7 अप्रैल 2016 को कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में ‘देस हरियाणा’ पत्रिका के तत्वाधान में ‘अपने लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम हुआ, जिसमें ‘आजादी मेरा ब्रांड’ की लेखिका अनुराधा बेनीवाल ने भाग लिया। इस अवसर पर उन्होंने अपने अनुभव सांझा किए तथा उपस्थित लोगों के सवालों पर अपना दृष्टिकोण रखा। इस अवसर पर लगभग 180 लोग मौजूद थे, जिसमें लेखक शोधार्थी व विद्यार्थी शामिल थे। यह संवाद बहुत ही जीवंत था, जिसमें समाज, संस्कृति, लेखन व लेखकीय दायित्व से जुड़े ज्वलंत सवाल उठे। बड़ी ईमानदारी और बेबाकी से अनुराधा बेनीवाल ने उत्तर दिए। इस अवसर पर अनुराधा के माता-पिता भी मौजूद थे तथा उनके पिता श्री कृष्ण बेनीवाल ने भी अनुभव प्रस्तुत किए। इस कार्यक्रम की पूरी कार्रवाई पाठकों के लिए प्रकाशित है। सं.
मुझे अपना परिचय देने ज्यादा नहीं आते। लेकिन जब माईक हाथ में होता है तो जो मन में आता है तो बोल देती हूं।कालेज के दिनों में सोचते थे कि कैसे एंडी लोग होते हैं जो माईक पर बोलते हैं। लेकिन अब माइक पर बोलते हैं तो उसकी जिम्मेवारी भी समझ में आती है कि लोग आपको सुन रहे हैं। इसलिए ईमानदारी से बोलें, जो आपको सच लग रहा है वो बोलें।
मैं आपके साथ अपनी यात्रा साझा करूंगी। मैं महम खेड़ी में पैदा हुई। मेरे पापा महम कालेज में लैक्चरार थे। एक बार पापा जब कालेज से घर आए तो मैं गली में खड़ी गालियां बक रही थी। तो मेरे पापा ने सोचा कि अब गांव में रहना उचित नहीं। और हम महम शिफ्ट हो गए।
मेरे परिवार में कुश्ती करने वाले लोग थे। मेरे पापा को था कि छोरी नै कुश्ती, बाक्सिंग करांवागे। उन दिनों कुश्ती का घणा था बाक्सिंग नहीं।
मैं घणी ठाडी थी नहीं कमजोर सी थी। हमनै भिवानी शिफ्ट किया तो म्हारा घर भीम कालेज के पास ही था। औरों के पापा बच्चों को स्कूल में छोड़ कै आते, लेकिन मेरे पापा मुझे स्टेडियम में छोड़ कै आते। बोलते दौड़ लगाओ यहां पे, मेरी क्लास है। दस चक्कर ला के पाणी पीणा है। मैं एक दो चक्कर ला कै सिर पै पाणी-पुणी गैर कै कहती कि ला लिए चक्कर। इससे स्कूल का पत्ता कटग्या। स्कूल नहीं जाएगी, इस स्टेडियम में से खेल चुण ले कोई।
मेरे को ज्यादा खेल समझ नहीं आया। फुटबाल खेला, बालीवाल खेला, जिमनास्टिक किया पर कुछ बात जमी सी नहीं।
एक दिन घर में पापा के दोस्त आ रहे थे, वो घर में चैस लिया आए। यो कै है भाई। सांप सीढ़ी है, लूढो है। चैस की तो सुणी नहीं। फिर उन्होंने कहा कि ये खेल है। इसमें टूर्नामेंट भी होती हैं, स्टेट लेवल की, नेशनल लेवल की और इंटर नेशनल लेवल की। और इसमें नौकरी-नुकरी भी मिल जाती है। मैने पकड़ लिया। यो बढिय़ा खेल है, सौड़ में बैठे बैठे खेले जाओ। कितियां आण-जाण की जरूरत नहीं। भाजण की जरूरत नहीं। वो जम गया। मैं सात साल की थी जब चैस सीखा।
जिले में न्यूएं चैम्पियन बणगी कि कोई सात साल का खेलणियां थाए नीं। अंडर सेवन चैम्पियन बणगी।
लड़कियों में तो थी ही नहीं, मैं लड़कों में खेला करती। अंडर सेवन से लेकर हमेशा लड़कों में ही खेला। कभी सेंकड भी नहीं आई। हमेशा नं. वन थी। बहुत बढिय़ा कम्पीटिशन मिला। सौ से ज्यादा टूर्नामेंट खेली।
टूर्नामेंट दूर दूर होते। बंगलौर, गोवा। इससे घर बाहर निकलने का यात्रा का मौका मिला। एक नया सिलसिला शुरू हो गया। एक न्यारी सी छूट मिलगी, जो खिलाडिय़ों को मिलती है। कोई कुछ कहता कि तेरी छोरी तो सारी हाण बाहरे रवै, या न्यूं कपड़े पहरै, तो एक जबाब मिलग्या अक वो खेल्या करै। ये अच्छी बात हुई कि समाज के प्रश्न जैसे तुम्हारी लड़की के कितने नं. आए, क्या कर रही है, कहां जा रही है, ब्याह की हो रही है। इसके लिए मैं खेल और अपने मम्मी-पापा की धन्यवादी हूं।
खेल ने मुझे बाहर निकाला। वहां से फिर घूमने-फिरने का सिलसिला शुरु हो गया। मैं अकेली घूमने लगी। ये तो मेरी कहाणी रही। मैं खेली।
यात्रा तो हमेशा ही करती रही। खिलाड़ी है, सारा भारत घूम रही है, कभी मद्रास में, कभी बंगलोर, बम्बई, कभी गोवा में होते थे। लेकिन ये यात्रा का एक मकसद होता था, वो भी एक काम सा ही था।
हमारे समाज में छोरियों का बिना काम हांडणा वैसे भी अच्छा नहीं माना जाता। छौरे तो कहदें हैं कि मैं हांड कै आऊं। छोरी हांडण की कहदें तो सोच्या जावै कि किमें बात होगी। बिना काम के छोरी नी जाया करदी।
लेकिन मुझे बिना ऐसे घूमना अच्छा लगता था। मेरे पापा जब गोहाना कालेज में पढ़ाते थे तो मैं उनका स्कूटर उठा कर गोहाना की गलियों में घूमती रहती। बेमतलब, इस काम बहुत ही आंनद आता।
बेमतलब घूमने का चस्का लग गया था। जब मैं पूना में थी और नौकरी कर रही थी। नौकरी की रूटिन ले नीरसता आने लगी। मेरा एक ब्वाय फ्रेंड था, उससे भी परेशान हो गई कि घर बसाने की बात नहीं करता। नौकरी अच्छी थी, हम खेल के लिए खिलाडिय़ों को तैयार करते थे। लेकिन मुझे मजा नहीं आ रहा था।
फिर वो ‘जिंदगी मिलेगी ना दोबारा’ देख ली और वहां निकलने का मन किया। मैने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने स्वीकार नहीं किया, लेकिन मुझे एक महीने की छुट्टी दे दी।
मैंने अपना बैग पैक किया। पूना अहमदाबाद बस में बैठ ली। रात का सफर था। वहां से जोधपुर आ गई। मैं पहली बार ऐसी यात्रा कर रही थी जिसका कोई मकसद नहीं था। सोचा था कि 500 से 800 तक का होटल मिल जाएगा। जैसलमेर में बहुत सी लड़कियां मिलीं बैक-पैकर्स कोई जापान से, आस्ट्रिया से, जर्मनी से। उनका कोई मकसद भी नहीं था और घणी अमीर भी नहीं थी। हम तो सोचते हैं कि घूमना तो एक लक्जरी माना जाता है, सोचते हैं कि मंहगा होगा घूमना तो। अपने यहां घूमने की संस्कृति नहीं है। मैने कोई लड़की यूरोप में नहीं देखी कोई लड़के भी इस तरह नहीं देखे।
मैं उनसे मिली तो मुझे पता चला कि घूमना मंहगा नहीं होता। मैं ब्राजील की हिप्पी से मिली। ये कोई अमीर नहीं थे, कोई रिपेस्निस्ट कोई टीचर, कोई डाक्टर, कोई कुछ भी नहीं। इससे मुझे विश्वास हो गया कि घूमना मंहगा नहीं है। इस ब्राजील की हिप्पी ने सौ रूपए में कमरा ले रखा था। मुझे पता चला कि सौ रूपए में भी कमरा मिलता है। ये तो भाषा भी नहीं जानते, तब भी सस्ते में रहते हैं।
