हिन्दी के आलोचक – 35
अंबेडकर नगर (उ.प्र.) जिले के ‘जयमलपुर’ नामक गाँव में जन्मे, कोलकाता और सागर से उच्च शिक्षा हासिल करके मध्य प्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में शिक्षक रहे विजयबहादुर सिंह ( जन्म- 16.02.1940 ) हिन्दी कविता और उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं. वे साहित्य की लोकतांत्रिकता में विश्वास करने वाले आलोचक हैं. उन्होंने अपनी आलोचना की शुरुआत नई कविता की आलोचना से की.
‘आधुनिकता और हिन्दी कविता’ शीर्षक उनका पहला लेख 1964-65 के आस- पास प्रकाशित हुआ. उन्होंने डॉक्टरेट छायावाद पर किया. धूमिल और राजकमल चौधरी पर लिखने के क्रम में वे भवानीप्रसाद मिश्र और नागार्जुन के संपर्क में आए और उसके बाद उनके ऊपर मार्क्स, लोहिया और गाँधी का व्यापक प्रभाव पड़ा. इस तरह विजयबहादुर सिंह की आलोचना दृष्टि के निर्माण में गाँधी, लोहिया और मार्क्स तीनों के दर्शनों का सम्मिलित प्रभाव है. उनके चिन्तन की जमीन भारतीय है. उन्होंने नागार्जुन और भवानीप्रसाद मिश्र को अपनी आलोचना के केन्द्र में रखकर एक ऐसी स्वाधीन आलोचना-दृष्टि विकसित की है जो शास्त्रीय जकड़बंदियों और वादग्रस्त संकीर्णताओं को न केवल झुठला सकी बल्कि उनकी साम्प्रदायिकताओं को भी उजागर करने में आगे रही. साहित्यालोचन में उनकी अंतर्दृष्टि निरंतर नवनिर्माणकारी सृजनशीलता पर रही, न कि उस राजनीति पर जो प्रतिभाओं के ईमानदार मूल्याँकन से कहीं अधिक उन्हें दिग्भ्रमित करने की होती है.
विजयबहादुर सिंह पर मार्क्सवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव है और यदि कोई चाहे तो इन्हें प्रगतिवादी आलोचकों की श्रेणी में भी रख सकता है, किन्तु, जिस निष्ठा से उन्होंने भवानीप्रसाद मिश्र, नंददुलारे वाजपेयी और दुष्यंत कुमार के साहित्य की समीक्षा की है और उनकी ग्रंथावलियों का संपादन किया है, उसे देखकर उन्हें गाँधीवादी आलोचकों की श्रेणी में रखना मुझे अधिक उचित लगा.
‘छायावाद के कवि : प्रसाद, निराला और पन्त’, ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘नागार्जुन संवाद’, ‘कविता और संवेदना’, ‘उपन्यास : समय और संवेदना’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य’, ‘मुक्ति संघर्ष और साहित्यकार की भूमिका’, ‘लोकप्रिय कविता की कसौटियाँ’ आदि उनकी प्रमुख आलोचना कृतियाँ हैं. ‘आलोचक का स्वदेश’ जैसी महत्वपूर्ण जीवनी से उन्हें काफी ख्याति मिली. इसके बारे में कान्तिकुमार जैने ने लिखा है, “’आलोचक का स्वदेश’ अनायास अपने दौर की साहित्यिक वीथिका भी है और पत्रकार दीर्घा भी. ‘आलोचक का स्वदेश’ का गद्य इतना आकर्षक और व्यंजक है कि पाठक को लगता है कि वह ऐतिहासिक उपन्यास के पृष्ठों से गुजर रहा है. यह पुस्तक आलोचक का स्वदेश ही नहीं विजयबहादुर सिंह के गद्य का स्वदेश भी है.” ( ‘आलोचक का स्वदेश’ के फ्लैप से ) आठ खण्डों में ‘भवानीप्रसाद मिश्र ग्रंथावली’, चार खण्डों में ‘दुष्यंत कुमार ग्रंथावली’ और फिर आठ खंडों में ‘नंददुलारे वाजपेयी रचनावली’ का संपादन करके उन्होंने अपनी शोध -दृष्टि और संपादन क्षमता का भी परिचय दे दिया है.
विजयबहादुर सिंह से नागार्जुन का भी गहरा और आत्मीय संपर्क रहा है. इसी आत्मीय संपर्क के आधार पर वे नागार्जुन के रचना संसार से पर्याप्त प्रामाणिक साक्षात्कार करा पाने में सफल हो सके हैं. नागार्जुन के मूल्यांकन का उनका आधार क्या है- इसपर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा है, “ नागार्जुन को समझने के लिए समाजवाद के लिए संघर्ष की देशी शैलियों को समझना होगा. तब हम उनके साहित्य का महत्व समझ पाएंगे.” ( नागार्जुन का रचना संसार, पृष्ठ- 154)
विजयबहादुर सिंह की महत्वपूर्ण विशेषता उनकी भाषा की सरलता और सहजता है. वो गंभीर से गंभीर विषय को अपनी सरल भाषा में बड़ी ही सहजता से व्यक्त कर देते हैं. एक बातचीत में उन्होंने मुझे बताया कि नागार्जुन ने उन्हें गुरुमंत्र की तरह ‘जनोन्मुखी बौद्धिकता’ नामक शब्द दिया था जिसे उन्होंने अपने लेखन और चिन्तन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया. ‘जनोन्मुखी बौद्धिकता’ का तात्पर्य है कि जो भी सोचें या लिखें उसका रिश्ता आम जनता से होना चाहिए और भाषा भी उसी तरह की होनी चाहिए.
