गांधी स्कूल एक उम्मीद –  नरेश शर्मा

पढ़ेंगे पढ़ाएंगे,
जीवन सफल बनाएंगे,
जहाज भी उड़ाएंगे,
हम भी मास्टर बन जाएंगे,
लड़का-लड़की एक समान,
हम सब एक हैं,

जैसे सलोगन प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिए शाम को चलने वाले गांधी स्कूल के प्रेरक बिंदू हैं। ‘दरिया की कसम,मौजों की कसम, ये ताना-बाना बदलेगा गीत के साथ होता है, शाम के समय पढऩे-लिखने का सिलसिला।’

अप्रैल 2005 में सैक्टर 4 की हाउसिंग बोर्ड कालोनी में एक निर्माणाधीन मकान मालिक द्वारा एक प्रवासी मजदूर के 8 वर्षीय बच्चे को टूटी चोरी के इलजाम में पीटते हुए पुलिस चौकी में लाया जा रहा था। बच्चे के माता-पिता उसे छोड़ देने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे। वहां से गुजरते हुए यह देखकर,मैंने बीच-बचाव करने का प्रयास किया तो मकान मालिक भड़क उठा, तुम जैसों ने इनको सिर पर बैठा रखा है,ये चोरी करते हैं,अपराध करते हैं, आया इनका हमदर्द बनकर! यह घटना बार-बार याद आती रही।  ऐसे बच्चों की शिक्षा को लेकर कुछ करने का दिमाग में जच गया। पीटे गए प्रवासी बच्चे के माता-पिता व अन्य प्रवासी मजदूरों से बच्चों की पढ़ाई बारे बातचीत करने शाम को उनके घरों में पंहुचा। कुछ ने सहमति जताई। अगले दिन सुबह बच्चे कंचे खेलते और रद्दी उठाते हुए मिले। उनसे प्यार-दुलार करते हुए कुछ बात हुई,कुछ समय साथ खेलने से थोड़ी दोस्ती बनी। अगले दिन मिलने का समय तय हुआ। आरती, रामनारायण व अर्जुन तीन बच्चे पढऩे के लिए आए। अगली सुबह 5 और धीरे-धीरे 6 महीनों में बच्चों की संख्या 25 हो गई। शुरूआती 6 महीने चौराहे के फुटपाथ पर सुबह के समय क्लास चली। धीरे-धीरे यह क्लास स्थान बदलते-बदलते गांधी स्कूल में बदल गई। प्रोफेसर सूरजभान कई दिन तक बच्चों को पढ़ाने आते रहे।

अब सामने सैक्टर 4 के एक कोठी मालिक ने प्रवासी मजदूरों के प्रति अपने  पूर्वाग्रहों के चलते इस प्रयास का विरोध करना शुरू कर दिया। ये बच्चे यहां गंदगी फैलाते हैं, शोर करते हैं, हमारे बच्चे पढ़ नहीं पाते, इन्हें पढ़ाकर क्या डी.सी. बनाओगे? आखिरकार यहां से क्लास को उठाना पड़ा।  पिछले 10 वर्षों के दौरान गांधी स्कूल की इस क्लास को 6 स्थान बदलने पड़े। पिछले 2 साल से एक पार्क में खंभे के नीचे शाम को लाईट की रोशनी मेें गांधी स्कूल चल रहा है। फिलहाल 40 से 60 के बीच प्रवासी मजदूरों के बच्चे गांधी स्कूल में नियमित पढऩे आते हैं। यहां पर भी सामने का एक पड़ौसी गाहे-बगाहे शराब पीकर बच्चों को गालियां निकालता ही रहता है। प्रवासी मजदूरों के अधिकतर बच्चों को अपने छोटे भाईयों-बहनों को रखने के लिए निर्माणाधीन स्थल पर अभिभावकों के साथ जाना पड़ता था, अब धीरे-धीरे गांधी स्कूल के प्रयास से इन बच्चों का रास्ता स्कूल की ओर खुलता जा रहा है। सभी बच्चे दलित व अल्प संख्यक समुदाय से संबंध रखते हैं जिसमें लड़कियों की संख्या अधिक है।

बच्चों के अभिभावकों से निरंतर बातचीत करते हुए साल भर के भीतर दो कि.मी. दूर स्थित सरकारी स्कूल में बच्चों को दाखिल कराया गया। स्कूल शिक्षकों का रवैया भी इन बच्चों के प्रति चलताऊ  बना रहता है। पहचान पत्र, राशन कार्ड,जाति प्र्रमाण पत्र और आधार कार्ड जैसी शर्तों से इन बच्चों को स्कूलों में भारी परेशानियों से गुजरना पड़ता है। प्रवासी पृष्ठभूमि होने के चलते स्कूल में इन बच्चों को सजा देने और गालियां निकालने जैसे अभ्यास चलते रहते हैं। इसके साथ ही अपनी कक्षा की संख्या बनाए रखने के लिए स्कूल शिक्षकों को इन बच्चों की जरूरत भी बनी रहती है। दिहाड़ी न मिलने पर फीस जमा न करा पाने,बीमार पड़ने,कुछ दिन के लिए गांव चले जाने की स्थिति में स्कूल से नाम कटने की समस्या बार-बार सामने आती है।  सरकारी स्कूलों में आनलाइन बच्चों की हाजरी भेजने के नियम का हवाला देकर इन बच्चों की पीड़ाएं बढ़ा दी जाती हैं और कुछ बच्चे ऐसे कटु अनुभवों से गुजरते हुए स्कूल छोड़कर दिहाड़ी पर जाने लगे।

सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ता, डाक्टर ,शिक्षाविद् व भलाई की दृष्टि रखने वाले कई नागरिकों की गांधी स्कूल के बच्चों के लिए  कापी, पैंसिल, सर्दी के कपड़े ,दरी, बैग व जूतों जैसी जरूरतों को पूरा करने में उत्साह देने वाली भागीदारी रहती है। स्कूल से आने पर कई लड़कियां पड़ोस के दर्जी के पास कपड़ों की तुरपाई का काम कर लेती हैं। एक सूट की तुरपाई के बदले 10 रूपए मिल जाते हैं। कुछ बच्चे छुट्टी वाले दिन मजदूरी करके परिवार की कुछ जरूरतें पूरा करने में सहयोग करते हैं। घरों में झाड़ू-पोचा करने वाली कुछ युवा लड़कियां व मजदूर महिलाएं भी इस क्लास में चाव के साथ पढऩे आती हैं। ज्यादातर प्रवासी मजदूरों में पिछड़ेपन के चलते विशेषकर लड़कियों में बाल विवाह करने का प्रचलन मौजूद है। शिक्षा के उजाले को महसूस करते हुए गांधी स्कूल की 13 से 17 वर्ष के आयु समूह की 6 छात्राएं मजबूती के साथ फिलहाल शादी न करवाने के लिए अभिभावको से संघर्ष कर रही हैं। अनेक मौकों पर प्रवासी बच्चों और उनके अभिभावकों के बीमार होने की स्थिति में मेडिकल ले जाना, आंखों व दातों का कैम्प लगवाना, सर्दी के कपड़े,दरी व स्टेशनरी एकत्रित करने जैसे कार्यों में जुटना पड़ता है। इस प्रकार के जुड़ाव से गांधी स्कूल के प्रति प्रवासी मजदूरों का विश्वास गाढ़ा हुआ है।

प्राकृतिक आपदाओं में पीडि़तों के लिए राहत राशि जुटाना, महिलाओं और लड़कियों पर होने वाले अपराधों के विरोध में मार्च निकालना, लैंगिक संवेदनशीलता का वातावरण बनाने और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर गांधी स्कूल के बच्चों का सक्रिय हस्तक्षेप रहता है। युसुफजई मलाला के समर्थन में गांधी स्कूल के बच्चों ने एकजुटता रैली आयोजित की। नए आने वाले प्रवासी बच्चों को स्कूल में शामिल करने के लिए महीने में बस्ती में रैली निकाली जाती है। तीज और ईद मिलन एक साथ होता है। दो बच्चों पूनम व भूपेन्द्र को इस बार राष्ट्रीय मींस कम मैरिट सर्टिफिकेट स्कोलरशिप मिला है।