जर्मनी की एक लड़की थी मार्लूस। छ फुट लम्बी और बहुत ही निडर। रेगिस्तान उसको बहुत पसंद था, वो ऊंट वालों के साथ रेगिस्तान में निकल जाती। मैंने उससे पूछा कि तेरे के डर नहीं लगता तो उसने बहुत ही दिलचस्प बात बताई। उसकी मां ने उसे एक सलाह देकर भेजा था, जैसे मांए सलाह देती हैं। कि बेटा तू इंडिया जाणए लागरी है। अगर रेप हो जाए ना तो ये सावधानियां हैं। प्रेग्नेंसी से बचाव के लिए ये दवाएं हैं। मैं बड़ी हैरान कि ये कैसी सलाह है म्हारी मां को जरा सी छेडख़ानी का भी शक हो तो घर से ही बाहर ना निकलण दे। यदि ड्राइविंग करते हुए दुर्घटना हो जाए तो क्या हम ड्राईविंग छोड़ देते हैं। रेप एक दुर्घटना है। ये दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन है तो एक्सीडेंट ही। दुर्घटना के डर से हम बाहर निकलना तो बंद नहीं करते। ऐसा करने से तो और असुरक्षित हो जायेंगी। बस अड्डे पर बीस लड़कियां हों तो अलग विश्वास है और यदि एक लड़की हो तो और डर हो जायेगा। चाहे कितने ही अन्य इंतजाम कर लें कैमरे आदि लगाकर, लेकिन सुरक्षा तो हमें खुद ही करनी है। दुनिया सुरक्षित है बाहर निकलेंगे तो घर बैठकर तो उसे बिगाड़ ही रहे हैं।
जो मैं खोजने निकली थी कि मेरी खुशी क्या है। मैं जैसलमेर से कुलधरा साईकिल से जा रही थी। मेरे साथ दो लड़कियां थी। उनकी बाईक पेेंचर हो गया। मैं जाने लग रही थी। उस समय खुश थी। वहां कुछ ऐसा खास नहीं था, लेकिन मैं खुश थी। वो खुशी मेरी थी। अपनी खुशी खुद ही ढूंढनी पड़ती है। जर्मन लड़की ने वाक्य बताया था वो आपको बताती हूं। ‘मेरा दिल नाच रहा है।’ मैंने उस समय महसूस किया कि मुझे तो यही करना है। मुझे इसमें खुशी मिलती है। सबको अलग अलग कार्यों में खुशी मिलती है। अपनी खुशी को ढूंढना महत्वपूर्ण है
वहां से मैने हिंदी भाषा में व्यवहार करने का निश्चय किया। वहां से मैने एक बात सीखी कि सभी अपनी अपनी भाषा में बात करते थे, ब्लाग भी अपनी भाषा में लिखते, वीडियो भी अपनी भाषा में बनाते। लेकिन मैं डरी-डरी सी रहती। अंग्रेजी से हमेशा डर सा ही लगता है। गलती होने का डर हमेशा बना रहता है। मैने जब इनको देखा कि ये सभी अपनी अपनी भाषा में लिख रहे हैं तो मैं अपनी भाषा में क्यों नहीं लिख सकती। मेरी हिंदी कोई बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन हरियाणवी में बिल्कुल डर नहीं लगता। अपनी भाषा अपनी संस्कृति ही मेरी शक्ति है। जैसलमेर, जोधपुर, अजमेर, बूंदी सब घूमा, और एक महीना खत्म हो गया।
मैं वापस गई और हमने शादी कर ली। आज भी अकेली यात्रा करती हूं। इग्लैंड चले गए। सोचा इंग्लैंड घूमेंगे, यूरोप घूमेंगे। लेकिन वहां महंगाई बहुत थी, वहां एक साल तक मेहनत की और कुछ पैसे जमा किए, जिसे मैंने इस किताब में लिखा है। ‘आजादी मेरा ब्रांड’ किताब मेरा अनुभव है कि मैं कहां कहां घूमी और कैसे कैसे। इसी पर ये आधारित है।
मैं दस शहरों में गई। लंदन से शुरु किया, मैं पेरिस, ब्रस्सल्स, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, इंसब्रुक, बर्न और वहां से वापस।
इस यात्रा को हिंदी में लिखना आसान भी था। दूसरा ये भी था कि मेरी बुआ भी पढ़े। वे छोरी भी पढ़ें जिनको इंग्लिश की किताबों से अभी तक वास्ता पड़ा नहीं, जिनके पास ब्लाग तक पहुंच नहीं है। मेरी बुआ, मौसी को बेरा ना पाट्या कि मैं कैसे घूमी तो मुझे कुछ मजा नहीं आना था।
रेखांकित करने योग्य है कि मैने ये यात्रा एक लाख से कम रूपयों में की। यूरोप का हव्वा है कि वो बहुत ही महंगा है। यात्रा में बहुत ही ज्यादा खर्च होता है इस मिथ को तोड़ने का भी इसके पीछे विचार रहा। मध्यवर्गीय परिवार भी घूमने की सोच सकता है।
लोग कहते हैं कि मेरे मां-बाप, मेरा पति आजादी नहीं देता। आजादी लेने देने की चीज नहीं है। यदि वो आजादी दे सकते हैं तो वापस भी ले सकते हैं। आजादी खुद अर्जित करनी पड़ती है, इसके लिए बहुत ही मेहनत करनी पड़ती है। इसका फल बहुत ही मीठा होता है। छोटी छोटी बातों में आजादी।
आजादी बड़ी अनोखी-सी चिडिय़ा है, यह है तो आपकी, लेकिन समय-समय पर इसको दाना डालना होता है। अगर आपने दाना उधार लिया तो चिडिय़ा भी उधार की हो जाती है। आत्मनिर्भरता के दाने पर पलती है यह, और इसे किसी महंगे या ख़ास दाने की ज़रूरत भी नहीं होती। बस अपना हो, अपने ख़ुद के पसीने से कमाया हुआ कैसा भी दाना। उसी में मस्त रहती है।
जैसे हम कहते हैं कि लड़कियों को आजादी नहीं देता कोई। उनको कोई आजादी दे नहीं सकता। जो देगा, वो वापस भी ले लेगा। लड़कियों को आजादी कमानी पड़ेगी। उसमें मेहनत लगती है। लड़के बहुत मेहनत करते हैं, क्योंकि ब्याह नहीं होता बिना मेहनत करे। नौकरी इसलिए लगते हैं कि ब्याह हो जाएगा।
लड़कियों को ये निर्णय लेना पड़ेगा कि बिना नौकरी के शादी नहीं करेंगें। पहले बाप की गुलामी करी, अच्छा बाप मिलना संयोग की बात है। है वो गुलामी चाहे राजा की कर लो। फिर पति पर निर्भर हो गए, फिर बेटे पर। हमेशा दूसरों की तरफ ताकना।
मैं इससे पहले बात सुनाती हूं। मान लो गांव में किसी के यहां शादी हो और टेंट लगाने की जगह चाहिए, कि मेहमान जीमण आयेंगे। जहां टेंट लगाणा हो वहां कुरड़ी हो। कुरड़ी ठाण में तो समय लग जायेगा, इसका अनुमान भी नहीं कि कितनी गहरी हो। इसलिए इसको जे सी बी मशीन लगाकर बराबर कर दो। पहले दरी बिछा देंगे, फिर बढिय़ा कारपेट बिछा देंगे, किसी को पता नहीं चलेगा, बदबू रोकने के लिए कुछ छिड़क देंगे। आयोजन शुरु हो गया और लोग खाने लगे।
कोई आकर कहने लगा कि यहां तो बदबू आ रही है। सभी उसको लताड़ने लगे कि बदबू नहीं है। यदि है तो उसकी तरफ देखकर मिठाई खाओ। नकारात्मक सोच वाला घोषित कर देंगे। इस कुरड़ी का, बदबू को ढकने का नुक्सान यही है कि उस पर रखी हुई मिठाई भी सड़ने लगती हैं। जो आदमी कुरड़ी और बदबू की ओर संकेत कर रहा है वह देश द्रोही नहीं हो जाता।
मेरी बुआ है गुड्डी बुआ है। वो कभी हरियाणा से बाहर नहीं गई। वो सारा दिन आलोचना करती है। वह कहती है कि पहले तो सरकारी स्कूल ही ठीक होते थे। इन प्राईवेटां में तो पढ़ाई ना रही, निरे सिंगरण सिंगरण के होगे। ईखां की तो परची भी नहीं आ ली है। लामणी हो ली, इब मींह बरस जै गा तो कित धरांगे। या बाहर बाहर हांडै है घर तो कुछ करता भी नहीं। या भी नेता बणरया है अपणा। क्या वो हरियाणा की बदनामी कर रही है। वो तो दिक्कतों को दूर करना चाहती है।
