डॉ. नगेन्द्र : शुक्लोत्तर आलोचना के प्रमुख स्तंभ – डॉ. अमरनाथ

हिंदी के आलोचक

डॉ नगेन्द्र

अलीगढ़ ( उ.प्र.) जिले के ‘अतरौली’ नामक कस्बे में जन्मे, नागपुर और आगरा से पढ़े- लिखे तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे डॉ. नगेन्द्र (09.03.1915- 27.10.1999) ने काव्यशास्त्र और आलोचना के क्षेत्र में विपुल कार्य किया है. ‘सुमित्रानंदन पंत’ उनकी पहली समीक्षा-पुस्तक है. ‘कामायनी के अध्ययन की समस्याएं’ भी उनकी एक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृति है. इन्हीं कृतियों के कारण उनकी गणना छायावाद के प्रमुख समीक्षकों में की जाती है. इनके अलावा ‘साकेत : एक अध्ययन’, ‘आधुनिक हिन्दी नाटक’, ‘विचार और अनुभूति’, ‘रीति काव्य की भूमिका’ ‘आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ’, ‘विचार और विवेचन’, विचार और विश्लेषण, काव्य में उदात्त तत्व, ‘अनुसंधान और आलोचना’, ‘आस्था के चरण’, ‘नयी समीक्षा नये संदर्भ’, ‘समस्या और समाधान’, ‘रस सिद्धांत’, ‘आलोचक की आस्था’, ‘काव्य बिम्ब’, ‘चेतना बिम्ब, ‘नयी समीक्षा : नए संदर्भ’, ‘भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका’, ‘शैली विज्ञान’, ‘मिथक और साहित्य’, ‘साहित्य का समाज शास्त्र’, ‘भारतीय समीक्षा और आचार्य शुक्ल की काव्य दृष्टि’, ‘मैथिली शरण गुप्त का काव्य : पुनर्मूल्यांकन’, ‘देव और उनकी कविता’, ‘प्रसाद और कामायनी : मूल्यांकन का प्रश्न’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियाँ हैं. इसके अलावा उन्होंने ‘हिन्दी ध्वन्यालोक’, ‘कविभारती’, ‘हिन्दी काव्यालंकारसूत्र’, ‘रीति श्रृंगार’, ‘हिन्दी वक्रोक्तिजीवित’, ‘भारतीय नाट्य साहित्य’, ‘भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा’, ‘हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-6’, ‘इंडियन लिटरेचर’ ( अंग्रेजी), ‘हिन्दी अभिनव भारती’, ‘हिन्दी काव्यप्रकाश’, ‘मानविकी शब्दकोश’, ‘हरिभक्तिरसामृतसिंधु’, ‘पाश्चात्य काव्शास्त्र : सिद्धांत और वाद’, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘भारतीय साहित्य कोश’ आदि दर्जनों उल्लेखनीय कृतियों का संपादन किया है.

डॉ. नगेन्द्र पर सर्वाधिक प्रभाव आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पड़ा है. उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है,  “आरंभ में ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रभाव वश मेरे मन में भारतीय रस सिद्धांत के प्रति गहरी आस्था हो गई थी. शुक्ल जी का मेरे मन पर विचित्र आतंक और प्रभाव रहा है. मेरे अपने संस्कार शुक्ल जी के संस्कारों से सर्वथा भिन्न थे. मेरा साहित्यिक संस्कार छायावादी युग में हुआ था. शुक्ल जी सुधारयुग की विभूति थे…….. उनके निष्कर्षों को मानने के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था. परंतु उनके प्रौढ़ तर्क और अनिवार्य शैली मेरे ऊपर बुरी तरह हावी हो जाते और मैं यह मानने को विवश हो जाता था कि उस व्यक्ति की काव्य दृष्टि चाहे संकुचित हो लेकिन फिर भी अपनी सीमा में यह महारथी अजेय है.”( डॉ. नगेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ. रणवीर रांगा, पृष्ठ. 21 पर उद्धृत)

इस तरह रस सिद्धांत के प्रति डॉ. नगेन्द्र में जो गहरी आस्था पैदा हुई उसके पीछे आचार्य रामचंद्र शुक्ल का व्यापक प्रभाव है. उन्होंने रस सिद्धांत का गंभीर और व्यापक अध्ययन किया है. रस सिद्धांत की व्यापकता का आकलन करते हुए उन्होंने लिखा है, “इस प्रकार रस एक व्यापक शब्द है, वह “विभावानुभावव्यभिचारिसंयुक्त स्थायी” अर्थात् परिपाक अवस्था का ही वाचक नहीं है, वरन् उसमें काव्यगत संपूर्ण भाव-संपदा का अंतर्भाव है. अपरिभाषिक रूप में वह काव्यगत भाव सौन्दर्य का पर्याय है. शब्दार्थगत चमत्कार के माध्यम से भाव के आस्वाद का अथवा भाव की भूमिका का शब्दार्थ के सौन्दर्य का आस्वाद ही वस्तुत: रस है. काव्य के अनुचिन्तन से प्राप्त रागात्मक अनुभूति के सभी रूप और प्रकार- सूक्ष्म और प्रबल, सरस और जटिल, क्षणिक और स्थायी, संवेदन, स्पर्श, चित्त- विकार, भाव –बिम्ब, संस्कार, मनोदशा, शील- सभी रस की परिधि में आ जाते हैं.” ( रस सिद्धांत, पृष्ठ-320)  उनके अनुसार “ रस अपने व्यापक अर्थ में मानसिक अनुभूति ही है.” ( रस सिद्धांत, पृष्ठ-346) नयी कविता के संदर्भ में विचार करते हुए वे कहते हैं, “ चालीस वर्ष पूर्व छायावाद ने भी रस का विरोध किया था, पर आज रस ही उसका प्राण सर्वस्व है. उसके प्राय: दो दशक बाद प्रगतिवाद ने उस पर प्रहार किया था, किन्तु आज उसका जितना भी अंश अवशिष्ट है वह रस के आधार पर ही जीवित है.” इसलिए “ नयी कविता का भी कल्याण इसी में है कि वह इन रसमय बंधनों को स्वीकार कर ले.”( रससिद्धांत, पृष्ठ-349) 

डॉ. नगेन्द्र संस्कृत काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान तो हैं ही उनके ऊपर आई.ए.रिचर्ड्स और बेनेदेतो क्रोचे जैसे पाश्चात्य आलोचकों का विशेष प्रभाव है. वे अंग्रेजी साहित्य में भी एम.ए. हैं. उन्होंने हिन्दी साहित्य के वैभव को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से प्रचारित करने के उद्देश्य से भी कई ग्रंथों का संपादन किया है जिनमें तुलसी और सूर पर ग्रंथ तो हैं ही, नाटक, आलोचना, कहानी आदि पर भी पुस्तकें हैं. वे एक आलोचक, अन्वेषक, संपादक, अनुवादक, निबंधकार और कोशकार आदि कई रूपों में हमारे सामने आते हैं किन्तु एक आलोचक के रूप में निर्मित उनका व्यक्तित्व सर्वाधिक प्रभावशाली है.

डॉ. नगेन्द्र ने ‘आलोचक की आस्था’ निबंध संग्रह में प्रथम तीन निबंधों के अंतर्गत अपनी साहित्यिक मान्यताओं को स्पष्ट किया है. साहित्य का स्वरूप, उसका प्रयोजन, उसमें अंतर्निहित मूल्य, उसके तत्व और उपादान, अनुभूति और अभिव्यक्ति का संबंध, उसमें निहित सत्य, युग बद्धता और युग मुक्तता आदि प्रश्नों का समाधान डॉ. नगेन्द्र ने अत्यंत स्पष्ट और सुलझे हुए रूप में किया है. डॉ. नगेन्द्र, साहित्य को मूलत: आत्माभिव्यक्ति मानते हैं. उनकी दृष्टि में रचनाकार के व्यक्तित्व का कृति में प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रतिफलन आत्माभिव्यक्ति का ही एक प्रकार है. वे मानते हैं कि, “सौन्दर्य कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है उसका निर्माण भी तो कलाकार की अपनी भावनाओं और धारणाओं के आधार पर ही होता है.”( आलोचक की आस्था, पृष्ठ-3) डॉ नगेन्द्र आनंद को ही काव्य का आत्यंतिक प्रयोजन मानते हैं. आनंद के समानान्तर वे लोक कल्याण और चेतना के संस्कार इन दो प्रयोजनों को भी विचारणीय मानते हैं किन्तु उनकी द़ृष्टि में ये दोनो भी आत्यंतिक प्रयोजन नहीं हो सकते “लोकहित को प्रयोजन मानकर चलने वाला साहित्यकार लोक में अपने स्व का विस्तार करके आनंद लाभ ही करता है. इसी प्रकार चेतना के परिष्कार की परिणति भी आनंद की अनुभूति में ही होती है. इसलिए लोक कल्याण और चेतना का परिष्कार आनंद की उपलब्धि में बाधक नहीं होते. अपने समय की कविता के बारे में डॉ.नगेन्द्र की धारणा है, “ छंद कविता नहीं है, यह मान्यता प्राय: आरंभ से ही रही है. आज इसका रूप उलट कर यह हो गया है कि कविता छंद नहीं है, अर्थात कविता के लिए छंद की आवश्यकता नहीं है, बिम्ब मात्र कविता के लिए पर्याप्त है. बात यहीं रुक जाती तब भी ठीक था पर वह तो और आगे बढ़ गई है. कविता अर्थ भी नहीं है, कविता, कविता भी नहीं है—- कविता अकविता है. ये सब आस्थाहीन चिन्तन के चमत्कार हैं जो बाल मनोवृत्ति के लोगों को ही आकृष्ट कर सकते हैं.”( आलोचक की आस्था, पृष्ठ-15)

डॉ. नगेन्द्र ने अपनी प्रथम आलोचनात्मक कृति ‘सुमित्रानंदन पंत’ के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी आलोचना जगत में अपनी खास पहचान बना ली थी. इस पुस्तक की सराहना आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी की थी. उन्होंने लिखा, ”काव्य की छायावाद कही जाने वाली शाखा चले काफी दिन हुए, पर ऐसी कोई समीक्षा-पुस्तक देखने में न आई जिसमें उक्त शाखा की रचना-प्रक्रिया ( TechniQue ) प्रसार की भिन्न-भिन्न भूमियाँ सोच समझकर निर्दिष्ट की गई हों. केवल प्रो. नगेन्द्र की ‘सुमित्रानंदन पंत’ पुस्तक ही ठिकाने की मिली है.” ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-564)

 नगेन्द्र जी की यह कृति उनकी व्यावहारिक आलोचना का पहला उदाहरण है. इसमें उन्होंने सबसे पहले छायावाद के महत्व और उसकी सीमा का निर्धारण किया है. इसके बाद पन्त जी के भाव जगत और उनकी विचारधारा तथा उनकी काव्य कला का अनुशीलन किया है. इस कृति के उत्तरार्ध में- जो बाद में जोड़ा गया है, उन्होंने पन्त जी की परवर्ती कृतियों की समीक्षा भी की है. छायावाद को उन्होंने ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ कहकर सबका ध्यान आकृष्ट किया था. ( द्रष्टव्य, सुमित्रानंदन पंत, पृष्ठ-2) इतना ही नहीं, इस विद्रोह को भी उन्होंने बहुत व्यापक आधार दिया.  इसे वे उपयोगिता के विरुद्ध भावुकता का विद्रोह, काव्य के बंधनों के विरुद्ध स्वच्छंद कल्पना का विद्रोह और आभिजात्य काव्य परंपरा के विरुद्ध  रोमानी काव्य संवेदना के रूप में विश्लेषित किया है. इसी तरह उन्होंने प्रगतिवाद को सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विद्रोह कहा. उन्होंने लिखा है, “स्थूल ने एक बार फिर सूक्ष्म के विरुद्ध विद्रोह किया. यह प्रतिक्रिया दो रूपों में व्यक्त हुई – एक तो छायावाद की पलायन वृत्ति के विरुद्ध, दूसरी उसकी अमूर्त -उपासना के विरुद्ध …… इन्हीं दोनों प्रवृत्तियों का सम्मिलित रूप आज प्रगतिवाद के नाम से पुकारा जाता है.”  ( उपर्युक्त, पृष्ठ-132)

डॉ. नगेन्द्र ने पन्त के अलावा आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रवीन्द्रनाथ टैगोर, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, हाली, राहुल सांकृत्यायन, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, महादेवी वर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त, दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर आदि की अनेक कृतियों की व्यावहारिक समीक्षाएं की हैं. उनकी समीक्षा प्रामाणिक, विश्वसनीय और पूर्वाग्रह रहित हैं.

