सांचि कहौं तो मारन धावै – डा. सुभाष चंद्र

आलेख


कबीर दास मध्यकालीन भारत के प्रसिद्घ संत हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया तथा ब्राह्मणवादी धार्मिक आडम्बरों की आलोचना की। इनकी प्रसिद्घ रचनाएं ‘बीजक’ में संकलित ‘साखी’, ‘सबद’, और ‘रमैनी’ हैं।

 कबीरदास के जन्म के बारे में समाज में कई तरह की बातें प्रचलित हैं। माना जाता है कि कबीरदास एक विधवा ब्राह्मणी के घर पैदा हुए, जिसने लोकलाज के डर से उसे तालाब के किनारे छोड़ दिया वहां से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने उसका पालन-पोषण किया। इस लोक प्रचलित मान्यता से लगता है कि कबीर का जीवन सांस्कृतिक एकता का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसके अनुसार उनका जन्म एक ब्राह्मणी के यहां हुआ और उनका लालन पालन मुसलमान परिवार में हुआ, इस तरह कबीर दोनों की परम्पराएं लिए हुए थे।

कबीर की कविता और उनका जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल है। कबीर अपने विचारों में क्रांतिकारी रहे, उन्होंनेेेेेे अपना यह स्वभाव मरते समय भी नहीं छोड़ा। कबीर दास का अपना कहना है कि वे बनारस में पैदा हुए और मगहर में उनकी मृत्यु हुई।

”सकल जन्म शिवपुरी गंवाया,  मरती बेर मगहर उठ धाया।’’

इसमें महत्त्व की बात यह है जिस तरह कबीरदास मनुष्यों के बीच कोई भेद स्वीकार नहीं करते थे उसी प्रकार वे शहरों और जगहों की ऊंच नीच को भी स्वीकार नहीं करते थे। हिन्दुओं में मान्यता है कि बनारस में मरने वाले को मुक्ति मिलती है और मगहर में मरने वाले को फिर से गधे का जन्म मिलता है। इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए ही कबीर ने बनारस शहर छोड़़ दिया और हेय समझे जाने वाले शहर मगहर में आकर बस गए।

क्या काशी क्या ऊसर मगहर,
राम हृदय बस मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा,
रामै कौन निहोरा।।

अर्थात काशी हो या उजाड़ मगहर, मेरे लिए दोनों बराबर हैं, क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हुए हैं। अगर कबीर की आत्मा काशी में तन को तजकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा अहसान है? इसलिए कबीर जो जन्म भर काशी में रहे और बादशाहों की व पण्डों व मुल्लाओं की संकीर्णता औैर नफरत काशी से बाहर नहीं निकाल सकी मरने से पहले अपनी इच्छा से मगहर वासी हो गए।

कबीर की मृत्यु के बारे में जो किंवदन्ती है, वह कबीर के प्रति सच्ची श्रद्घांजलि है। कहा जाता है कि कबीर की मृत्यु पर हिन्दुओं और मुसलमानों में विवाद हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनके शरीर को जलायेंगे तो मुसलमान कहते थे कि उनको दफनाया जाएगा। कहा जाता है कि इस का निबटारा इस तरह हुआ कि कबीर का शरीर फूलों के ढेर में बदल गया जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ने बराबर बराबर बांट लिया। इस तरह दोनों के रिवाज भी पूरे हो गए ओर उनका झगड़ा भी मिट गया और मरने के बाद भी कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की परम्परा बनाई। अब मगहर में इमली के पेड़ के नीचे कबीर की समाधि है, बनारस में मठ है जो कबीर चौरा के नाम से मशहूर है।

कबीर समाज के निम्न वर्ग से ताल्लुक रखते थे, उनकी कविता का न सिर्फ कथ्य निम्न वर्ग के पक्ष में था, बल्कि उसका रूप भी नवीन था। परम्परागत तौर पर मान्य काव्यशास्त्र के सिद्घांतों को उनकी कविता चुनौती देती थी, इसलिए उनकी कविता के कवित्व का अध्ययन नहीं हुआ और उनकी कविता को ‘भक्ति साधना’ का ‘बाई प्रोडक्ट’ मान लिया गया।

कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मोंं को मिलाने के लिए प्रयास किए। दोनों के भेद मिटाने के लिए उन्होंनेेेेेे दोनों धर्मों की बुराइयों को दूर करने की कोशिश की। दोनों धर्मों के पाखण्डों का विरोध किया ओर दोनों धर्मों में व्याप्त आन्तरिक एकता को सामने रखा। कबीर के इस प्रयास के मध्यकालीन भारतीय समाज पर गहरे असर पड़े। उन्होंनेेेेेे अपने को किसी धर्म में बांधने से इन्कार कर दिया। अपनी पहचान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि विशुद्घ मानवीय बनाई।

हिन्दू कहो तो मैं नहीं,
मुसलमान भी नाही।
पांच तत्व का पूतला,
गैबी खेले माहीं।।

कबीरदास धर्म के बाहरी आडम्बरों और दिखावों से दूर हटकर धर्म के मर्म को पहचानते थे। वे बाहरी कर्मकाण्डों को छोड़़कर धर्म की शिक्षाओं के पालन करने पर अधिक जोर देते थे। उनका कहना था कि सारी दुनिया पागल हो गई है। यदि सच्ची बात कहो तो मारने को दौड़ते हैं लेकिन झूठ पर सबका विश्वास है। हिन्दू राम का नाम लेता है और मुसलमान रहमान का और दोनों आपस में इस बात पर लड़ते मरते हैं, लेकिन सच्चाई से कोई भी परिचित नहीं है।