मैं जर्मन संग्रहालय से संबंधित एक किस्सा पढूंगी, जो मुझे बहुत पसंद है और आज के दिन वो प्रासंगिक भी है।
‘अलेक्सेंडर प्लाट्स पर खूब भीड़ है और हर तरफ लोग फोटो खिंचवाते दिख रहे हैं। फ्री वाई-फाई भी है। यहां थोड़ी देर आराम किया जा सकता है। कुछ ठेले वाले खाने का सामान बेच रहे हैं। हॉट-डॉग इनका नेशनल डिश लगता है। तभी अल्बर्ट के घर में भी इतने सारे पैकेट्स रखे हैं और यहां भी जगह-जगह पर यही बिक रहा है। मैं अभी तक मीट खाने के लिए नहीं ललचाती हूं। खुशबू तो बेहद लुभावनी है, लेकिन में अपनी ब्रेड और चीज ही खाती हूं।
फिर बढ़ती हूं स्प्री की तरफ। आज किसी म्यूजियम में जाने की इच्छा नहीं होती। बाहर ही इतना कुछ देखने को है कि कहीं अंदर घुसने का मन नहीं करता। यह शहर बड़ा तो है और भीड़ वाला भी, लेकिन यहां गुम होना आसान है। गुम होने से मेरा मतलब है कि भीड़ में आप किसी को नहीं दिखेंगे और शहर भी देख लेंगे। यह आपको बिल्कुल छोटा-सा महसूस कराता है। मैं यों ही चलते-चलते एक ओपन म्यूजियम पहुंच जाती हूं। कोई टिकट नहीं है और भीड़ भी बहुत ज्यादा नहीं है। चलो, अब आ गई हूं तो यह देख लिया जाए।
यह था ‘टोपोग्राफी ऑफ टेरर’-यहां खुले बीहड़-से मैदान में लाईन से फोटो और पोस्टर लगे हैं। यह म्यूजियम देखने का कम और पढऩे का ज्यादा है। मैं तीन घंटे तब सब पढ़़ती रही। पहली बार में मुझे अपने ही पढ़े पर यकीन नहीं आता। फिर दुबारा पढ़ती हूं। यह जर्मनी ने अपने बारे में लिखा है? मैं जर्मनी में ही हूं न? और यह म्यूजियम इन्हीं की जमीन पर बना है? नहीं, नहीं। ये अपनी ही बुराई कैसे कर सकते हैं। सिर्फ बुराई ही नहीं, खुद को गालियां दे रहे हैं।
जर्मनों ने कितने यहूदियों को मारा? कितने डेथ कैंप लगाए? उन्होंने बच्चे-बूढ़े, यहां तक कि पूरे गांव-के-गांव खत्म कर दिए। यहूदियों को देश से बाहर निकाल दिया और दूसरे देशों में घुस कर उन्हेें मारा। यह सब बातें तो यहां दर्ज हैं ही, अपने ही देश के नाजी सैनिकों की फोटो लगाई है और उन्हें कसाइयों की उपाधि दी है। कैसे-कैसे , किस-किस ने यहूदियों की हत्याओं को अंजाम दिया-यहां सबका कच्चा चिट्ठा है। सिर्फ हिटलर को हत्यारा नहीं बताया गया है, उसके सैनिक और पूरा देश कैसे उन हत्याओं में शामिल हो गया, यह सब लिखा है यहां और कहीं लुका-छुपा के नहीं, पूरे उजाले में सबके सामने। बाकी सब म्यूजियम की एंट्री फीस है, इसकी तो वह भी नहीं है। सब आओ, सब जानो, सब सीखो।’
इंग्लैंड में आपने कैसा महसूस किया कि आपने आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई आगजनी व हिंसा पर वहां से प्रतिक्रिया की।
