हिंदी के आलोचक- 52
पटना शहर के ‘बदरघाट’ मुहल्ले में जन्मे, पटना में ही पढ़े- लिखे और आरा तथा पटना में अध्यापक रहे, महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ( 18.02.1916- 12.09.1961) की चर्चा खासतौर पर उनकी पुस्तक ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ तथा नकेनवाद के संस्थापक के रूप में होती है, किन्तु वे मौलिक प्रतिभा संपन्न एक गंभीर आलोचक भी हैं. उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों पाठ संपादन किया है. उनकी आलोचना में अनुसंधान के तत्व प्रमुखता से प्राप्त होते हैं. उन्होंने जिन ग्रंथों का पाठ संपादन किया है उनमें लालचदास कृत ‘हरिचरित्र’, ‘लोककथा कोश’, ‘लोकगाथा परिचय’, ‘प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण’ (छ: खंड), ‘सदल मिश्र ग्रंथावली’, ‘ ‘गोस्वामी तुलसीदास’, ‘संत परंपरा और साहित्य’, ‘अयोध्याप्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ,’ ‘भारतीय साहित्य परिशीलन तथा अन्वेषण’, ‘हिन्दी साहित्य परिशीलन तथा अन्वेषण’ आदि प्रमुख हैं. इस तरह उन्होंने बिहार के कई गुमनाम साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का मूल्यवान कार्य किया.
नलिन विलोचन शर्मा के शताब्दी- स्मरण पर उनकी ग्रंथावली का संपादन करने वाले अजय आनंद ने लिखा है, “इनके व्यक्तित्व पर यदि ध्यान दें तो आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति जो सफल अध्यापक हो, बिहार साहित्य सम्मेलन का प्रधान मंत्री हो, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का शोध-निर्देशक हो, ‘साहित्य’, ‘दृष्टिकोण’ और ‘कविता’ का यशस्वी संपादक भी हो- वह एक साथ इतना काम कैसे करता था !
19वीं शती के अंतिम दशक और 20वीं शती के आरंभिक तीन दशकों में काशी नागरी प्रचारिणी सभा में जैसा योगदान श्यामसुंदर दास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही योग पाँचवें और छठें दशक में आचार्य शिवपूजन सहाय और आचार्य नलिनविलोचन शर्मा का है, कहना असंगत नहीं है. हिन्दी में तात्विक शोध का आज भी अभाव है, नलिन जी पहले आलोचक हैं, जिन्होंने तात्विक शोध के प्रति लोगों का ध्यान दिलाया. सिर्फ दिलाया ही नहीं, किया भी.” ( https//vishwahindijan.blogspot.com)
उन्होंने आगे लिखा है, “शोध में पाठानुसंधान और भाषा-विज्ञान विशेषकर भाषा की बोलियों के अध्ययन में भी नलिन जी की रुचि थी. बोलियों के भाषावैज्ञानिक महत्व पर वे ‘साहित्य’ के संपादकीय में समय- समय पर लिखा करते थे. उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ ‘पद्मराग’ नाम से भी लिखी हैं. इनकी पुस्तक- समीक्षाएं भी आधुनिक दृष्टि से लैश होती थीं. अपनी आधुनिक दृष्टि और प्रयोगशीलता के कारण ही वे ‘मैला आंचल’, ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘सुनीता’, ‘घेरे से बाहर’ जैसे उपन्यासों के पक्ष मे डटे रहे जो कथ्य और शिल्प दोनों में लीक से अलग थे. फणीश्वनाथ रेणु के ऐतिहासिक उपन्यास ‘मैला आंचल’ पर पहली समीक्षा इन्होंने ही लिखी, जिसके कारण हिन्दी संसार का ध्यान ‘मैला आंचल’ की तरफ गया.” ( https//vishwahindijan.blogspot.com)
नलिनविलोचन शर्मा ने सन् 1470 ई. में लालच दास द्वारा रचित अवधी की रचना ‘हरिचरित्र’ का पाठ संपादन भी किया है. चौपाई और दोहे में रचित यह कृति 90 अध्यायों में विभाजित है जिसमें श्रीमद्भागवत की कथा का अपने ढंग से वर्णन है. यह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना से प्रकाशित है.
नलिन जी ने संस्कृत की शास्त्रीय आलोचना और पश्चिम की आलोचना -पद्धति का गहन अध्ययन किया था, लेकिन उन्होंने अनुसरण करने के बजाय अपने लिए नई आलोचना पद्धति की खोज की है. वे हिन्दी के पहले आधुनिक आलोचक थे. उनमें परंपरा के नाम पर जड़ विचारों का त्याग करने और नए आधुनिक विचारों को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता थी. ‘दृष्टिकोण’, ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’, ‘मानदंड’, ‘हिन्दी उपन्यास: विशेषत: प्रेमचंद, ‘साहित्य तत्व और आलोचना’ आदि उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. (https//vishwahindijan.blogspot.com) उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों और लेखों का संग्रह ‘दृष्टिकोण’ नाम से प्रकाशित है.