फिलहाल, एक ओर उन्होंने हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों, सिद्धांतो, वादों, रचनाकारों और उनकी महत्वपूर्ण कृतियों पर आलोचनात्मक निबंध लिखे तो दूसरी ओर ‘रीति काव्य की भूमिका’ तथा ‘देव और उनकी कविता’ लिखकर रीतिकालीन साहित्य के मूल्यांकन का भी सफल प्रयास किया. इसके अलावा उनके आलोचना कर्म का महत्वपूर्ण पक्ष उनका ‘रस सिद्धांत’ नामक ग्रंथ है जो उनकी अनुसंधानपरक आलोचना का उत्कृष्ट उदाहरण है. ऐसी दशा में डॉ. नगेन्द्र को किसी खास आलोचना की कोटि में रखना कठिन है. रस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या करके उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में आस्था व्यक्त की है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रभाव को सहर्ष स्वीकार किया है. डॉ. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में रस को यह व्याप्ति देकर डॉ. नगेन्द्र ने उसे प्राचीन एवं नवीन, भारतीय एवं पाश्चात्य, सभी काव्य-कृतियों के मूल्यांकन की शक्ति प्रदान कर दी है. ( हिन्दी का गद्य साहित्य, पृष्ठ-1076)

 रस सिद्धांत के अलावा नाटक पर भी उनकी आलोचनात्मक पुस्तक है, मिथक पर भी और शैली विज्ञान पर भी. निश्चित रूप ने डॉ. नगेन्द्र की आलोचना का दायरा बहुत विस्तृत है. डॉ. रामचंद्र तिवारी का भी निष्कर्ष है, “डॉ. नगेन्द्र ने प्राय: सभी आधुनिक काव्य-प्रवृत्तियों का भी विश्लेषण किया है. ये विश्लेषण बहुत कुछ प्रमाण रूप में स्वीकृत हो चुके हैं. अत: सिद्धांत- निरूपण और आलोच्य कृतियों की व्याख्या एवं विवेचना दोनो ही दृष्टियों से डॉ. नगेन्द्र का कृतित्व विशेष गौरव का अधिकारी है. वस्तुत: आचार्य शुक्ल के बाद उनकी परंपरा को समग्र रूप में परिष्कृत और विकसित करने वाले आलोचकों में डॉ, नगेन्द्र का योगदान अन्यतम है.” ( हिन्दी का गद्य साहित्य, पृष्ठ-1080)

डॉ नगेन्द्र ने अपने स्फुट निबंधों में प्राय: उन्हीं कवियों की समीक्षा की है जो गाँधीवाद से प्रभावित हैं. सुमित्रानंदन पंत, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, गिरिजाकुमार माथुर आदि की समीक्षाएं इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं.

इसी तरह अपनी पुस्तक ‘साकेत : एक अध्ययन’ में साकेत के सांस्कृतिक आधार का विवेचन करते हुए उन्होंने धार्मिक, सामाजिक –राजनीतिक आदर्श तथा भौतिक जीवन के साथ ही गाँधीवाद के प्रभाव की चर्चा की है. डॉ. नगेन्द्र के इस अध्ययन पर विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणी है, “साकेत के मार्मिक स्थलों की भावपूर्ण व्याख्या इस पुस्तक में अत्यंत समर्थ रूप में की गई है इसमे कोई संदेह नहीं. ‘साकेत में विरह’, ‘साकेत के भावपूर्ण स्थल’ और ‘साकेत का सांस्कृतिक आधार’ इस आलोचना -पुस्तक के मुख्य अंश हैं जो डॉ. नगेन्द्र की रस-ग्राहिणी शक्ति का परिचय देते हैं. ‘साकेत का सांस्कृतिक आधार’ अध्ययन के अंतर्गत कवि के काव्य पर गाँधीवाद का प्रभाव भी दिखाया है और इस प्रकार साकेत में युग भावनाओं की अभिव्यक्ति को भी दिलाने की ओर ध्यान दिया है. गाँधी-युग का प्रभाव उर्मिला के विरह वर्णन पर भी पड़ा है. उर्मिला का विरह सूरदास की गोपियों के विरह से भिन्न है. उर्मिला अन्य प्रोषितपतिकाओं से भी सहानुभूति रखती है. यह सहानुभूति -अर्थात् अपने दुख के साथ- साथ दूसरों के दुखों का भी ध्यान रखना गाँधीवादी विचारों का प्रभाव है…….. इसी प्रकार कैकेयी के चरित्र का जो उज्जवलीकरण ( white washing) की गयी है, उसपर गाँधी जी के ‘पाप से घृणा करो किन्तु पापी से प्रेम’ सिद्धांत वाक्य का प्रभाव दिखाई पड़ता है. ( हिन्दी आलोचना, पृष्ठ-162)

इन्हीं कारणों से डॉ. नगेन्द्र को भी गाँधीवादी आलोचकों की श्रेणी में शामिल करना मुझे न्यायसंगत लगता है.  

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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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