हिन्दी के आलोचक – 36
गोपालगंज (बिहार) जिले के गाँव ‘लोहटी’ में जन्म लेने वाले और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे मैनेजर पाण्डेय (जन्म 23.9.1941) हमारे समय के सबसे गंभीर और जिम्मेदार समीक्षकों में हैं. दुनिया भर के समकालीन विमर्शों, सिद्धांतों और सिद्धांतकारों पर उनकी पैनी नजर रहती है. उन्होंने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना को, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के आलोक में, देश-काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक संपन्न और सृजनशील बनाया है. वैश्विक विवेक और आधुनिकता बोध उनकी आलोचना की प्रमुख विशेषताएं हैं. ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’, ‘शब्द और कर्म’, ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’, ‘भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य’, ‘आलोचना की सामाजिकता’, ‘हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान’, ‘आलोचना में सहमति असहमति’, ‘भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा’, ‘अनभै सांचा’ आदि पाण्डेय जी की महत्वपूर्ण समीक्षात्मक कृतियां हैं.
पाण्डेय जी की पुस्तक ‘भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य’ भक्ति आंदोलन की सामाजिक महत्ता और लोकभाषाओं तथा उसके साहित्य के प्रति उनकी रुचि का प्रमाण है. इसमें उन्होंने सूर के काव्य को समकालीन किसान जीवन से जोड़ करके देखा है. वे घोषित करते हैं कि, “हिन्दी में सूर से बड़ा प्रेम का कवि दूसरा कोई नहीं है. सूर का वात्सल्य वर्णन अमानवीय व्यवस्था के बीच भी मनुष्य की मनुष्यता को जगाने और उसकी रक्षा करने में समर्थ है. सूर का भक्तिमार्ग प्रेममार्ग है.“( भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, प्रथम संस्करण की भूमिका से ) उनका निष्कर्ष है कि, “सूर की कविता हिन्दी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जातीय जीवन और सांस्कृतिक परंपराओं को व्यक्त करने वाली कविता है. वह हिन्दी भाषा के जातीय रूप का निर्माण करने वाली, हिन्दी साहित्य के जातीय काव्यरूपों को विकसित करने वाली कविता है. सूर की कविता की सबसे बड़ी विशेय़षता यह है कि वह शास्त्र और सत्ता के आतंक से मुक्त है, इसलिए वह ऐसे आतंक से मुक्ति दिलाने वाली कविता भी है.”( उपर्युक्त )
पाण्डेय जी की एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक ‘आलोचना की सामाजिकता’ चार भागों में बँटी है- आलोचना का समाज, संस्कृति की राजनीति, कविता का समय और उपन्यास का लोकतंत्र. जाहिर है इस पुस्तक में उन्होंने कविता, उपन्यास और आलोचना के साथ- साथ संस्कृति की समस्याओं पर भी विस्तार से विचार किया है. उनके विमर्श की परिधि में साहित्येतर विषय भी शामिल रहते हैं. उनकी यह पुस्तक इसका प्रमाण है. इसमें उन्होंने जहां एक ओर लोकप्रिय साहित्य और मार्क्सवाद के संबंधों का विश्लेषण किया है तो वहीं दूसरी ओर साहित्य के समाजशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पर भी बल दिया है. इस पुस्तक में ‘राजनीति की भाषा’, ‘भाषा की राजनीति’ और ‘भाषा की रात में मनुष्य’ आदि लेख बेहद विचारोत्तेजक हैं. पुस्तक की भूमिका में ही अपनी स्थापनाओं के संबंध में उन्होंने संकेत दे दिया है. वे लिखते हैं, “किसी भी समाज में आलोचना का स्वास्थ्य उस समाज के बौद्धिक वातावरण पर निर्भर होता है. अगर समाज का बौद्धिक वातावरण उन्मुक्त और संवादधर्मी होगा तो आलोचना भी मूलगामी, उत्सुक, तेजस्वी, प्रश्नाकुल और सत्यनिष्ठ होगी, लेकिन अगर बौद्धिक वातावरण रूढ़िवादी, पीछे देखू और सहमतिवादी होगा तो आलोचना वैसी ही होगी. हिन्दी आलोचना के बेजान और बीमार होने का एक कारण हमारे समाज का वह बौद्धिक वातावरण है जिसमें साहित्यवाद का सहयोगी सहमतिवाद है. ऐसे वातावरण में पलने वाली आलोचना अगर असामाजिक हो तो आश्चर्य की क्या बात है. हिन्दी आलोचना को असामाजिक बनाने में कुछ भूमिका उन आलोचकों की भी है जो अतिरंजना, सरलीकरण, धमकी, फतवा, आशीर्वाद और दुविधा की भाषा में आलोचना लिखते हैं. ऐसी आलोचना गैरजिम्मेदार होती है, इसीलिए असामाजिक होती है.” (आलोचना की सामाजिकता, भूमिका से)
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना के केन्द्र में साहित्य और आलोचना, मनुष्य और समाज, सभ्यता और संस्कृति के प्रति इतिहास- बोध और इतिहास –दृष्टि है. उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में इतिहास के अंत की घोषणा की गई थी. पाण्डेय जी का मानना है कि इतिहास का कभी अंत नहीं होगा. ‘साहित्य और इतिहास- दृष्टि’ पुस्तक में उन्होंने इतिहास –विरोधी आठ आलोचनात्मक सिद्धाँतों- प्रभाववादी, मनोवैज्ञानिक, नयी समीक्षा, मिथकीय और आद्यबिम्बात्मक, बिम्बवादी, संरचनावादी, शैली-वैज्ञानिक और सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना पर विचार किया है.
उनकी यह पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय है. इस पुस्तक में वे बताते हैं कि ” साहित्य की रचना और आलोचना की अधिकाँश समस्याएं साहित्य के इतिहास की समस्यायें होती हैं, इसलिए साहित्य के इतिहास के बोध से ही ऐसी समस्याओं के समाधान खोजे जा सकते हैं. वास्तव में साहित्यविवेक के विकास के लिए इतिहासबोध आवश्यक है. इतिहासबोध के बिना साहित्यविवेक अंधा होगा और साहित्यविवेक के बिना इतिहासबोध लंगड़ा.” ( साहित्य और इतिहास दृष्टि, भूमिका, पृष्ठ -viii)
यह पुस्तक न सिर्फ साहित्येतिहास से जुड़े सैद्धांतिक प्रश्नों से हमारा परिचय कराती है बल्कि इस पुस्तक में हिन्दी आलोचना के तीन शीर्षस्थ आलोचकों आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा के बारे में बहुत ही गंभीर अंतर्दृष्टि के साथ विचार किया गया है. इसी तरह ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ हिन्दी में इस विषय पर अपने ढंग की एकमात्र पुस्तक है. इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने हिन्दी में साहित्य के समाजशास्त्र की अवधारणा को पहली बार विकसित किया है. इस पुस्तक के बगैर हिन्दी में इस विषय पर अध्ययन-अध्यापन की कोई भी परिकल्पना अधूरी रहेगी.
मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि, “हिन्दी में कुछ आलोचकों ने अपनी सुविधा को सिद्धांत बनाकर यह घोषणा कर दी है कि आलोचना तो केवल व्यावहारिक होती है. अगर यही सच होता तो न तो भारतीय साहित्यशास्त्र विकसित होता न पश्चिम का साहित्यचिन्तन. कल्पना कीजिए कि यदि रामचंद्र शुक्ल ने काव्यालोचन से संबंधित सैद्धांतिक निबंध नहीं लिखे होते तो हिन्दी में कविता की आलोचना का आधार और ढाँचा कैसे निर्मित होता ! यही नहीं, अगर मुक्तिबोध ने अपने समय के साहित्य संबंधी सैद्धांतिक सवालों पर सोच- विचार न किया होता तो उसके बाद की साहित्यिक समझदारी का क्या हाल होता. बिना सैद्धांतिक समझ के व्यावहारिक आलोचना अन्धी होती है और बिना व्यावहारिक आलोचना के सैद्धांतिक चिन्ता बन्ध्या.”( आलोचना में सहमति असहमति, भूमिका )