बच्चों की संख्या बढ़ते जाने से, वालिंटियरों की कमी और खुद की 50 से 60 बच्चों को अकेले संभालने की सीमाओं के चलते गंभीर रचनात्मक तौर-तरीेके विकसित नहीं हो पाए हैंं। कुछ प्यार, दुलार, नई-नई बात,गीत,खेल,नाटक और ड्राईंग करते हुए सीखने की ललक पैदा करने के प्रयास जारी हैं। गलत लिखने-पढऩे पर भी शाबाशी मिलती है और अगली बार उंगली सही जगह चलती है। बीच-बीच में राहुल व संतोष जी जैसे स्वयंसेवियों का गांधी स्कूल में शिक्षक के तौर पर महत्वपूर्ण योगदान रहता है। सरकारी स्कूलों में मिलने वाले मिड डे मील,ड्रैस,किताबें और वजीफे जैसे प्रावधान प्रवासी मजदूरों के बच्चों को स्कूल पंहुचने में महत्वपूर्ण कारक बने हुए हैं।

‘बहुत ज्यादा नहीं तो कुछ कदम तो आगे रखे जाएंगे। परदेश आकर प्रवासी मजदूरों के बच्चों का पहला समूह दसवीं व ग्यारहवीं कक्षा तक आ पंहुचा है, नियमित रूप से इन बच्चों के साथ काम करते हुए और इनकी बहुआयामी प्रतिभा से साक्षात होते हुए दिमाग रोशन रहता है।’

हरियाणा, दिल्ली और इसके आस-पास लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर निर्माण और कृषि सहित भांत-भांत के कार्य करते हुए अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ में जी तोड़ मेहनत करतेे हैं। कोसों दूर चलकर आने वाले इन प्रवासी मजदूरों को यहां पर अनेक तरह से पीड़ादायक सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इनके साथ गाली-गलौच, मार-पिटाई व दिहाड़ी के मारे जाने जैसी घटनाएं  आमतौर  पर सामने आती रहत�� हैं। कई मौकों पर मध्यमवर्गीय आबादी का रूख इन प्रवासी मजदूरों के प्रति हिकारत व भेदभाव का बना रहता है। इनके प्रति प्रदेश के रोजगार को हड़पने वाले,गंदगी फैलाने वाले, चोरी व अपराधों के जिम्मेदार होने की धारणाएं व्यापक तौर पर देखी जा सकती हैं। जीरी लगाने के समय तो खेतों में खाली पड़े कोठड़े ही इन मजदूरों का बसेरा रहता है। शहरों के बाहरी इलाकों की बस्तियों में  प्रवासी मजदूरों को किराए पर देने के उद्देश्य सेे छोटे-छोटे कमरों की लंबी कतारें बनी हुई दिखती हैं। इन प्रवासी मजदूरों के कई-कई कमरों के बीच एक या दो साझा शौचालय व हैंड पंप बना दिए जाते हैं। प्रवासी मजदूरों को लक्षित करके स्थानीय आबादी में से दुकानें बना ली जाती है जहां पर खाद्यान्न के सामान की गुणवता व भाव में इन मजदूरों का जमकर शोषण होता है। एक छोटे से कमरे में तीन-चार मजदूर भी रहते हुए मिल जाएंगे। कमरे का किराया बचाने के लिए टूटी-फू टी हालत में खाली पड़े कमरों में रैन बसेरा होने पर सांप के काटने और सर्दियों में कोयले से सुलगने वाली भट्ठी की गैस से दम घुटने से प्रवासी मजदूरों की होने वाली मौंतो की घटनाएं भी सुनने में आती हैं। वर्षों की रिहायश होने पर भी ज्यादातर प्रवासी मजदूरों के राशन कार्ड, वोटर पहचान पत्र,आधार कार्ड व जाति प्रमाण पत्र नही बनवा पाएं है। प्रवासी होने व सामाजिक सुरक्षा के पर्याप्त कानूनों के अभाव में निर्माण स्थलों पर होने वाली दुघर््ाटनाओं में पीडि़त परिवारों को उचित मुआवजा भी नहीं मिल पाता। स्थानीय दबंगई द्वारा प्रवासियों के साथ क्रूर किस्म की बदसलूकी की घटनाएं भी सुनने को मिलती हैं। हमारे इस क्षेत्र में इस विमर्श की गहरी जरूरत है कि मीलों दूर चलकर आने वाले इन प्रवासी वंचितों के प्रति संकीर्णताएं छोड़कर न्याय और बराबरी की नजर पैदा हो।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 66-67

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