आपने पूछा कि कैसा लगा। मां से बात हुई तो उन्होंने बताया कि रास्ते रुक गए हैं। गांव आने का रास्ता भी नहीं है। फिर पापा ने भी कहा कि घणा नुक्सान हो गया। महम का भी नुक्सान हो गया। मैं अपनी जड़ों से बहुत गहरे से जुड़ी हुई हूं। अपने शहर से कल्चर से। कल्चर का अर्थ काफी विकृत हो गया कि हम तो घूंघट करवायेंगे। कल्चर का मतलब हमारे गीत, खान-पान, सामूहिक तौर पर विचार-विमर्श करना ये हमारी कल्चर है। मेरे मन में था कि कुछ पैसा कमा कर रोहतक में स्कूल खोलना है। रोहतक का इतना विकास हो रहा था। वहां इतने अच्छे संस्थान हैं। इतना अच्छा काम कर रहे हैं। उससे थोड़े दिन पहले ही गई थी। मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरे मन मे था कि घरेलू महिलाओं के लिए स्कूल खोलेंगे। मेरी प्रेरणा तो मेरी बुआएं हैं। उनकी बातें जितनी सच्ची, दो टूक व सटीक हैं, कहीं की भी नहीं है। उनकी बेटियों की शादियां जल्दी होगी अब उनके लिए स्कूल खोलने की इच्छा थी। उस दिन पापा ने कही कि ये तो सारा खत्म हो गया। अब तू रहण दे अब ऊधर देख। इसने मुझे हिला दिया। मैं उस समय स्कूल में बैठी थी। वो वीडियो दो हिस्सों में हैं। पहले हिस्से में क्लास रूम में बैठी हूं। मैं भावुक सी हो गई, आंसू आ गए। स्टुडेंट आ गए। फिर मैं उठकर बाहर आ गई। उस समय तो सिर्फ इतना ही मकसद था कि तुम फूंको मतना।
आज हरियाणा इज्जत के लिए हत्याओं के लिए बदनाम है। आप इसे कैसे देखते हो। लड़कियों के लिए आप क्या कहैंगी। हरियाणा के समाज के लिए मैसेज हो सकता है।
लड़कियों को इज्जत के लिए मार दिया जाता है वो दिक्कत सिर्फ लड़कियों की नहीं है उनके परिवार वालों की नहीं, बल्कि काफी व्यापक है। जात-पात रहेगी तो कोई छोटी जात होगी, कोई बड़ी। मेरे ख्याल में ये जात-पात के कारण है। कोई समाधान मेरे पास तो है नहीं, लेकिन समस्या को पहचानना पड़ेगा। किसी को छोटी जात का कहणा छोडऩा पड़ेगा। इस पर बात शुरु हो जानी चाहिए। लोग बहुत गलत सोचते हैं कि मार के वो इज्जत वाले हो जायेंगे।
आपने जो लिखा बहुत ही बोल्ड लिखा है। लिखते वक्त आपको लगा कि इसको न लिखा जाए। सेंसर कर दिया जाए।
मैंने तो कुछ सेंसर नहीं किया। मैंने तो अपने जीवन को सेंसर नहीं किया। कल्चर को नए तरीके से परिभाषित करना पड़ेगा। कल्चर के नाम रूढिय़ों, कुप्रथाओं, महिला पर हिंसा, गंदे गानों को परोसना सही नहीं है। कल्चर कपड़ों में नहीं है, वो अलग चीज है। कल्चर और आजादी को साथ जोडऩा होगा वही हमारी ताकत है।
आपको क्या लगता है कि यदि आपकी जगह अगर दलित महिला होती तो उसे समाज में इतनी स्वीकार्यता मिलती।
मुश्किल है। दलित महिला के अहसास को शायद मैं नहीं समझ पाऊंगी। ये तो ऐसी ही बात हो गई कि एक आदमी एक औरत के बारे में लिखे। मैं दलित महिला का दर्द पूरी तरह नहीं समझ पाऊंगी। उसेअपनी पीड़ा अनुभव खुद ही लिखना पड़ेगा। चाहे मैं कितना उसकी समस्याओं के बारे में कह लूं, लेकिन मैं नहीं समझ पाऊंगी। मेरा रोहतक की एक गली मे चलने को आदमी नहीं समझ पाएगा। ऐसे ही मैं दलित महिला को नहीं समझ पाऊंगी। जाति तो कंलक ही है समाज पर वो तो खत्म हो जाए तो अच्छा है।
हमारे देश में दिन प्रतिदिन पुरुषों की छवि खराब हो रही है। यहां भी बेटियों की बात हो रही है। कुछ पुरुषों की करतूतों का ठीकरा समस्त पुरुष जाति पर फोड़ दिया जाता है।
ये सवाल बहुत पूछा जाता है कि हमारी पुरुषों की छवि बहुत खराब हो रही है। और यही जाति पर बोलते हैं कि कुछ लोगों ने किया है हम बदनाम हो गए। पूरा देश भी यही बोलता है कि क्यों असहिष्णु बोल दिया।
