लालटेन – जय प्रकाश कर्दम

जय प्रकाश कर्दम
जब कभी भी 
किसी पुस्तक-पत्रिका में छपी हुई 
या बाज़ार में 
किसी दुकान में रखी हुई 
लालटेन को देखता हूँ, तो 
ख़ुद को अपने 
गाँव के प्लास्टरहीन घर के 
उस कोने में पाता हूँ 
जहाँ पर 
दीवार में गड़ी हुई 
बतासे की कील पर 
टँगी रहती थी लालटेन 
यूँ गाँव के दूसरे घरों में 
बिजली थी, लेकिन 
हमारे घर में सिर्फ़ यही लालटेन थी 
यही लालटेन ‘दीए’ का काम करती, 
इसी लालटेन के उजाले में माँ 
काम से लौटकर 
गोली-सूखे उपले 
या लकड़ियों में धू-धू कर 
साँझ का खाना पकाती, 
इसी लालटेन के उजाले में 
हम सब खाना खाते 
इसी लालटेन को मैं 
आटे के कनस्तर पर 
लकड़ी के फट्टे के ऊपर रख लेता 
तो मेरे पढ़ने के लिए 
टेबुल लैंप बन जाती, 
और हँडिया-रोटी से निफराम होकर 
इसी लालटेन की रौशनी में बैठकर माँ 
अपने और हम बहन-भाइयों के 
फटे-उधड़े कपडों को 
हाथ से सिलती 
इस लालटेन से पहले 
हमारे घर में डिबिया जलती थी 
डिबिया की रोशनी में ही हम पढ़ते 
डिबिया की कलौंस 
हमारी नाक में भर जाती थी, 
तथा आँख और चेहरे 
स्याह हो जाते थे 
माँ ने कहीं से सुन लिया था 
कि डिबिया का धुआँ 
नाक के रास्ते अंदर जाकर 
फेफड़ों पर जमता है, 
इससे आँखें भी ख़राब हो जाती हैं 
पिता जी के भी फेफड़े ख़राब हुए थे, 
इससे ही वह मरे थे 
डिबिया के धुएँ से 
फेफड़े ख़राब होने की बात सुनकर 
माँ डर गई थी, और 
जोड़-तोड़ करके-तुरंत 
यह लालटेन ख़रीद लाई थी 
यूँ डिबिया के मुक़ाबले 
लालटेन में तेल का ख़र्च ज़्यादा था 
और घर में एक-एक पैसे की तंगी थी 
लेकिन, इसके बावजूद 
माँ चाहे जैसे भी करती, 
दूसरी किसी भी चीज़ की 
तंगी बरतती, पर 
लालटेन के लिए तेल की व्यवस्था 
ज़रूर करती थी 
यूँ आर्थिक तंगी के कारण 
कभी-कभी हफ़्तों तक, 
बिना छुकी-भुनी सब्ज़ी भी 
हमारे घर नहीं बनती थी 
प्रायः नमक के चावल 
या उबले हुए आलू 
नमक के साथ 
हम लोग खाते थे 
हमसे जो बचता 
माँ वह खाती थी 
यानी हम सबकी जूठन से ही 
वह अपना पेट भरती थी 
कभी-कभी भूखी भी रह जाती थी 
ऐसा कई बार हुआ था 
पर, तेल के अभाव में 
घर में लालटेन नहीं जली हो 
ऐसा कभी नहीं हुआ था 
रोज़ शाम को 
लालटेन की चिमनी को साफ़ करना भी 
माँ नहीं भूलती थी 
दरअसल, माँ को 
हमारी पढ़ाई-लिखाई की बड़ी चिंता रहती थी 
इसीलिए, मज़दूरी करने से लेकर 
हँडिया-रोटी और लत्ते-कपड़े तक 
घर-बाहर के सारे काम 
वह ख़ुद करती थी 
हमको वह 
सिर्फ़ पढ़ने के लिए कहती : 
‘पढ़ाई-लिखाई ही तुम्हारी पूँजी है, 
पढ़-लिख लोगे तो कहीं 
अच्छा हिल्ला पा जाओगे 
नहीं तो तसले ढोवोगे, 
दूसरों की ग़ुलामी करोगे' 
यही वह हमें समझाती 
इम्तिहान के दिनों में 
दिमाग़ में तरावट के लिए, वह हमें 
बूरा में घी मिलाकर देती 
यदि हो जाता तो थोड़े-बहुत 
दूध का इंतज़ाम करती 
हम पास होते तो वह 
ख़ुशी से फूली नहीं समाती 
मोहल्ले भर में बतासे बँटवाती 
यानी दुनिया की चकाचौंध के बीच 
हम बहन-भाइयों की 
अँधेरी ज़िंदगियों को 
रोशन करने के लिए 
वह ख़ुद बन गई थी एक लालटेन, 
जिसने ख़ुद को जलाकर 
दी हमें रोशनी 
इसी लालटेन की रोशनी में 
मिली हमें 
हमारे जीवन की पगडंडियाँ, और 
हमेशा रहा हमें अपने साथ 
किसी शक्ति और विश्वास का एहसास 
आज, हम दो भाई 
सरकारी नौकरी पा गए हैं, 
शेष दो भी अपनी-अपनी तरह से 
एडजस्ट हो गए हैं 
और एक-एक करके सबके सब 
शहर में आ गए हैं 
बहनें भी शादी होकर 
अपने-अपने घर चली गई हैं 
एक माँ ही गाँव में रह गई है 
यूँ बेटे भी हैं, बहुएँ भी हैं, 
नाती-पोतियों की भी रेल-पेल है 
यानी कहने के लिए 
उसके आगे सब कुछ है 
लेकिन सब कुछ होते हुए भी 
गाँव के उस टूटे-फूटे घर में 
वह निपट अकेली है 
साल-छह महीने में 
कोई भाई चला जाता है 
सौ-दौ सौ रुपए 
या एकाध जोड़ा कपड़ा देकर 
अपना कर्तव्य निभा आता है 
बाक़ी के दिन 
वह भूखी रहती है कि नंगी, 
बीमार रहती है कि परेशान 
बहनें भले ही 
कभी-कभार जाकर ख़बर लें आएँ 
लेकिन, भाइयों में से कोई भी 
जाकर उसे नहीं देखता है 
सब अपने आपमें मस्त हैं 
अपनी-अपनी फ़ैमिलियों में व्यस्त हैं 
सब अच्छा पी-खा रहे हैं 
दुनिया के साथ 
स्पर्धा में आ रहे हैं 
सबके जीवन में आह्लाद है, 
सबके जीवन में सवेरा है 
लेकिन, माँ की ज़िंदगी में 
आज भी अँधेरा है। 

More From Author

वीर उधम सिंह – इंदर सिंह लांबा

लड़की ने डरना छोड़ दिया- श्योराज सिंह ‘बैचेन’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *