान का एक तरीका है कि सहकारी मॉडल को बढ़ावा दिया जाए और पूर्व राष्ट्रपति कलाम के कथनानुसार शहरों की सुविधाएं गाँव तक लायी जाएं।

 कृषि के सवालों को एक बहुत लम्बे विमर्श की आवश्यकता है। ऐसी परिचर्चाओं को लगातार बढ़ाया जाए। इसे न सिर्फ किसानों, बल्कि यूनिवर्सिटियों-कॉलेजों में पढऩे वाले विद्यार्थियों तक लेकर जाए ताकि किसानी का प्रश्न एक व्यापक प्रश्न बने।

प्रस्तुति – अमन वासिष्ठ


स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 70-71

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