उसूल और जिंदगी में से एक चुनना पड़ा तो मैं उसूल चुनूंगा – जगमोहन

16 मार्च 2016 को देस हरियाणा पत्रिका की ओर से ‘युवा पीढ़ी और शहीद भगत सिंह की विचारधारा’ विषय पर सेमीनार आयोजित किया, जिसमें शहीद भगत सिंह के भानजे व क्रांतिकारी इतिहास के विशेषज्ञ प्रो. जगमोहन ने भगत सिंह के विचारों को ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य में रखते हुए वर्तमान संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता व युवा पीढ़ी के समक्ष चुनौतियों को रखा। सेमीनार की अध्यक्षता प्रो. अमरजीत सिंह (इतिहास विभाग कु वि) ने की। इसमें लगभग 160 छात्र-छात्राएं उपस्थित थे। सेमीनार में प्रो. जगमोहन के वक्तव्य का अंश यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।  सं.

आज का मुख्य प्रश्न है कि हम विरासत से क्या सीखें। भगतसिंह ने अपनी विरासत से क्या सीखा था। भगतसिंह कोई अप्राकृतिक व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने कहा भी था कि मेरे चाचा ने इतना काम कर दिया है वो इतनी बुलंदी तक पहुंचे हैं कि मैं क्या करूंगा निराशा न आ जाए। लेकिन जब वक्त पड़ा तो उन्होंने कैसे संभाला। उस पर बात करने की कोशिश करेंगे।

मेरा अजीब रिश्ता है मैं उनकी छोटी बहन बीबी कौर का बेटा हूं। मेरी माता जी ने एक प्रश्न मुझसे हमेशा करना। ‘भई तुम भानजे हो उनके। मुझसे लोग पूछते हैं कि क्या घर में भगतसिंह के बारे में जानने वाला है’। तो रिश्ता जानने से बनना ये उन्होंने मुझे सिखाया। मैने उन्हें जानने की कोशिश की।

पहला प्रश्न जो मेरे मन में आया कि भगतसिंह को इतनी अहमियत क्यों दी जाती है। ये प्रश्न मैंने एक बहुत बड़े क्रांतिकारी नलिनी किशोर गुहा से पूछा। आपने कभी अनुशीलन समिति का नाम सुना हो। वो एक दफा मिरजापुर में भगतसिंह के बुत का उद्घाटन करने के लिए आए थे।  यदि कुरबानी की बात है तो बंगाल में एक से एक हुए हैं। जतिन बाघा इतने गुरिल्ला फाईटर रहे हैं। उनको बाघा इसलिए कहा जाता था कि शेर हैं और अंग्रेज उनको पकड़ नहीं पाया। बात बहादुरी की है तो और बहुत से नाम हैं। उनके जबाव ने मुझे एक नई दृष्टि दी। उनका जबाब हमें समझने में मदद करेगा। उन्होंने कहा जब हमने अपना प्रयास शुरु किया तो हम निराशा में थे। कुछ हो नहीं रहा था। हमने स्वदेशी-स्वराज की बात की। लगता था कि अब तो सीधा टकराना पड़ेगा। एक किस्म की नफरत थी जो हमारी मूवमेंट करवा रही थी। जब भगतसिंह आए तो उनकी प्रेरणा शक्ति लोगों के प्रति प्रेम है। लोगों के प्रति स्नेह है।

ये प्रेरणा बड़ी कमाल से उनमें मिलेगी। उनमें कहीं नफरत-गाली का नाम भी नहीं है। पूरी भारतीय संस्कृति में जिसने सिंथेसाइज किया। हमारे सूफी संत प्रेम का सिंथेसाईज करने वाले हैं। कबीर ने कहा कि जिसने ढाई अक्षर प्रेम के नहीं सीखे उसने जिंदगीं में कुछ नहीं पाया। प्रेम जोड़ने वाली ताकत है और नफरत तोड़ने वाली। बड़ा खूबसूरत लगा मुझे भगतसिंह की जेल नोटबुक का पहला सफा। वो विजयोल्लास है जेल में हड़ताल का। हड़ताल क्यों की थी, इसलिए कि हमें पढऩे लिखने की आजादी मिले। लोग हमें बच्चा और कम अक्ल का समझते हैं अक्ल तो तभी आएगी। उन्होंने पहला शेर लिखा

कुर्रे खाक है गर्दिश में तपिस से मेरी
मैं वो मजनूं हूं जो जिंदा में भी आजाद रहा।

कुर्रे खाक का मतलब है मिट्टी का कण। मिट्टी के कण में भी ऊर्जा होती है। इसलिए मैं जेल में भी आजाद रहा। कितने भी हालात मुश्किल हों उसमें यदि आप आजादाना तौर पर सोच सकते हैं तो आप आजाद हैं। विचारों से आप आजाद हैं तो आप आजाद हैं।

भगतसिंह ने एक बात और कही कि जब मैं वैज्ञानिक विचारों से प्रेरित हो गया तो मैं उसके मुताबिक जिंदगी जीने लगा। जिन्होंने अपना जीवन आदर्श के लिए लगाया उनके लिए सबसे बड़ी श्रद्धाजंलि है, उनके विचारों को अपनाना। उसके लिए जगन्नाथ आजाद की पंक्तियां हैं जो इसे अच्छी तरह समझाती हैं कि

हमसे बढ़कर जिंदगी को
कौन कर सकता है प्यार
गर मरने पे आ जाएं तो मर जाते हैं।
मरकर भी दफन बनकर रह सकते नहीं
लाल फूल बनके वीरानों पर छा जाते हैं हम
जाग उठते हैं तो सूली पे भी नींद आती नहीं
वक्त पड़ जाए तो अंगारों पे सो जाते हैं।

ये प्यार की मोटीवेशन है। हम भगतसिंह को प्यार करते हैं क्योंकि उन्होंने हमें प्यार किया। हम उसे वापस कर रहे हैं। ये मुझे नलिनी किशोर ने बताया कि सबसे बड़ी फोर्स प्यार है।

उसी में मुझे एक कहानी और मिली। इटली के एक दार्शनिक हैं मैजिनी। उनकी किताब है ‘डयूटीज आफ मैन’ बहुत अधिक पढ़ी गई। भगतसिंह ने एक कहानी को उद्धरित भी किया अपने पत्र में। मैजिनी जब नौजवान था तो उसको पुलिस पकड़ने आई, तो उसकी मां ने कहा कि तुम तो अच्छे बच्चे हो तुम्हें पुलिस ने क्यों पकड़ा। तो उसने अपनी मां से कहा कि तुम्हें तो पता है कि मुझे रात को नींद नहीं आती, क्योंकि अपने लोगों की चिंता करता हूं और वो चिंता मुझे सोने नहीं देती। सरकार को भ्रम है कि वो मुझे ले जाकर सुला सकेंगे।

सुखदेव और भगतसिंह एक जोड़ी है मैं कहता हूं कि भगतसिंह भगतसिंह नहीं होता, यदि सुखदेव उनके साथ नहीं होते। सुखदेव उनसे प्रश्न करते हैं। भगतसिंह उसका उत्तर ढूंढते हैं और सुखदेव से साझा करते हैं। उनके संवाद के दो हिस्से हैं। एक वह है जब असेम्बली में बम फेंकने के लिए जाना था तो सुखदेव ने प्रश्न किया कि भगतसिंह तुमने योजना बनाई बहुत अच्छी है कि अब वक्त है कि कुछ मूल्यों पर जिंदगी लगा दी जाए। लेकिन तुम कैसे समझते हो कि दूसरा साथी इस काम को कर पाएगा।

हमारे सामने है कि बंगाल में भी नेताओं ने नौजवानों को जो काम दिया उन्होंने किया लेकिन मूवमेंट आगे नहीं बढ़ी। उन्होंने कह दिया कि मुझे लगता है कि तुम भी प्यार में फंस रहे हो। इसलिए तुम्हें जिंदगी से प्यार हो रहा है और तुम नहीं जा रहे। उसका जबाब असेम्बली में बम फेंकने जाने से पहले सुखदेव को लिखे पत्र में दिया। उन्होंने कहा कि प्यार के बारे में हमें आर्यसमाजी धारणा ने जकड़ रखा है। वे कहते हैं कि प्यार क्या किसी की कमजोरी है या मदद करता है।

मुंशी प्रेमचंद की कहानी सौजे वतन (जो सबसे पहले जब्त हुई थी) में तीन कहानियां हैं। एक कहानी मेजिनी की है। एक लड़की मेजिनी को प्यार करती है। लेकिन वह उसे अनदेखा करता है। असफल होने पर वो इंग्लैंड चला जाता है। वहां लड़की के बालों का गुच्छा और दस पाऊंड उसमें आशा जगाते हैं। वो वापस आता है और इंकलाब करता है सत्ता बदल जाती है। लेकिन वह लड़की गलियों में घूम रही है। वो फिर हार जाता है। फिर वो लड़की उसके कंधे पर हाथ रखती है। ये प्यार है जो सिखाता है कि हम जिंदगी को प्यार करना सीखें।

