मैं आदमी नहीं हूँ- मलखान सिंह

मलखान सिंह

एक

मैं आदमी नहीं हूँ स्साब
जानवर हूँ 
दोपाया जानवर
जिसे बात-बात पर
मनुपुत्र—माँ चो—बहन चो—
कमीन क़ौम कहता है।

पूरा दिन—
बैल की तरह जोतता है
मुट्ठी भर सत्तू
मजूरी में देता है।

मुँह खोलने पर
लाल-पीली आँखें दिखा
मुहावरे गढ़ता है
कि चींटी जब मरने को होती है
पंख उग आते हैं उसके
कि मरने के लिए ही सिरकटा
गाँव के सिमाने घुस
हु...आ...हु...आ...करता है

कि गाँव का सरपंच
इलाक़े का दरोग़ा
मेरे मौसेरे भाई हैं
कि दीवाने-आम और
ख़ास का हर रास्ता
मेरी चौखट से गुज़रता है
कि...

दो

मैं आदमी नहीं हूँ स्साब
जानवर हूँ
दो पाया जानवर
जिसकी पीठ नंगी है

कंधों पर...
मैला है
गट्ठर है
मवेशी का ठठ्ठर है
हाथों में...
राँपी—सुतारी है
कन्नी—बसुली है
साँचा है—या
मछली पकड़ने का फाँसा है

बग़ल में...
मूँज है—मुँगरी है
तसला है—खुरपी है
छैनी है—हथौड़ी है
झाड़ू है—रंदा है—या—
बूट पालिस का धंधा है।
खाने को जूठन है।
पोखर का पानी है
फूस का बिछौना है
चेहरे पर—
मरघट का रोना है
आँखों में भय
मुँह में लगाम
गर्दन में रस्सा है
जिसे हम तोड़ते हैं
मुँह फटता है और
बँधे रहने पर
दम घुटता है।

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