साधो, देखो जग बौराना।
सांची कहौ तो मारन धावै झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहै मोही राम पिआरा तुरक कहैं रहमाना ।
आपस में दोऊ लडि़ लडि़ मूये, मरम न कोऊ जाना।

कबीर का मानना है कि परमात्मा एक है, वह कण कण में व्याप्त है। सभी उसी ईश्वर के अंश हैं। जो इनमें भेद करते हैं वे झूठे हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। ईश्वर को दो मानना लोगों में भ्रम को फैलाना है। ईश्वर, अल्लाह एक  हैं। हिन्दू और मुसलमान के ईश्वर एक ही है। एक ही ईश्वर के अनेक नाम हैं। उसी को अल्लाह कहा जाता है, उसी को राम, वही केशव है वही करीम, वही हजरत है और वही हरि है। वह एक ही तत्व है,जिसके अलग अलग नाम रख लिए हैं और भ्रम पैदा कर दिया है। एक सोने से सब जेवर बनाए गए हैं, उनमें दो भाव कैसे हो सकते हैं। पूजा नमाज सब कहने सुनने की बातें हैं। वही महादेव हैं और वही मुहम्मद हैं। जो ब्रह्म है उसी को आदम कहना चाहिए। कोई हिन्दू कहलाता है कोई मुसलमान, लेकिन सब एक जमीन पर रहते हैं। एक वेद पढ़ता है और दूसरा खुतबा। एक मौलाना कहलाता है और दूसरा पण्डित। सब एक मिट्टी के बर्तन हेैं, सिर्फ नाम अलग अलग हैं।

भाई रे दुई जगदीश कहॉ ते आया, कहु कौने भरमाया।
अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि हजरत नाम धराया।
गहना एक कनक तें गढना, इनि मंह भाव न दूजा।
कहत सुनत को दुइं करि थापै, इक निमाज इक पूजा।।
वही महादेव वही महंमद, ब्रह्मा-आदम कहिये।
को हिन्दु को तुरुक कहावै, एक जिमी पर रहिये।।
बेद कितेब पढे वे कुतुबा, वे मौलाना वे पांडे।
बेगरि बेगरि नाम धराये, एक मटिया के भांडे।।

कबीर दास का मानना था कि परमात्मा को किसी मंदिर, मस्जिद में या किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। उसको प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के आडम्बर की जरूरत नहीं है। यदि कोई उसे प्राप्त करने का इच्छुक है तो वह जल्दी ही मिल जाता है। वह किसी कर्मकाण्ड से नहीं मिलता। वह सच्चे मन और शुद्घ आचरण से मिलता है।

मोकों कहां ढूढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।।

कबीर दास ने लोगों को बांटने वाले रिवाजों पर तीखे कटाक्ष किए हैं। भारतीय समाज में जाति-प्रथा ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके कारण समाज में ऊंच नीच का भेदभाव है। कबीर सामाजिक श्रेष्ठता को नहीं मानते थे। उनका मानना था कि सभी मनुष्य बराबर हैं।

जे तू बामन बामनी जाया,
तो आन बाट काहे न आया।
ते तू तुरक तुरकनी जाया,
तो भीतिरि खतना क्यूं न कराया।


जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।


जात-पात पूछे नाहि कोई,
हरि का भजे सो हरि क��� होई


एक बूंद एकै मल मूत्र,
एक चाम एक गूदा।
एक जोति थै सब उतपना,
कौन बाम्हन कौन सूदा।।


काहे को कीजै पांडे छोड़त विचारा।
छोतहि ते उपजा संसारा।।
हम कत लोहू तुम कत दूध।
तुम कत बामन हम कत सूद।।
छोति-छोति करत तुमहि जाए
तो गरभ वास काहे को आए।।

कबीर ने जाति-पांत, बाहरी आडम्बरों का विरोध किया और आन्तरिक शुद्घता  व आचरण की पवित्रता को महत्त्व दिया। उन्होंनेेेें कहा कि हिन्दू व मुसलमान की पहचान किसी कर्मकाण्ड में नहीं है, जिसका ईमान दुरुस्त है वही सच्चा हिन्दू और मुसलमान है।

सो हिन्दू सो मुसलमान,
जिसका दुरस रहे ईमान।

कबीर दास ने सामाजिक भेदभाव और साम्प्रदायिक एकता को बनाने के लिए प्रयास किए। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे। हिन्दू पण्डे और मुस्लिम कठमुल्लाओं के कर्मकाण्डी धर्म की उन्होंनेेेेेे आलोचना की। हिन्दू और मुस्लिम दोनों में उनके शिष्य बने, कबीर के विचारों में दोनों धर्मों के तत्वों का मिश्रण है। वे साम्प्रदायिक सद्भाव की अनुपम कड़ी हैं।


स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( मई-जून 2016), पेज -30 से 33

 

More From Author

बेटे के शिक्षक के नाम पत्र – अब्राहिम लिंकन

मैं कासी का जुलहा बूझहु मोर गिआना – डा.सेवा सिंह

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *