समतामूलक समाज था आम्बेडकर का सपना – डा. सुभाष चंद्र

प्रस्तुति-  गुंजन कैहरबा

इन्द्री (करनाल) स्थित रविदास मंदिर के सभागार में 10 अप्रैल, 2016 को बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर की 125वीं जयंती और महात्मा ज्योतिबा फुले जयंती के उपलक्ष्य में ‘मौजूदा दौर और डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचार’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। मुख्य वक्ता के रूप में ‘देस हरियाणा’ के संपादक एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर सुभाष चंद्र ने अपने विचार रखे।

आंबेडकर एक परम्परा की कड़ी हैं। वे चार्वाक, महात्मा बुद्ध, कबीर, रविदास और महात्मा ज्योतिबा फुले की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।  दुनिया भर में होने वाली क्रांतियों का इतिहास पढ़कर वे राजनीतिक चिंतक के रूप में दुनिया के सामने आते हैं। उन्होंने समाज को आगे बढ़ने में रुकावटों में वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा, कर्मकांड और अंधविश्वासों की पहचान की और महिलाओं, दलितों एवं पिछड़ों की समता पर जोर दिया। आंबेडकर ने महात्मा बुद्ध को अपनाया और मनुस्मृति को जलाया।

सुभाष चंद्र ने कहा कि विडंबना की  बात है कि आंबेडकर पर होने वाली चर्चा आरक्षण तक महदूद कर दी जाती है। दूसरा, बातचीत आंबेडकर के जीवन तक सीमित रह जाती है। उन्होंने कहा कि आज आंबेडकर के उन विचारों को चर्चा के केन्द्र में लेकर आने की  जरूरत है, जोकि उन्हें बहुत बड़ा चिंतक और दार्शनिक बनाते हैं।  दार्शनिक के विचार बदलते दौर के मुताबिक हमें दिशा प्रदान करते हैं। उन्होंने कहा कि आंबेडकर एक परम्परा की कड़ी हैं। वे चार्वाक, महात्मा बुद्ध, कबीर, रविदास और महात्मा ज्योतिबा फुले की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। आंबेडकर इतिहास का आकलन करते हैं। धर्मग्रंथों की  विवेचना करते हैं। दुनिया भर में होने वाली क्रांतियों का इतिहास पढ़कर वे राजनीतिक चिंतक के रूप में दुनिया के सामने आते हैं। उन्होंने समाज को आगे बढ़ने में रुकावटों में वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा, कर्मकांड और अंधविश्वासों की पहचान की और महिलाओं, दलितों एवं पिछड़ों की समता पर जोर दिया। आंबेडकर ने महात्मा बुद्ध को अपनाया और मनुस्मृति को जलाया। इससे उनके विचारों के बारे में पता चलता है कि वे कौन सी धारा को अपनाते हैं। वे परम्पराओं का गहरा मूल्यांकन करते हैं।

उन्होंने कहा कि आंबेडकर की धारा सच की  खोज की धारा है। महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज के माध्यम से सच और झूठ को अलग करने की  कोशिश की । डॉ. सुभाष ने कहा कि झूठ के पीछे लूट की  गाथा छिपी होती है। अगले जन्म के झूठे सब्जबाग दिखाकर दान को महिमामंडित किया जाता है। डॉ. आंबेडकर व उनकी  परंपरा ने सच को खोजने के लिए तार्किक व वैज्ञानिक सोच को औजार बनाया।

उन्होंने कहा कि ज्ञान, राजनीतिक ताकत और सम्पत्ति तीन ही चीजें हैं, जिनसे कोई भी समाज आगे बढ़़ता है। वर्ण व्यवस्था समाज की  बहुत बड़ी आबादी को इन तीनों चीजों से वंचित करती है। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा और पितृसत्ता दो बिमारियां जो महिलाओं और दलितों का शोषण करती हैं। डॉ. आंबेडकर ने इन बिमारियों की पहचान कर ली थी और फिर बिना किसी लाग-लपेट के इनके इलाज के लिए कड़वी दवाई तैयार की। संविधान के द्वारा उन्होंने लोकतंत्र की स्थापना की। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की  व्यवस्था करने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपी। आज आंबेडकर की मूर्ति पर फूल चढ़ाए जा रहे हैं। राजनीतिक दलों में आंबेडकर को याद करने की होड़ लगी है। लेकिन उनके विचारों का ेभी पूरी ताकत के साथ पीछे धकेलने की  कोशिशें हो रही हैं। शिक्षा को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। बराबर के अवसर सरकारी स्तर पर ही मिल सकते हैं। मेहनत-मजदूरी और नौकरी कर के ही गरीब व्यक्ति अपना गुजारा कर सकता है। लेकिन दलित-वंचित लोग जिन कामों को करते हैं, वे सबसे पहले ठेके पर दे दिए गए। लगातार निजीकरण और ठेका प्रथा को बढ़ावा दिया जा रहा है।

                आंबेडकर और फुले ने लैंगिक और जाति पर आधारित भेदभाव व पक्षपात को दूर करने के लिए समता और सामाजिक न्याय का पक्ष लिया। न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए उन्होंने सामाजिक सच को उद्घाटित किया। समता के लिए उन्होंने सम्पत्ति के न्याय संगत बंटवारे की  बात कही। सभी प्रकार के अन्याय के खिलाफ उन्होंने लड़ाई लड़ी। उन्होंने कहा कि आज लोकतंत्र पूंजीपतियों के हाथ में कैद होता जा रहा है। आंबेडकर ने राजनीतिक लोकतंत्र से भी  पहले सामाजिक लोकतंत्र को जरूरी बताया। साहचर्य, भाईचारे और सद्भाव को तोड़कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए राजनीतिक दल लोगों को आपस में बांटने में लगे हुए हैं। आंबेडकर ने कहा था कि जाति प्रथा उत्पीडऩ का तरीका है। जाति को न्यायोचित ठहराने के लिए काम के बंटवारे की बात की  जाती है। आंबेडकर ने कहा कि जाति प्रथा श्रम-विभाजन नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन करती है। अलग-अलग काम का दर्जा भी अलग-अलग है। मंत्र पढऩा सबसे बड़ा काम बताया गया। दलितों और महिलाओं के कामों का अवमूल्यन किया जाता है। डॉ.आंबेडकर ने सामाजिक विकास में अवरोधक का काम करने वाली जाति व्यवस्था को समाप्त करने पर जोर दिया और इसके लिए अन्तर्जातीय व्यवस्था सहित ठोस उपाय सुझाए।

                संजय बौद्ध ने डॉ. आम्बेडकर के जीवन और संघर्षों पर विस्तार से प्रकाश डाला और उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने की जरूरत पर बल दिया। कार्यक्रम में कवि दुलीचंद रमन ने अपनी ‘सच का एक छोर’ कविता सुनाई। कार्यक्रम की  अध्यक्षता रविदास जागृति मंच के प्रधान धनी राम व सामाजिक कार्यकर्ता जसविन्द्र पटहेड़ा ने की और संचालन प्राध्यापक अरूण कैहरबा ने किया। इस मौके पर रवि कुमार, सतपाल, मान सिंह, दयाल चंद, मोहम्मद इंतजार, सन्नी चहल, अर्जुन खुखनी, सुरेश सिंहमार, अशोक एडवोकेट, बलवान सिंह नरवाल, शिव कुमार, अश्वनी बोध, सोनू, भजन, राजेश कुमार, कुलदीप, कमल किशोर, विशाल, नवीन ग्रोवर, सूरजभान व पवन उपस्थित रहे।


स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 60

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