भगतसिंह के बनने में बहुत सी चीजें हैं। पहला सवाल जो उसने किया जब वो 18 साल का था। उनका निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ पढ़ें। उसमें नास्तिकता की बात एक है, लेकिन उनके विचारों के विकास की आत्मकथा है वह। उसमें वो लिखते हैं जब हम 18 साल के थे काकोरी केस के बाद जब सारे साथी पकड़े गए तो दो नौजवान बचे। भगतसिंह 18 साल के और चंद्रशेखर आजाद 19 साल के। लोग हमारी हंसी भी उड़ाने लगे कि बड़े इंकलाबी बने फिरते थे अंग्रेजों ने एक झटके में ही पकड़ लिया। मुझे ये लगने लगा कि कहीं मेरा अपने और अपने साथियों के विचारों से विश्वास कम न हो जाए। उस वक्त मैं सहारा ढूंढ रहा था। दो चीजें सामने नजर आई।

एक था 18 साल का करतार सिंह सराभा। (जो सबसे छोटी उम्र के शहीद हैं जो अमेरिका होकर आए। उस वक्त जो नई टेक्नोलोजी थी। 1913 में हवाई जहाज की ट्रेनिंग लेने गए। 1903 में हवाई जहाज आया था) उन्होंने सराभा को देखा होगा। वे घर आए थे सरदार किशन सिंह से भी मिले। वे दूसरी तरह देख रहे हैं। करतार सराभा नई विद्या लेता है लेकिन वापस इसलिए आता है कि भारत को जब तक आजादी नहीं मिलती तब तक ज्ञान और विदेशों में की हमारी कमाई फलेगी नहीं। मैं 18 साल का हूं और करतार सिंह 18 साल में इतना कुछ कर आया। मेरे अंदर करतार सिंह सराभा है मैं उसको जगाऊंगा। ये बात मुझे अपनी नानी जी से मिली जब हमने उनसे पूछा कि आपको भगतसिंह की पहली याद क्या है। तो उन्होंने बताया कि भगतसिंह अपनी जेब से करतार सिंह सराभा की फोटो निकालकर दिखाता और कहता कि ये मेरा भाई, फिलासफर और गाईड है। साथ ही करतार सिंह सराभा की एक कविता भी गुनगुनाते थे कि

सेवा देश दी जिंदड़ी बड़ी ओखी
गल्लां करणी सुखलणियां नै
जिन्नां देस ते पैर पाया
बड़ी मुसीबतां झल्लियां नै

करतार सिंह सराभा से अपने को जोड़ते हैं और वो ध्यान देते हैं कि कुछ साहित्य अमेरिका में उन्होंने बनाया होगा।

दूसरा वे देखते हैं कि मेरे विचारों में स्थिरता क्यों नहीं, मैं स्थिर विचार चाहता हूं। इसके लिए मुझे पढना होगा। पढऩा, और पढऩा, और पढऩा। मैं इतना पढ़ूं कि मेरे विचार तर्क पर आधारित हों। मैं इतना पढूं कि जो विचार मेरे सामने आएं मैं उनका उत्तर तर्क से दे सकूं। आज हमारे पास तर्क वाला भगतसिंह है जिसने अपना रास्ता खुद चुना।

मैं सोचता हूं कि भगतसिंह अपने आप में एक यूनिवर्सिटी थी। अपना सिलेबस खुद निर्धारित किया। उसके लिए दुनिया का साहित्य ढूंढा और उसके बाद अपने को परखा कि जो मैंने सीखा है क्या वो व्यवहारिक है।

सरदार अजीतसिंह भगतसिंह के चाचा जिन्होंने एक कामयाब मूवमेंट खड़ी की। (उनके एक साथी सूफी अंबाप्रसाद हैं, जिनको हम भारत में भूल गए हैं लेकिन ईरान वाले हर साल उनके मजार पर मेला लगाते हैं। उन्होंने गदर पार्टी में फौज बनाकर बिलोचीस्तान के रास्ते से भारत आने की कोशिश की थी। वो शहीद हुए। उनका अगले साल जन्म शताब्दी वर्ष है। हमारी कोशिश है कि उनकी चेतना को भारत में वापस लाया जाए) सरदार अजीतसिंह ने जैसे देखा।

