हिंदी के आलोचक- 50
हरदोई (उ.प्र.) जिले के ‘गोपामऊ’ कस्बे में जन्मे, इलाहाबाद से पढ़े-लिखे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे डॉ. रघुवंश ( 30.06.1921—23.08.3013 ) का पूरा नाम रघुवंश सहाय वर्मा है. वे आधुनिक साहित्य के समीक्षक हैं. गाँधी और लोहिया के विचारों का प्रभाव उनपर सहज ही देखा जा सकता है. वे न तो साम्यवाद को स्वीकार करते हैं और न पूंजीवाद को. वे लिखते हैं, “ इतिहास का सच्चा और सही विश्लेषण बतलाएगा कि स्वतंत्रता और बराबरी के मूल्यों के अनुभावन के लिए यूरोप के महान राष्ट्रों ने एशिया, अफ्रीका तथा लातीनी अमरीका के देशों को निरंतर पराधीन रखा है और उनका आर्थिक शोषण किया है. इसी प्रकार वर्गों के शोषण को मिटाने के लिए, वर्गहीन समाज की रचना के लिए साम्यवादी देशों को अपने प्रभाव क्षेत्र कायम करने पड़े हैं, उपनिवेश बनाने पड़े हैं और आज भी आर्थिक प्रभाव क्षेत्र बनाए रखने के प्रयत्न जारी हैं. “ ( ‘क ख ग’, अक्टूबर, 65 ). इन दोनों से मुक्ति की आकाँक्षा उन्हें गाँधीवाद की ओर ले जाती है जिसे उन्होंने ‘प्रजातांत्रिक समाजवाद’ कहा है. वे कहते हैं, “ मूलत: मेरे चिन्तन का आधार गाँधी-विचार रहा है. अत: मेरी सत्य, न्याय और अहिंसा पर पूरी आस्था रही है.” ( ‘क ख ग’, अक्टूबर, 65, पृष्ठ-116) गाँधी दर्शन में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं, “ गाँधी का समस्त मानववाद, विश्वबन्धुत्व, सत्याग्रह, अहिंसावाद और सर्वोदय- न केवल देश की परंपराओं में गृहीत और विकसित हुआ है, वरन् इनकी सारी परिकल्पना में देश के यथार्थ की गहरी पकड़ रही है. इस प्रकार गाँधी के व्यक्तित्व और चिन्तन में वे सारी संभावनाएं निहित रही हैं जिनके आधार पर भारत की बौद्धिक परिस्थिति, आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को गतिशील करने में सक्षम हो सकती थी.” ( ‘क ख ग’, अप्रैल 66 ).
रघुवंश जी ने बाल्मीकि और तुलसी से लेकर होमर और मिल्टन तक का हवाला देते हुए लिखा है कि श्रेष्ठ साहित्कार चूंकि आंतरिक विवेक से साहित्य- रचना करते हैं, बुद्धि से नहीं, इसलिए वे अपनी विचारधारा और वर्गचेतना से परे होते हैं. इस पर डॉ. नंदकिशोर नवल की टिप्पणी है, “कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि उक्त श्रेण्य साहित्यकारों में से कोई भी अपनी वर्ग- चेतना से परे नहीं है. यह बात और है कि उनकी विचारधारा और वर्ग-चेतना कहीं प्रत्यक्ष रूप में अभिव्यक्त हुई है तो कहीं अप्रत्यक्ष रूप में” (हिन्दी आलोचना का विकास, पृष्ठ -316). प्रगतिवादी कविता पर रघुवंश जी की टिप्पणी है, “ प्रगतिवादी कविता ‘कुत्सित समाजशास्त्री आलोचकों’ के प्रभाव से वर्ग- संघर्ष तथा सामाजिक क्रान्ति का अयथार्थ स्वर भरती रही है. अधिकतर प्रगतिवादी कवि अपने देश के सामाजिक यथार्थ से अपरिचित रहकर रूस तथा चीन की सामाजिक क्रान्ति के गीत गाते रहे हैं.” ( साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ-126) इसी तरह स्वाधीनता आन्दोलन के युग तथा महात्मा गाँधी जैसे नेताओं का हवाला देते हुए वे छायावादी कविता के बारे में कहते हैं, “ जिस प्रकार जनता का जीवन समस्त आदर्श कल्पनाओं, स्वप्नों तथा प्रेरणाओं के बावजूद अन्दर से खोखला और बौना था, उसी प्रकार इस काव्य का सारा सौन्दर्य, सारी कल्पना, सारे आदर्श वायबी रहे हैं. जिस प्रकार जनता के जीवन का सारा अध्यात्म, भक्ति, समर्पण, आन्तरिक आस्था तथा विश्वास पर आधारित न होकर मात्र बाह्य आकर्षण और चमत्कार से प्रेरित थे, उसी प्रकार छायावाद का सारा रहस्यवाद आनंदवाद, मानवतावाद अंत: अथवा बाह्य यथार्थ के संदर्भ से हीन, मात्र खोखला था. “ ( साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ- 142) इस तरह छायावादी कविता की मुक्तिकामी चेतना को पकड़ न पाने के कारण वे उसका एकपक्षीय मूल्यांकन करते हैं.
