कविता
तुम्हारे घर के किवाड़
जानती हूं
तुम्हारे घर की ओर
मुड़ते हुए
मुझे नहीं सोचना चाहिए
कि मुझे
तुम्हारे घर की ओर मुडऩा है,
तुम्हारी दहलीज पर आकर
नहीं रूकना चाहिए ठिठक कर
कि मेरे कदमों की आहट
-तुम्हारा कोई स्वपन
भंग न कर दे
खटखटाकर तुम्हारा किवाड़
नहीं लेनी चाहिए इजाजत
तुम्हारे भीतर आने की
जबकि
मैं जानती हूं –
सदियों से खुले हैं
तुम्हारे किवाड़
मेरे लिए
देखो न…
फिर भी
कैसे भय से कांपता है दिल
तुम तक पहुुंचने के
ख्याल भर से
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 61