मेरे लिए भी ये प्रश्न है शायद आपके लिए भी हो, कि चार पीढियां लगातार लोकपरस्ती व देश भक्ति में लगातार लगाती हैं। मुझे इसका सूत्र मिला कि भगतसिंह के परदादा फतेहसिंह। (पंजाब सबसे आखिरी सूबा था जो अंग्रेजों के अधीन आया। 1857 से पहले कंपनी का शासन था उसके बाद सीधा ब्रिटिश शासन शुरू हुआ। ये समझना जरूरी है। 1857 का गुणात्मक प्रभाव ये हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त हो गई। 1857 में हरियाणा का योगदान बहुत शानदार है। कभी हांसी की लाल सड़क याद करें)

पंजाब की जंग में उनके दादा जी ने भाग लिया था वे पांच लड़ाइयां हैं। जिनमें तीन बड़ी हैं दो छोटी हैं वो सभी में आए। हारने के बाद अंग्रेजों ने जालंधर डिवीजन पहले ले लिया। सतलुज से ब्यास चले गए।  अंगे्रज कमिश्नर ने पहला काम ये किया कि जो लड़ने वाले हैं वो जमीनों वाले हैं। उनके पास क्षमता रहती है कि दूसरे लोगों को भी लड़ाने की। इसकी एक ही सजा है कि इनकी जमीन आधी काट ली जाए। तो सरदार फतेह सिंह की आधी जमीन छीन ली गई। दिलचस्प बात ये है कि वे बुजुर्ग कितने समझदार थे कि चलो ये जमीन मेरे पास तो नहीं है यदि अंग्रेज ने किसी जागीरदार को लाकर बैठा दिया तो मेरे बच्चे फिजूल में लड़ते हुए मर जायेंगे। उनको लगेगा कि हमारी जमीन पर ये सरीक बैठा है। उन्होंने अराईयों (मुस्लिम जो नदी के किनारे बहुत छोटी खेती करते थे) को लाकर बिठा दिया कि भाई तुम यहां खेती करो, खाओ। मेरे बच्चों को तुम्हारे साथ कोई समस्या नहीं होगी। जायदाद का झगड़ा हल कर दिया।

आज जिस खुले व्यापार की बात करते हैं ये अब शुरु नहीं हुआ। 17वीं शताब्दी में एडम स्मिथ ने फ्री ट्रेड लिखा तो ब्रिटिश ने खुला व्यापार शुरु किया। अमेरिका 1776 में आजाद हो गया। फ्री ट्रेड से आजाद हुआ। उसकी आजादी से भारत का रिश्ता है। यहां के ब्रिटिश व्यापारी थे वे दार्जिलिंग चाय लेकर बोस्टन जा रहे थे वहां के जो व्यापारी थे (आज भी फ्री ट्रेड का वही मतलब है कि बाहर के व्यापारी को तो पूरी छूट दें, क्योंकि उससे व्यापार बढ़ता है अब जो घाटा पड़ता है उसे कहां से पूरा किया जाए उसे घर वाले व्यापारियों से पूरा किया जाए) उस समय अमेरिका के व्यापारियों ने कहा कि ये तो हमारा पेट काटता है इसलिए कुली बनकर समुद्र में गए और सारी चाय समुद्र में फेंक दी। उसे बोस्टन टी पार्टी कहते हैं। वो आजाद हो गए।

चालीस साल ये बहस चली कि ईस्ट इंडिया कंपनी को फ्री ट्रेड करने दिया जाए या नहीं। 1818 में उसे इसकी अनुमति दी गई। क्योंकि उसमें रानी से लेकर प्रधानमंत्री तक के हिस्से थे।  लाभ तो तभी होगा अगर हम बाहर टैक्स नहीं देंगे। फ्री ट्रेड हो गया लेकिन एक बात सोची कि अमेरिका में हम पिट गए थे पर हिंदोस्तान में पिटेंगे नहीं। सबसे खराब कानून बनाया गया। जिसका बार-बार प्रयोग किया गया वह है बंगाल रेगुलेशन आफ 1818 का तीसरा रेगुलेशन। जिसमें ये था कि किसी को पकड़ कर देश निकाला दे दीजिए, जेल में बंद कर दीजिए, उसकी बात नहीं सुनी जाएगी। अब इस डंडे के साथ आप व्यापार कर सकते हैं। क्योंकि कोई विरोध करेगा तो उसको पीट सकते हैं। यही कानून सरदार अजीतसिंह व लाला लाजपतराय पर इस्तेमाल हुआ। वही अरबिंदो पर हुआ। आज भी किसी न किसी रूप में 1818 का कानून हमारे पड़ा हुआ है।