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनकी अनुसंधानपरक दृष्टि है. इसके कारण उनकी आलोचना की प्रामाणिकता में किसी तरह के संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती. उनका मानना है कि आलोचना में असहमति स्वाभाविक है किन्तु उसके पीछे तर्क और प्रमाण होने ही चाहिए. वे लिखते हैं, “आलोचना में चाहे सहमति हो या असहमति, उसका साधार और सप्रमाण होना जरूरी है तभी सहमति या सहमति विश्वसनीय होती है. आलोचना की विश्वसनीयता को सबसे अधिक खतरा होता है मनमानेपन से. आलोचना में तर्क-वितर्क, खण्डन –मण्डन, आरोप-प्रत्यारोप के लिए जगह होती है, पर उतनी ही जितनी विचारशीलता में सत्यनिष्ठा और सच्चाई के लिए जरूरी है. आलोचना सहमति या असहमति के नाम पर मनमाने की बात नहीं है. जब आलोचना में मनमानेपन का विस्तार होता है तो वह गैर-जिम्मेदार हो जाती है. गैर-जिम्मेदार आलोचना से वैचारिक अराजकता पैदा होती है. आलोचना में सहमति –असहमति का संतुलन तब बिगड़ता है जब खुद को सही मानने की जिद दूसरों को गलत साबित करने की कोशिश बनती है.” ( आलोचना में सहमति असहमति, भूमिका, पृष्ठ-5 )
प्रेमचंद, मैनेजर पाण्डेय के सर्वाधिक प्रिय लेखकों में से हैं. उनकी पुस्तक ‘आलोचना की सामाजिकता’ में प्रेमचंद पर केन्द्रित उनके दो महत्वपूर्ण लेख हैं. उपन्यास को लेकर भी उन्होने गंभीर काम किया है. भारतीय उपन्यास की भारतीयता उनका गंभीर आलोचनात्मक लेख है. उपन्यास पर लिखते हुए उन्होंने प्रेमचंद से लेकर फणीश्वरनाथ रेणु, दूधनाथ सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, संजीव और गीतांजलिश्री के उपन्यासों पर भी लिखा है. उपन्यास और लोकतंत्र में मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं, “उपन्यास केवल यथार्थ की खोज और उसकी गति की पहचान का आख्यान नहीं है, वह संभावनाओं की तलाश का आख्यान भी है. उसमें वर्तमान की सीमाओं के बोध के पार जाने की आकांक्षा के कारण संभावित संसार की रचना की कोशिश भी होती है. उपन्यास के माध्यम से ऐसी निर्मिति की जाती है जो पाठकों को वास्तव में संभव लगे. ऐसी दुनिया रचने वाला उपन्यासकार ही संभावनाओं का व्याख्याकार भी कहा जा सकता है. आजकल ऐसे उपन्यास लिखे जा रहे हैं जो पूंजीवाद की बर्बरता से मुक्ति की आकांक्षा के कारण एक बेहतर दुनिया की कल्पना पाठकों के सामने रखते हैं.” ( आलोचना की सामाजिकता, पृष्ठ- 243)
उक्त समीक्षात्मक पुस्तकों के अलावा ‘मेरे साक्षात्कार’, ‘मैं भी मुंह में जबान रखता हूँ’ तथा ‘संवाद-परिसंवाद’ जैसी कृतियों में भी उनकी समीक्षा संबंधी मान्यताएं व्यक्त हुई हैं. इन कृतियों में उनके साक्षात्कार तथा समय- समय पर उनसे किए गए संवाद संकलित हैं.
पाण्डेय जी ने आजादी के पूर्व अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कृतियों के उद्धार और उनके संपादन का सराहनीय कार्य किया है। मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव द्वारा लिखित लगभग 30 देशों की आजादी के संघर्ष का इतिहास और मुगल बादशाहों द्वारा रचित ब्रजभाषा काव्यों का संकलन और संपादन उनकी अमूल्य देन है. उन्होंने बांग्ला लेखक सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ के प्रकाशन ( 1904) के सौ साल पूरे होने पर उसका बाबूराव विष्णु पराड़कर द्वारा किए गए हिन्दी अनुवाद ‘देश की बात’ को एक विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित किया. इसी तरह उन्होंने आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की बहुचर्चित पुस्तक ‘संपत्ति शास्त्र’ की भी विस्तृत प्रस्तावना लिखी और उसे प्रकाशित कराया.
नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की चेतना के साथ पूंजीवाद-साम्राज्यवाद विरोध उनकी आलोचना की प्रमुख विशेषता है. हिन्दी नवजागरण के बारे में उनकी दृष्टि बिलकुल स्पष्ट है और वे उसे बांग्ला नवजागरण अथवा मराठी नवजागरण से भिन्न रूप में देखते हैं. वे कहते है कि हिन्दी नवजागरण के निर्माता हिन्दी के साहित्यकार थे. वे बंगाल या महाराष्ट्र के नवजागरण के नायकों की तरह समाज सुधारक नहीं थे. हिन्दी नवजागरण की चेतना हिन्दी के साहित्यकारों की कृतियों में व्यक्त हुई है. ‘मुगल बादशाहों की हिन्दी कविता’ उनके द्वारा संपादित और संकलित एक नए तरह का शोधपूर्ण कार्य है. ‘संकट के बावजूद’ पुस्तक में उनकी साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को देखा जा सकता है. इसी तरह ‘सीवान की कविता’ जैसी पुस्तकें साहित्य को अभिजनवाद से मुक्त करने के प्रयास की तरह देखी जा सकती हैं. हाशिए के समाज की समस्याओं और साहित्य को लेकर भी वे लगातार सक्रिय रहे हैं. दलित साहित्य के संदर्भ में उनके दर्जनों आलेख हैं. वैश्वीकरण के इस दौर में जो नई समस्याएँ जन्म ले रही हैं उन पर भी वे गंभीरता से विचार करते रहे हैं जिन्हें उनके साक्षात्कारों में सहज ही देखा जा सकता है. ‘संवाद-परिसंवाद’ और ‘मैं भी मुँह में जबान रखता हूँ’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं.
आलोचना लिखते समय पाण्डेय जी की दृष्टि बहुत व्यापक होती है. साहित्य को सामाजिक संदर्भों में रखकर आकलन करने वालों में पाण्डेय जी अग्रणी हैं. भारतीय और पाश्चात्य दोनो साहित्यों के गंभीर अध्येता पाण्डेय जी की आलोचना दृष्टि तार्कित और वस्तुनिष्ठ है. मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य का प्रामाणिक विश्लेषण उन्होंने किया है और वे आज भी समीक्षा लेखन में संलग्न हैं.
पाण्डेय जी की “ आलोचना भाषा में दार्शनिक गंभीरता और सहजता का अद्भुत संयोग है. जहां वे सैद्धांतिक बहस में शामिल होते हैं वहाँ भाषा दार्शनिक स्वरूप ले लेती है और जहाँ वे व्यावहारिक आलोचना में रहते हैं, वहाँ भाषा किसी वेगवती पहाड़ी नदी का रूप ले लेती है. बिलकुल सहज निर्मल. लेकिन इस संदर्भ में यह देखना महत्वपूर्ण है कि वे जहाँ जाते हैं वहां भाषा रूपी नदी के वेग को अपने ढंग से मोड़ लेते हैं.” ( आलोचना की सामाजिकता के फ्लैप से)
जहाँ तक मुझे सूचना है, मैनेजर पाण्डेय के आलोचना कर्म का मूल्यांकन करने वाली अबतक दो मौलिक और तीन संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. प्रणय कृष्ण द्वारा प्रणीत ‘मैनेजर पाण्डेय का आलोचनात्मक संघर्ष’ तथा कमलेश वर्मा एवं सुचिता वर्मा द्वारा लिखित ‘दूसरी परंपरा का शुक्ल पक्ष’ उनपर केन्द्रित मौलिक पुस्तकें है. उन पर संपादित पुस्तकों के नाम हैं- ‘आलोचना का आत्मसंघर्ष’ (सं. रविरंजन ), ‘आलोचना की चुनौतियाँ’ (सं. दीपक प्रकाश त्यागी तथा राजेन्द्र प्रसाद चतुर्वेदी) एवं ‘आलोचना और समाज’ (सं. रविकान्त एवं आकांक्षा सिंह ). इसके अलावा ‘संकट के बावजूद’ शीर्षक से मैनेजर पाण्डेय पर केन्द्रित ‘संवेद’ का एक अंक भी किशन कालजयी के संपादन में प्रकाशित हो चुका है.
निश्चित ही हिन्दी आलोचना को स्तरीय बनाने और उसे समृद्ध करने में मैनेजर पाण्डेय की
भूमिका बहुत अधिक है.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)