कविता
एक चुप्पी
एक चुप्पी
हवा को बहने नहीं देगी आज
कोलाहल कोई छूट गया पीछे
सांसों का चलना तो दूर
धड़कन का संपन्दन तक
जैसे विराम हो गया हो
ऐसे ही टूट गया कुछ
कि –
तिड़कने तक की आवाज नहीं
और अब
आंखें नहीं जानती
कोई वजह
सागर के छलछलाने की
पलकों के बाहर
हां,
चुप्पनी उतर आई आंखों में
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 61