ये व्यापार के तरीके के साथ जुड़ा हुआ है। वो जो व्यापार शुरु हुआ उसके चालीस साल बाद 1857 हुआ। उसके कारण 1818 के फ्री ट्रेड में हैं। अभी भी आगरा से सहारनपुर तक उनकी चुंगियां पड़ी हुई हैं। हर बीस मील पर एक चुंगी थी, क्योंकि जो घाटा बाहर पड़ रहा है उसे अंदर से कैसे पूरा करना है वो चुंगियां आज भी वो कहानी बताती हैं।

आज भी वही हो रहा है। जरा गौर कीजिए। वोडाफोन कंपनी ने तीस हजार करोड़ टैक्स देना है वो देने से इंकारी है। कैरेन इंडिया ने बीस हजार करोड़ टैक्स देना है वो इनकारी है। गार्डियन में छपा कि इंगलैंड के विदेश मंत्री भारत के वित्त मंत्री को कहते हैं कि भाई आप हमारी कंपनियों को व्यापार नहीं करने देते। वित्त मंत्री जबाब देते हैं कि नहीं भाई वो तो पिछली सरकार कर गई, हम तो बड़ी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं।

आप यदि संवेदनशील हैं तो इन्कम टैक्स अधिकारियों से पूछना कि पिछले साल उन्होंने हड़ताल क्यों की थी। उनके पास आदेश आया कि 72 हजार करोड़ रूपया छोटे कस्बों से टैक्स एकत्रित करना है। गांव में बैंकों में जिसके पास लाख दो लाख रूपया पड़ा है उस पर इन्कम टैक्स के नोटिस आ रहे हैं। ये फ्री ट्रेड की प्रक्रिया है। चिंता की बात है। अभी बजट में एक अध्याय है कि कितना टैक्स बड़ी कंपनियों को माफ किया गया वो एक लाख तीस हजार करोड़ रूपया है। (गोवा में फेस्टीवल आफ आईडिया में रिजर्व बैंक के गवर्नर राजन ने बोला। राजन अर्थशास्त्र के इतिहासकार हैं, उसने पूंजीवाद के अर्थशास्त्र का सारा इतिहास पढ़ा है। इसीलिए वे 2005 में ही 2008 की विश्वमंदी का पूर्वानुमान लगा पाए थे। इसीलिए उनको यहां लाया गया था कि जैसे चीन गिर रहा है यदि भारत भी गिर गया तो पूरा पूंजीवादी आर्थिक तंत्र संकट में पड़ जाएगा)

1857 में खुले व्यापार का इतना प्रभाव हुआ कि राजा और रंक इकट्ठेहो गए। ये सांमतों की लड़ाई नहीं थी। पंजाब में एक जगह है जिसे (काली फौज और गोरी फौज। आज भी आप इलाहाबाद जाएं तो काली पलटन और गोरी पलटन क्षेत्र है) कालों वाला खूह कहा जाता था वहां पर 365 भारतीय सिपाहियों को शहीद करके कुएं में डाल दिया गया था। उस समय का कलेक्टर खुद लिखता है कि उसको लोग मुक्ति घर कहते हैं और इस पर दीया जलाते हैं। किसी को जिज्ञासा हुई कि क्या वाकई इसमें कुछ तथ्य है या ऐसे ही है। वो कुआं देखा गया और उसमें से हड्डियां निकाली गई। 1857 को इतना समझें कि उसमें राजे और रंक, जमींदार और किसान, व्यापारी और कारीगर इकट्ठेलड़े। आपका गांव इकट्ठा लड़ा। भारत के इंकलाब में ये योगदान है जैसे फ्रांस की क्रांति में किसान की बेटी जान आफ आर्क ने फ्रांस की क्रांति का नेतृत्व किया था। हमारे यहां तो झांसी की रानी की पूरी फौज थी। आज की शब्दावली में दलित लड़की झलकारी बाई उसका नेतृत्व किया। उसी याद में नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने जापानियों की इच्छा के विरुद्ध झांसी की रानी ब्रिगेड बनाई। हमारी महिलाएं आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी।

1857 में पंजाब में समझ में आया कि अब अंग्रेज तो आ गए हैं अब इनसे समझौता कर लेते हैं। रणजोत सिंह मजीठिया के लड़के को फतेहसिंह के पास भेजा कि उनको वह जमीन तो मिल जाएगी साथ में और जमीन मिलेगी।

जो बात उन्होंने कही वो उनके परिवार का आधार बनी। यह बात हम सबके जीवन में भी आती है। उनके दादा ने कहा कि तुम्हारे पिता ने मुझे एक बहुत उलझन में डाल दिया है। कि यदि आपको चुनना पड़े तो क्या आप जायदाद चुनेंगें या उसूल चुनेंगे। उन्होंने कहा कि अपने पिता को बता देना कि मैं उसूल चुन रहा हूं।

