विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : रीतिकाल के मर्मज्ञ आचार्य – डॉ. अमरनाथ

 हिंदी के आलोचक –

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

काशी में जन्मे, वहीं पढ़े-लिखे और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र (01.04.1906- 12.07.1982) रीतिकाल के मर्मज्ञ विद्वान हैं. उन्होंने संपादन किया, आलोचनाएं लिखीं, अनुसंधान किया और अनेक ग्रंथों की टीकाएं भी लिखीं. ‘हिन्दी साहित्य का अतीत’, ‘हिन्दी का सामयिक साहित्य’, ‘वाड़्मय विमर्श’, ‘हिन्दी नाट्य साहित्य का विकास’, ‘बिहारी की वाग्विभूति’, ‘काव्यांगकौमुदी’ आदि उनकी मौलिक आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. इसके अलावा उन्होंने ‘रसखानि’, ‘घनानंद ग्रंथावली’, ‘घनानंद कवित्त’, ‘पद्माकर ग्रंथावली’, ‘रसिकप्रिया’, ‘कवितावली’, ‘बिहारी’, ‘केशवदास’,  ‘केशवदास ग्रंथावली’, ‘भिखारीदास ग्रंथावली’, ‘रामचरितमानस’ (काशिराज संस्करण), ‘भूषण ग्रंथावली’, ‘जगद्विनोद’, ‘पद्माभरण’, ‘सुदामाचरित’, ठाकुर ग्रंथावली, ‘सत्य हरिश्चंद्र नाटक’, ‘हम्म्रीर हठ’ आदि ग्रंथों का पाठ संपादन किया है और टीकाएं भी लिखी हैं. उनकी पुस्तक ‘वाड़्मय विमर्श’ को 1944 ई. में हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने ‘आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी स्वर्ण पदक’ प्रदान किया था. आचार्य शुक्ल के असामयिक निधन के बाद उन्होंने आचार्य शुक्ल की पुस्तकों- ‘सूरदास’ और ‘रसमीमांसा’ का संपादन भी किया था.

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र मूलत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्य और उनकी परंपरा के ही आलोचक हैं. वे भी आचार्य शुक्ल की तरह रसवादी आलोचक हैं. साहित्य को मनोरंजन का साधन न मानकर उसकी सामाजिक और लोकवादी भूमिका पर वे भी जोर देते हैं. उन्होंने रस के अलौकिकत्व पर विचार करते हुए कहा है कि काव्यानुभूति, प्रत्यक्षानुभूति से सर्वथा भिन्न नहीं होती. प्रत्यक्षानुभूति, काव्यानुभूति का आधार है. वे लिखते हें, “ शास्त्रों में ‘अलौकिक या ब्रह्मानंद सहोदर’ शब्द केवल रसानुभूति की स्थिति और प्रक्रिया समझाने के लिए प्रयुक्त हुए हैं, उसे प्रत्यक्षानुभूति से एकदम पृथक् घोषित करने के लिए नहीं. “ (वाड़्मय विमर्श, पृष्ठ- 220) विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार, “ इसमें कोई संदेह नहीं कि काव्यशास्त्रीय व्याख्या के सूत्र मिश्र जी को रामचंद्र शुक्ल से ही मिले हैं. निष्कर्ष मिश्र के वही हैं, हाँ विचार-सरणि कभी- कभी भिन्न सी दिखायी पड़ती है. शुक्लजी की आलोचना के अंतर्विरोध, मिश्रजी के यहाँ समाप्त नहीं दिखायी पड़ते बल्कि और दृढ़ता एवं आग्रह के साथ सामने आते हैं. मिश्रजी की आलोचना की यह बहुत बड़ी दुर्बलता है.” ( हिन्दी आलोचना, पृष्ठ- 118) .

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने संस्कृत काव्यशास्त्र और रीतिकाल का गंभीर अध्ययन किया था, उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रमुखता से प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों मसलन् ‘सामाजिक’, ‘सहृदय’, ‘रसाभास’, ‘औचित्य’, ‘चित्तवृत्ति’, ‘अनुभूति’ आदि की स्पष्ट और सटीक व्याख्या की है. उनके अनुसार सहृदय वह है जो आश्रय के हृदय से अपना हृदय मिला सके, जो अपने हृदय को दूसरे के हृदय से मिला सके, उसके हृदय की सहानुभूति कर सके.” ( वाड़्मय विमर्श, पृष्ठ- 147)