सीधी सी बात है जी लंदन चले गए अमेरिका गए। वहां इतनी साफ सफाई सड़कों की चाहे जीभ से चाट लो। आप हरियाणा में आए फिर वही कुरड़ी, गोसे.. कुछ दिक्कत तो होती होगी।
जो अपनी संस्कृति से जुड़ा हो उसको नहीं होती। मैने तो निरा गोबर बटोळा (इकट्ठा करना) है। लड़कियां गोबर इकट्ठा करती हैं जैसे पैर लगा देती हैं कि ये म्हारा चौथ हो गया। फिर छोटी छोटी बैठकर रेल सी बणाई और उसमें कंकर छुपा कर उसको काट देती। अनुमान लगाना होता था कि किस ढेरी में कंकर है। जिसमें निकलता सारा गोबर उसका हो जाता। जिसनै वो कर रखा हो उसको बांस (बदबू) नहीं आती। उसको भुण्डा (भद्दा) नहीं लगता। अगर ये सवाल था कि मुझे कैसा लगता है तो मुझे बुरा नहीं लगता।
आपने अपने जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान विडियो में पाकिस्तान में आग ना लगाई बोला इसके बारे में…
मेरे बहुत से पाकिस्तानी दोस्तों ने देखा, मेरे तो बहुत से पाकिस्तानी दोस्त हैं इंगलैंड में। और उन्होंने कहा कि बहुत सही बोला। पाकिस्तान को तथाकथित दुश्मन माना जाता है। वो जुमला सा था। मेरे कहने का यह भाव नहीं था कि तुम पाकिस्तान को जला दो। यही उभारना था कि तुमने अपना ही घर जलाया है। यदि मैं किसी दूसरे देश का नाम लेती तो शायद उसका घणा सा प्रभाव नहीं होता।
औरत आजाद नहीं है और आदमी आजाद है। इसका कारण उसका जमीन में हिस्सा ना होना है। आदमी के पास जमीन है औऱत के पास नहीं।
लड़की को तीळ (कपड़े), टूम की जरूरत नहीं है उसको अपनी संपति में हक की जरूरत है।
जमीन लड़की को मिलेगी या पति को। अभी तो पति सरपंच हैं। उसके नाम जमीन होगी लेकिन रहेगी तो उसके पति...
लड़की को मिलनी चाहिए। नाम होने से भी गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है। यदि पति पत्नी के बीच में झगड़ा हो जाए तो जमीन तो उसी के नाम है ना। धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं। समाज में परिवर्तन हो रहा है।
हरियाणा में माहौल खराब है, समाज में फूट पड़ रही है। यहां आप कुछ ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं। क्या आप हरियाणा में कुछ सामाजिक काम करने की सोचते हैं।
अभी तो मैं आर्थिक स्वतंत्रता के लिए काम कर रही हूं। लोग बहुत पूछ रहे हैं कि मुझे किस पार्टी की टिकट मिल गई। मुझे पहले अपने पैरों पर खड़ा होना है। लंदन में तो मैं अच्छी-अच्छी शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाती हूं। यहां तो मुझे आकर जेबीटी भी ना लगाए। सामाजिक कार्य भी जरूर करूंगी, लेकिन अभी कुछ विशेष सोचा नहीं।
मैंने आपकी किताब पढ़ी। पढ़कर मैने लड़की को दे दी। पढ़कर उसने दो सवाल करे कि या तो अनुराधा झूठ बोले है उसके साथ कोई घटना ना घटी हो, मां-बाप ने डांटा ना हो, या बटेऊ (पति) के साथ रौळा (झगड़ा) ना हुआ हो। या अनुराधा है लाखां में एक किस्मत वाली छोरी है। इसके बारे में
दूसरा जबाब। दिक्कतें तो होती हैं, यात्रा में लेकिन ऐसी नहीं कि बहुत बड़ी हों। ट्रेन छूटगी, बारिस आ गई। इस तरह की तो होती हैं। हां, कह सकते हो कि मैं किस्मत वाली हूं।
आपके अनुसार देश-द्रोह क्या है?