इसी उसूल के संदर्भ में भगतसिंह ने भी अपने पत्र में जिक्र किया है। उनके पिता जी एक कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन भगतसिंह ने कहा कि दो भ्रम हो रहे हैं कि एक तो मेरे साथी समझेंगे कि भगतसिंह हमें छोड़ रहा है अपनी जान बचा रहा है।

दूसरा यदि मुझे उसूल और जिंदगी में से एक चुनना पड़ा तो मैं जिंदगी नहीं उसूल चुनूंगा। जिंदगी और उसूल की चार पीढिय़ों की प्रक्रिया है। उनके परदादा की, उनके दादा की, उनके चाचा की और भगतसिंह।

भगतसिंह खुले विचारों के बन गए, क्योंकि उस परिवार ने नए विचारों को अपनाया। जिसे हम साझी संस्कृति, साझी विरासत कहते हैं उसकी पैदावार है। उनकी चाची जी सरदार अजीत सिंह की पत्नी वो कसूर की रहने वाली थी। उनकी शादी भी सूफी तरीके से हुई थी। धनपतराय वकील थे उनसे सलाह मशविरा करने गए थे। उन्होंने कहा कि नौजवान यदि लड़ाई लडऩा चाहते हो वो अकेले नहीं लड़ी जाती। साथी होना चाहिए, ये लड़की तुम्हारा साथ देगी। नानी जी ने कहना कि मुझे नहीं पता था कि ये बैठे हुए हैं। क्योंकि कसूर बाबा बुल्लेशाह का कसूर है। सूफीवाद का कसूर है। उन्होंने सारे गांव की लड़कियों को पढ़ा दिया।

उनके दादा जी के भाई नामधारी मूवमेंट को शुरु करने वाले थे।  उन्होंने नामधारी मूवमेंट शुरु किया। वैशाखी वाले दिन। उन्होंने अर्थ व्यवस्था दी कि मेरा सिख न ब्याज लेगा न देगा। उन्होंने कहा कि लड़की को बराबरी देना हमारी संस्कृति का हिस्सा है। उन्होंने अपने 22 सूबों में एक दिल्ली सूबे में महिला को कमांडर बनाया।

मैं नानी जी से पूछता रहता था कि  आपको कोई बात याद हो भगतसिंह की। उन्होंने कहा कि मैं तो चंडी की वार पढ़ती रही मेरे लिए प्रश्न था कि ये चंडी की वार पढऩे की संस्कृति कहां से आई। चंडी की वार को पढऩा नामधारी संस्कृति का हिस्सा है। जब मैंने पूछा तो उनका उत्तर था कि गुरुगोबिन्द सिंह ने कहा था कि जो साध कर्म करें देवता कहाय, कुकर्म करें शैतान कहाय।

आर्य समाज आया। पंजाब में स्वामी दयानंद को बुलाया। क्योंकि मूर्तियां लगाने लगे थे। उस समय मूर्ति पूजा के खिलाफ एक भारतीय आवाज थी दयानंद की। वो डेढ महीना सुंदरसिंह मजीठिया के घर रहे।

 आपकी मुक्ति लोगों की मुक्ति के साथ होगी। आप अकेले मुक्त नहीं हो सकते। सारे समाज के हित में काम करना पड़ेगा। भगतसिंह के साथ 22 अनाथ बच्चे पले थे जो सभी देशभक्त बने। उनमें से दो को फांसी लगी, बाकी जेलों में गए। कहावत बन गई थी एक साथी थे किशनसिंह जी के। वो कहते कि बेबे तू परांत भरकर खिलाती है और परांत भरकर ही उनको विदा कर देती है।

भगतसिंह खुद तथ्यों पर जाते थे, सुनी-सुनाई बातों पर नहीं। उनमें पत्रकारिता का गुण था। जलियांवाला बाग की बात उनको पता चली कि वहां इतने लोग मरे हैं। वो कहते हैं कि मैं जाकर देखूंगा। 12 साल का बच्चा कफ्र्यू लगे में वहां पहुंचता है और वहां से खून से भीगी हुई मिट्टी लेकर आता है। मेरी मां उनसे छोटी थी, जब भगतसिंह आए तो उन्होंने कहा कि बीर जी मैंने तेरे लिए आम रखे हैं। उन्होंने कहा कि आज मेरा मन बहुत विचलित है। क्या विदेशी इतना खून कर सकता है। देखो खून से भीगी हुई मिट्टी। आज फेसबुक, व्हाटसैप, ट्विटर पर चारों तरफ से खबरें आ रही हैं उन पर आंख मूंद कर विश्वास न करके उनको समग्रता से समझने की जरूरत है। आज ये और भी ज्यादा बढ़ गई है।