नलिनविलोचन शर्मा की आलोचना पद्धति का मूल्यांकन करते हुए गोपेश्वर सिंह ने लिखा है, “ नलिन जी के आलोचनात्मक लेखन का समय 1940-1960 के बीच का है. यह शीतयुद्द की छाया का दौर है. दुनिया सोवियत और अमेरिकी शिविर मे बंटी हुई थी. राजनीतिक रूप से दो सिरों में विभाजित विचारधारा का प्रभाव दुनिया के साहित्य पर भी था. माना जाता था कि या तो आप प्रगतिशील हैं या गैर-प्रगतिशील. इस प्रभाव से हिन्दी साहित्य भी अछूता नहीं था. हिन्दी का समूचा वातावरण प्रगतिवाद बनाम आधुनिकतावाद का बना हुआ था. नलिन विलोचन शर्मा आलोचना का एक तीसरा पक्ष लेकर सामने आए. वे न प्रगतिवादी शिविर मे शामिल हुए और न गैर-प्रगतिवादी शिविर में. दोनो से उनकी दूरी समान बनी रही. उन्होंने आलोचना के इन दोनो धरातलों को अपर्याप्त माना और तीसरे धरातल के रूप में नए मान निर्मित करने की कोशिश की. जैसे शीत युद्ध काल में दो शिविरों मे बँटी हुई दुनिया में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक तीसरा शिविर बनकर उभरा, वैसी ही स्थिति लगभग नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना की भी है.” ( आलोचना के परिसर, पृष्ठ- 185)
अपने ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ नामक पुस्तक में उनकी मूल स्थापना है कि साहित्येतिहास भी अन्य प्रकार के इतिहासों की तरह कुछ विशिष्ट लेखकों की कृतियों का इतिहास न होकर युग विशेष के लेखक समूह की कृति समष्टि का इतिहास ही होता है. गोपेश्वर सिंह के शब्दों में, “इतिहासकार के रूप में अपने प्रिय आलोचक आचार्य शुक्ल को नलिन जी वह महत्व नहीं देते जो हजारीप्रसाद द्विवेदी को देते हैं. इसका कारण यह है कि नलिन जी शुक्ल जी में विधेयवाद और पश्चिमी इतिहास -दष्टि का आभास पाते हैं. जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी की दृष्टि उन्हें ज्यादा भारतीय लगती है, क्योंकि उसमें मिथकों, पुराकथाओं, किम्वदंतियों का आधार है, जो नलिन जी के अनुसार साहित्य के इतिहास -लेखन की जरूरी सामग्री है.” ( http://likhat-padhat.blogspot.com, 2.8.2016)
आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने कथा साहित्य की भी आलोचना की है. उन्होंने प्रेमचंद, उपेन्द्रनाथ अश्क, हजारीप्रसाद द्विवेदी, फणीश्वरनाथ रेणु आदि की कृतियों की संतुलित समीक्षाएं की हैं. ‘हिन्दी उपन्यास : विशेषत: प्रेमचंद’ में कथा- साहित्य संबंधी अधिकांश टिप्पणियां संकलित हैं. मधुरेश के शब्दों में, “ नलिनविलोचन शर्मा की यह पुस्तक इस बात का अच्छा प्रमाण है कि नई और मौलिक स्थापनाओं के लिए विस्तार ही सबकुछ नहीं है-संक्षेप में, सूत्रात्मक शैली में भी महत्वपूर्ण स्थापनाएं की जा सकती हैं. लेखक की यह विशेषता कुछ विशेष स्थलों पर ही नहीं, पूरी पुस्तक में उजागर हुई हैं.” (हिन्दी आलोचना का विकास, पृष्ठ- 140) मधुरेश ने रेखांकित किया है कि ‘हिन्दी उपन्यास में अश्लीलता और ग्राम्यता’ शीर्षक उनकी टिप्पणी विशेष रूप से उल्लेखनीय है. यह सब नलिन विलोचन शर्मा ने तब लिखा जब हिन्दी में कथा- आलोचना की कोई पुष्ट परंपरा नहीं थी और कथा- साहित्य के प्रति सब कहीं गहरी उपेक्षा का भाव व्याप्त था. ‘मैला आंचल’ के महत्व को रेखांकित करने वाले वे पहले आलोचक थे. कवियों में नलिनविलोचन शर्मा ने मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर और त्रिलोचन शास्त्री पर लिखा हैं. त्रिलोचन पर उन्होंने तब लिखा जब वे गहरी उपेक्षा के शिकार थे.
नलिनविलोचन शर्मा को कुछ आलोचकों ने रूपवादी कहकर उनकी उपेक्षा की है. किन्तु वे विचार या दृष्टिकोण के विरोधी नहीं थे अपितु उसे ही रचना का निर्णायक तत्व न मानकर उसे भी रचना के संघटक तत्वों में से एक मानते थे. उन्होंने अपने लेखों, साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक- समीक्षाओं के जरिए हिन्दी संसार को नए ढंग से आन्दोलित करने का सफल प्रयास किया.
नलिनविलोचन शर्मा की प्रतिष्ठा एक कवि के रूप में भी है. ‘नकेनवाद’ की स्थापना में भी नलिनविलोचन शर्मा की अग्रणी भूमिका रही है. नलिनविलोचन शर्मा, केशरीकुमार तथा नरेश- तीनो कवियों के आद्याक्षरों को लेकर इसे ‘नकेनवाद’ कहा जाता है, जबकि इन्होंने इसे ‘प्रपद्यवाद’ कहा है. ‘नकेन के प्रपद्य’ के नाम से इन कवियों का एक संयुक्त संकलन भी प्रकाशित हुआ है.
सिर्फ 45 वर्ष कुछ माह की उम्र में इतना विशाल और वैविध्यपूर्ण कार्य देखकर आचार्य नलिनविलोचन शर्मा की असाधारण प्रतिभा पर श्रद्धा होती है.