आचार्य मिश्र की सबसे बड़ी देन रीतिकाल के मूल्यांकन को व्यापकता प्रदान करना है. उन्होंने रीतिकाल को श्रृंगार काल कहा और उसके पीछे उनका तर्क है कि, “ रीति शब्द बाह्यार्थ का ही बोधक है, आभ्यंतरार्थ का नहीं. उस काल का आभ्यंतर वर्ण्य श्रृंगार था. रीति की सीमा में जितनी कृतियाँ समाविष्ट हैं वे अधिकतर श्रृंगार की हैं. ….. यदि रीतिकाल के समस्त ग्रंथों की छानबीन की जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी प्रकार के ग्रंथों में श्रृंगार तो किसी न किसी रूप या परिमाण में अवश्य मिल जाता है, अर्थात दूसरे रस का वर्णन करने वाले भी श्रृंगार का वर्णन अवश्य करते थे, पर श्रृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले बहुत से ऐसे मिलेंगे जिन्होंने दूसरे रसों का नाम भी नहीं लिया.” ( हिन्दी साहित्य का अतीत, श्रृंगार काल, पृष्ठ-357). “इसके अतिरिक्त रीति में बिहारी और घनानंद जैसे कवियों की समाई नहीं होती. बिहारी की रचनाओं का अर्थ समझने के लिए काव्यरीति का ध्यान अवश्य रखना पड़ता है किन्तु ये रीति के प्रतिनिधि कवि नहीं हैं. घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर तो रीति से सर्वथा असम्बद्ध हैं. ऐसी स्थिति में इन्हें रीति काल का कवि कहना उचित नहीं है. तत्कालीन परिस्थिति को देखने पर भी इनका प्रतिपाद्य श्रृंगार ही ठहरता है. इस प्रकार चाहे जिस दृष्टि से देखें ‘अलंकृत काल’ और ‘रीतिकाल’ नाम व्याप्ति के बोधक नहीं प्रतीत होते. उन्हें हटाने की आवश्यकता है और उनके स्थान पर ‘श्रृंगारकाल’ की स्पष्ट अपेक्षा जान पड़ती है.”  (हिन्दी साहित्य का अतीत, श्रृंगार काल, पृष्ठ-361)

वैसे ‘रीतिकाल’ के लिए ‘श्रृंगार काल’ नामकरण का संकेत आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में पहले ही दे दिया था. शुक्ल जी ने लिखा है, “वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्ही दो रसों की कविता इस काल में हुई. प्रधानता श्रृंगार की ही रही. इससे इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगार काल कहे तो कह सकता है.” ( हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ- 241)

हिन्दी में कठिन काव्य के प्रेत के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले आचार्य कवि केशवदास की कृतियों का प्रामाणिक पाठ तैयार करके आचार्य मिश्र ने एक असाधारण कार्य किया है. उन्होंने ‘केशव ग्रंथावली’ का संपादन किया है जिसके तीन भागों में केशव की नौ कृतियों का मूल पाठ प्रस्तुत किया गया है. उन्होंने ‘केशव ग्रंथावली’ के संपादन में वैज्ञानिक और साहित्यिक दोनो पद्धतियों का समन्वय किया है.

विशवनाथ त्रिपाठी के शब्दों में, “ विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आलोचक कम और गंभीर अनुसंधित्सु और विद्वान अधिक हैं. निष्ठा और परिश्रम से वे शब्दों के अर्थों, साहित्यिक कृतियों के पुनरुद्धार और उनके पाठशोध में एक दीर्घ अवधि तक निरत रहे हैं. घनानंद के प्रति उनका अनुराग शुक्ल जी की प्रेरणा से हुआ होगा. किन्तु उनकी कृतियों की खोज, उनकी रचनाओं का पाठशोध, उनकी अनेक दुरूह और जटिल पंक्तियों की व्याख्या और फिर उन कृतियों का सुसम्पादन पं. विश्वनाथ प्रसाद का योगदान है. इसी प्रकार रीतिकाल के संबंध में उनके नामकरण का शायद इतना अधिक महत्व नहीं है, महत्व है रीतिकालीन कवियों की कृतियों के संपादन, उनकी व्याख्याओं, तत्कालीन कविता पर दरबारी, फारसी, उर्दू कविताओं के वातावरण के प्रभाव की खोज का. ‘रामचरितमानस’ के सुसंपादन के लिए निश्चित रूप से वे हिन्दी साहित्य प्रेमियों के बीच दीर्घकाल तक स्मरण किए जाएंगे. पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आलोचक रूप में कम, साहित्य के व्याख्याता और विद्वान सम्पादक के रूप में अधिक महत्वपूर्ण है.” ( हिन्दी आलोचना, पृष्ठ- 121)

मिश्र जी द्वारा किए गए रीतिकाल के मूल्यांकन पर रामदरश मिश्र की टिप्पणी है, “आलोचना –सिद्धांत के पक्ष में मिश्र जी की कोई मौलिक देन भले ही न हो किन्तु इतिहास के एक सीमित क्षेत्र में ( अर्थात रीतिकाल में) तथा रीतिकालीन कविताओं और उनकी प्रवृत्तियों की व्याख्या के क्षेत्र में उनका ऋण हिन्दी साहित्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा. रीतिकाल की प्रवृतियों के स्वरूपों और उनके उद्गम-स्रोतों की आपने व्यापक और गहरी छानबीन तथा खोज की है. इन प्रवृतियों के विश्लेषण के साथ –साथ कवि विशेष की कविताओं का मार्मिक विवेचन कर आपने रीतिकाल को विश्लेषित किया है.” ( हिन्दी समीक्षा : स्वरूप और संदर्भ, पृष्ठ- 104)

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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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