भगतसिंह सीखते हैं उस ज्ञान तक पहुंचना जिसने ये दृढ़ता दी। उन्होंने गुरुमुखी सीखना शुरु कर दिया। उन्होंने मेरी मां से पूछा कि बीबी तू क्या पढ़ रही है तो उनका कहा कि मैं तो पांच ग्रंथी पढ़ रही हूं। वो कहते मैं ग्रंथ साहब पढ़ आया। उसमें लिखा हुआ है।

चाहे रख लांबे केस चाहे कर मुडार, नितारा अमला नाल।

मेरी मां ने मुझसे पूछा कि क्या ये ग्रंथ साहब में है। लेकिन मैंने तब तक ग्रंथ साहब नहीं पढ़ा था। मैंने ग्रंथ साहब को जानने-पढऩे का दावा करने वालों से इस संबंध में पूछा तो उन्होंने कहा कि नहीं नहीं ये तो आर्य समाजियों का प्रचार होगा। मुझे अपनी मां की स्मृति पर भरोसा था। मैंने ठान लिया कि ये तो ढूंढना पड़ेगा कि ये वाकई उसमें है या नहीं। सबसे दिलचस्प बात है कि ये कबीर का दोहा है, कि आपके रूप से फर्क नहीं पड़ता।

ननकाना साहब के बाद एक लोकप्रिय गीत बना कि जात तेरी किसी ने पूछणी नहीं, अमलां नाल होणे ने नबेड़े। जात-पात को तोडिय़े और अमल पर आइए ये संदेश था जिसे भगतसिंह ने पकड़ लिया। लेकिन वे इससे आगे निकल गए इसको दोहराया नहीं। भगतसिंह ने पढ़ा, समझा, उसे अपनाया और आगे बढ़ गए।

अगर आपके मन में ठीक प्रश्न है तो आप उत्तर पायेंगे। भगतसिंह ने अपने पिता से प्रश्न किया कि आपने मुझे गुरु तेगबहादुर की शहादत की कहानी सुनाई। ये पता लग गया कि गुरु तेगबहादुर जी की शहादत आम आदमी से जजिया(टैक्स)के लिए हुई। जजिया टैक्स पर बहुत अच्छा पत्र शिवाजी का औरंगजेब को है, जो पी सी सरकार लिखित की जीवनी में है। उसमें लिखा है कि इससे दो भ्रम पैदा होते हैं। जो आपका खजाना खाली हो गया वो बेकार की जंग लड़ने से हुआ है। जंग से किसी का खजाना नहीं भरा। खजाना भरने के लिए आप गरीबों पर टैक्स लगाने की बजाए जागीरदारों से सहायता मांगो।

दूसरा भ्रम ये पैदा होता है कि तुम रक्षा कर रहे हो। लड़की गहने डालकर सड़क पर दो मील भी सुरक्षित नहीं जा सकती। यही तुम्हारी रक्षा है।

यही भगतसिंह ने कहा कि गुरु तेगबहादुर 9 साल के बाल गोबिंद छोड़कर गए थे। उन्होंने उनके लिए क्या गुर भेजा। जिस गुर ने बाल गोबिंद को गुरु गोबिंद बना दिया। ये बड़ा खूबसूरत सवाल है। मैंने देखा कि गुरु तेगबहादुर के शबद ग्रंथ साहब में आखिर में अंकित किए गए हैं। वो गुरु गोबिन्द सिंह ने जोड़े हैं। वो चांदनी चौक दिल्ली से भेजे गए थे। उसका एक आखिरी शब्द है।

बल छूटक्यो बंधन पड्यो, कछु न होत उपाय।

अगर बल छूट जाए, आप बंधन से छूटकारा नहीं पा सकते। कहानी ये है कि आप बाल गोबिंद से इसका जबाब पूछ लेना। अगर तो प्रश्न का जबाब उसे पता है तो फिर उसके आगे मदद करना। नहीं तो फिर उसे समझा देना। फिर उसका उत्तर है बल हुआ बंधन छूटे, सब कुछ होत उपाय।