मेरे ख्याल में देश-द्रोह है कुरड़ी पर दरी ढकना।
बालीवुड एक्टर धर्मेन्द्र ने कहा मैं जाट आरक्षण के खिलाफ हूं। क्या जाट जाति को आरक्षण की मांग करनी चाहिए। आप अपना पक्ष कैसे देखते हो।
मेरे को कभी सिर्फ जाट होने के नाते कोई भर्त्सना नहीं मिली। केवल जाट होने के नाते मुझे कभी अपमानित या नीचा नहीं देखना पड़ा। मुझे तो कभी जरूरत महसूस नहीं हुई। हो सकता है किसी को इसकी जरूरत महसूस होती हो। रही बात गरीब की फिर गरीब तो हर जात में हैं। सदभावना मंच पर भी मैने कहा था कि आरक्षण के बजाए सबको ही रोजगार मिलना चाहिए।
पिछले दस बारह साल से हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उग्रता की प्रवृति बढ़ी है। गीतों में हथियारों का महिमामंडन हो रहा है। ये पिछले 15 साल से चल रहा है। आरक्षण व स्त्री-पुरुष के मामले में भी उग्रता बढ़ी है। आप इसे कैसे देखते हो।
ये आपका शानदार आब्जर्वेशन है।
आप जिक्र करते हो कि जड़ों से जुड़े हुए हो। आप बार बार सांघी गांव का जिक्र करते हो।
सांघी में ही रहते हैं हम। सांघी के खेतों में घर बना रखा है हमने।
अनुराधा जी आप किसी रात को सड़क पर थी। कुछ लोग थे वो भी गायब हो गए। आपको बिल्कुल डर नहीं लगा। मैंने हरियाणा घूमा। रोहतक के पास के गांव में एक लड़की होने के नाते मुझे पहली बार बहुत डर लगा था। हरियाणा में बेकाम और बेटेम घूमने की सोचें तो गुंजाइश बन सकती है क्या।
मेरी किताब में बार बार आता है कि रोहतक में भी ये किया जा सकता है। क्या? वो चीज की तलाश है। किताब का सार ही है कि जहां ना भाषा का ज्ञान, ना कानून का ज्ञान, लोगां नै भी नहीं जाणती वहां मैं निडर घूम रही हूं। अर अपणे देश में जहां मैं भाषा जाणूं, लोगां नै जाणूं वहां नहीं घूम पा रही। वो क्या चीज है। वो चीज तो नहीं पाई मुझको।
असल में यहां के संदर्भ से हटकर बात है, लेकिन मैं कहना चाहती हूं कि विपरीत सेक्स में संवाद की जरूरत है। जो लड़का लड़की को छेड़ रहा है। उनको यही नहीं पता कि क्या कर रहे हैं। असल में उसकी प्रेरणा व सामाजीकरण में कमी है। वह फिल्मों व घटिया कहानियों से सीखता है, जिसमें बार बार दर्शाया जाता है कि लड़का बार बार लड़की को छेड़ता है और अन्त में वह पट जाती है। गर्ल फ्रेंड या ब्वाय फ्रेंड बनाने का जी तो सबका करता है, और यदि जी नहीं करता तो कुछ गड़बड़ है। लेकिन वे एक दूसरे की भावनाओं को नहीं समझते, कैसे बात करें, ये नहीं पता। विपरीत सेक्स के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने की जरूरत है। लड़कियां व लड़के सीखें कि कैसे बात करें। संवाद हीनता दूर करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी चाहिए कि लड़के-लड़कियों को बात करते देख भड़कें नहीं, उनसे नैतिक पुलिस का व्यवहार न करके उनको परस्पर समझने के मौके हों।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा( मई-जून 2016) पेज- 47 से 52