रघुवंश जी मुख्यत: प्रयोगवाद और नयी कविता के आलोचक हैं. प्रयोगवाद और नयी कविता के कुछ कवियों पर रघुवंश जी ने विस्तार से लिखा है. अज्ञेय उनकी नजर में सर्वश्रेष्ठ कवि हैं क्योंकि ” उनका सुशिक्षित और सुसंस्कृत मस्तिष्क तथा संवेदनशील और संयत विद्रोही व्यक्तित्व ही काव्य को छायावादी शब्द जाल, प्रगतिवादी व्यक्तित्वहीनता तथा उत्तरछायावादी रोमैंटिकों के भावावेश से मुक्त कर युग के यथार्थ से संपृक्त और व्यक्ति की अद्वितीयता तथा विशिष्टता से संपन्न करने में समर्थ हुआ. “ ( समसामयिक और आधुनिक हिन्दी कविता, पृष्ठ- 20) प्रयोगवाद और नयी कविता के उन कवियों को रघुवंश जी ने अधिक महत्व नहीं दिया है जिनमें किसी न किसी रूप में रोमानीपन या भावुकता पायी जाती है. धर्मवीर भारती, गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, नरेश मेहता, विजयदेवनारायण साही, जगदीश गुप्त आदि ऐसे ही कवि हैं.
‘साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य’, ‘समसामयिकता और आधुनिक हिन्दी कविता’, ‘आधुनिकता और सर्जनशीलता’, ‘भारती का काव्य’, ‘प्रकृति और काव्य’ ( हिन्दी खण्ड), ‘प्रकृति और काव्य’ ( संस्कृत खण्ड), ‘नाट्यकला’, ‘कबीर : एक नई दृष्टि’, ‘जायसी : एक नई दृष्टि’, ‘आधुनिक कवि निराला’, ‘हिन्दी साहित्य की समस्याएं’ आदि रघुवंश जी की प्रमुख आलोचना पुस्तकें हैं. आलोचना में वातावरण, परिस्थिति, युग जीवन, सांस्कृतिक मूल्य, रचना प्रकिया, विसंगति की मनस्थिति आदि को वे पर्याप्त महत्व देते हैं. नंद किशोर नवल के शब्दों में “उनके ( रघुवंश ) साहित्य संबंधी चिन्तन में उलझाव है और उनकी आलोचना की शक्ति सीमित है. उनकी पद्धति शास्त्रीय नहीं है, पर उसपर पाश्चात्य आलोचना का स्पष्ट प्रभाव है. जहाँतक रघुवंश जी की आलोचना की भाषा का प्रश्न है, वह सूक्ष्म विश्लेषण की क्षमता से युक्त है, पर उस क्रम में वह प्राय: अमूर्त होने लगती है.” ( हिन्दी आलोचना का विकास, पृष्ठ-328).
हाथों से अपंग होने के कारण रघुवंश जी को लिखने के लिए पैर की उंगलियों का सहारा लेना पड़ता था. इस तथ्य का उल्लेख करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “डॉ. रघुवंश हिन्दी के विचारशील तरुण लेखक हैं. यद्यपि विधाता ने इनके हाथ की बनावट पूरी करने में बहुत कृपणता का परिचय दिया है—इनके हाथ इतने दुर्बल और नि:शक्त हैं कि वे उनसे लिख भी नहीं सकते, पैरों की सहायता से हाथों को हिलाकर लेखनी चलाते हैं— परन्तु फिर भी तीक्ष्ण बुद्धि और उदार मन देकर उन्होंने अपनी कृपणता का कलंक मिटा दिया है. इन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य का खूब मनन किया है. किसी भी साहित्यिक प्रभाव का वे बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हैं, उसके तह में जाते हैं और उसका वास्तविक स्वरूप समझने का प्रयत्न करते हैं….. किसी वस्तु के यथार्थ तक पहुँचने के लिए वे उसका सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं. वस्तुत: वह भेदक दृष्टि वाले आलोचक हैं. उनका अध्ययन विशाल है और दृष्टि विश्लेषणप्रवण… श्री रघुवंश जी अथक परिश्रम करने वाले लोगों में है. वे सदा लिखने पढ़ने में लगे रहते हैं.” (प्रकृति और काव्य, (संस्कृत खण्ड), रघुवंश, हजारीप्रसाद द्विवेदी (परिचय), पृष्ठ-1, 2)