भगतसिंह ने इसे समझा कि मुझे पता चल गया कि असल में बलवान होने और निर्बल होने की लड़ाई है। बल कैसे बनना है। बाहुबल से आगे के बल भी हैं। विचारों का बल है तो इरादे का बल होगा, इरादे का बल है तो आप संगठन का बल बनायेंगे।

यहां आंबेडकर और भगतसिंह एक हैं। वो भी कहते हैं कि शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो। किसी समाज को आगे बढ़ाने के ये तीन सूत्र हैं। अपनी विरासत से कैसे सीखा।

अध्ययन की प्रक्रिया 1921 के बाद है। 1921 में गांधी जी ने बनारस में भाषण दिया था, जिससे कई क्रांतिकारी पैदा हुए।  मंमथनाथ गुप्त काकोरी केस में थे, चंद्रशेखर आजाद भी उसी में पैदा हुए। मुझे लगा कि देखा जाए कि ये क्या प्रसंग है। वो बहुत खूबसूरत है। गांधी जी ने कहा ‘मेरे साथ मालवीय जी बैठे हैं, जब मैं आया इंग्लैंड-अफ्रीका से तो सोचता था कि सारी जिंदगी इनके पांवों में लगा देता। लेकिन आज हमारा मतभेद हैं। ये कहते हैं कि बच्चे पढ़ें, मैं कहता हूं कि सबसे जरूरी स्वराज है। उसके लिए सब कुछ छोड़ें। उन्होंने कहा कि आप अपने परिवार के लिए पढ़ रहे हैं देश के लिए सोचिए। उसमें भगतसिंह ने भी छोड़ा।

बड़ा खूबसूरत है कि उस समय चंद्रशेखर आजाद 14 साल के थे उनकी पहली फोटो उपलब्ध है। उनको पकड़ा गया आंदोलन में। उनको 12 बेंत लगे। बेंत लगने के बाद भी अपने आप चले, अन्यथा बेंत लगने बाद तो बड़े बड़े फन्ने खां भी गिर जाते थे। बेंत लगाने के बाद चार आने दिए कि दूध पी लेना। वो जेलर के मुंह पर फेंक कर आ गए। जब वो चल कर आ गए। तो उसी शाम बनारस में एक मीटिंग हुई तो उनको मंच पर खड़ा करके चरखे के साथ कि देखिए ये हमारे सत्याग्रही हैं। वो आजाद हो गए। आजाद बन गए।

रामप्रसाद बिस्मिल उन को पारे की तरह कांपने वाला कहते थे। तुम स्थिर नहीं हो। वहीं वो सतारा नदी के किनारे तीन साल रहे। मुझे वहां जाने का मौका मिला। एक तो कुटी थी जिसमें वो साधु बनकर रहे। उसमें एक सुरंग निकाली हुई थी। अगर पकड़ने आ जाए तो निकल जाएं। एक वहां नीम का पेड़ था जिसके नीचे वो बच्चों को पढ़ाया करते थे। तीन साल के बाद वो कांपने वाला पारा फौलाद बन गया। उन्होंने दोबारा पूरा संगठन खड़ा किया। अगर नौजवान समझ लेता है वो उसको पूरा करता है।

बड़ी दिलचस्प है कि वो 16 साल की उम्र में घर से भागे थे। उनकी दादी को चिंता थी कि दो दो पुत्र वधुएं घर में बैठी हैं। 16 साल के जवान हो गया है। इसकी शादी करनी चाहिए।

मिरासी ने आकर एक रिश्ता भी बता दिया कि फलां की लड़की जवान है और वो शादी में हाथी भी देंगे। इस पर भगतसिंह ने कहा कि बड़ी अच्छी बात है, कमाल ही हो जाएगा कि हाथी हमारे गन्ने के खेत खाया करेगा। हम उसकी लीद उठाया करेंगे। जब उनको लगा कि वो गंभीर हो रहे हैं तो घर से भागना ही उचित है। अपनी मां को बताया उनसे पैसे ले लिए, पिता जी का मनीआर्डर ले लिया और घर से भाग गए। वो चि_ी लिखी, कि हमारे नामकरण के समय हमारे दादा ने कहा था कि ये मेरे दो पोते हैं ये भी देश की आजादी के लिए सौंप दिए। मैं तो उनका वचन पूरा कर रहा हूं।

कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी जी के साथ पत्रकारिता की। उन्होंने लोगों के साथ हर चीज सांझी की। वो हमारे पास विरासत है कि हर मसले पर नए तरीके से सोचना। हर प्रश्न को नए तरीके से लिया। उनका संपूर्ण नारा साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इंकलाब जिंदाबाद है।


स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 54-59

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