विजयबहादुर सिंह अपनी परंपरा को टटोलने और उसे निरंतर पुनर्नवा करने में भरोसा रखते हैं. अपनी परंपरा की अर्थवत्ता पर उनका गहरा विश्वास है. मार्क्स से गहरे प्रभावित होने के बावजूद वे इस तथ्य को भली- भाँति समझते हैं कि जहाँ मार्क्स दार्शनिक मात्र हैं वहाँ हमारे गाँधी प्रयोक्ता.
विजयबहादुर सिंह ने अज्ञेय, मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद मिश्र, नागार्जुन, कुँवरनारायण, शलभ श्रीराम सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, बसंत पोतदार तथा शंकरगुहा नियोगी पर विस्तार से लिखा है. वे एक आलोचक का दायित्व भली- भाँति समझते हैं. इसीलिए वे आलोचना करते समय मूल्य- निर्धारण भी करते हैं किन्तु वह सबकुछ अपनी भारतीय जमीन पर करते हैं. उनकी दृष्टि में नागार्जुन और रामविलास शर्मा दो ऐसे मार्क्सवादी हैं जो भारतीय जमीन पर खड़े हैं.
‘आजादी के बाद के लोग’ उनके स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज के चारित्रिक प्रगति और पतन से संबंधित लेखों की चर्चित पुस्तक है. हिन्दू धर्म, भारतीय संस्कृति के सवालों पर भी विजयबहादुर सिंह ने स्वयं को जब-तब एक सचेत नागरिक की जिम्मेदारियों के बतौर केन्द्रित किया है.
उनके आलोचना कर्म के बारे में उदयप्रकाश ने लिखा है, “हिन्दी की आलोचना और चिन्तन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है. मार्क्सवाद को उन्होंने किसी जड़ राजनीतिक सिद्धांत या रणनीति की तरह नहीं, एक ऐसे माध्यम के बतौर बरता है, जिसमें भारतीय दर्शनमीमांसा और विचारों को समन्वित करने की तरलता और नम्यता है. वे भारतीय समाज और संस्कृति की मीमांसा के लिए बहुत दूर तक पश्चिम की ओर रवाना नहीं होते, लौटकर अपनी परंपरा और अपनी जमीन की स्थानिकताओं में समस्य़ाओं की जड़ों को खोजने लग जाते हैं.” ( ‘आलोचना का देशज विवेक’ के फ्लैप से)
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के वे प्रिय शिष्य रहे हैं. इसीलिए उनकी ग्रंथावली का संपादन करते हुए वाजपेयी जी की प्रामाणिक और तर्कसंगत समीक्षा कर पाने में वे सफल हो सके हैं. उनके अनुसार “जिस तरह गाँधी ‘स्वराज’ को हिन्द (या भारत ) के संदर्भ में एक मौलिक दृष्टि से संपन्न करते हैं उसी तरह नंददुलारे वाजपेयी ‘आधुनिकता’ को आधुनिक भारतीय संदर्भों से जोड़कर उसे अभिनव अर्थ देते हैं. इस आधुनिकता को वे उस विशाल परंपरा का नया चरण मानते हैं जिसके एक छोर पर वेद, उपनिषद, बुद्ध हैं तो दूसरे पर गाँधी. भारत को अपनी आधुनिकता का संस्कार इसी परंपराभूमि पर करना होगा. उनका कहना है कि “जैसे पश्चिम में कवि और इतिहासकार अपने विकास की समष्टि को एक इकाई के रूप में देखकर अपने वर्तमान को समझने और भविष्य के लिए दिशाएं खोजने का प्रयत्न कर रहे हैं वैसे ही हमें भी अपनी समष्टि को इकाई के रूप में देखकर अपना मार्ग तय करना है.” ( आलेचना का देशज विवेक, पृष्ठ-93)
विजयबहादुर सिंह प्रकारान्तर से अपना निष्कर्ष देते हुए स्मरण दिलाते हैं कि, “याद रखने की जरूरत है कि बीसवीं सदी भारत के लिए स्वाधीनता की तलाश और उसके लिए किए जाने वाले सामूहिक संघर्ष की सदी है. राजनीति में इस स्वाधीनता और स्वराज का नेतृत्व अगर गाँधी करते हैं तो कविता में प्रसाद और निराला. हिन्दी आलोचना में इसका नेतृत्व करने वाले आलोचक का नाम है, नंददुलारे वाजपेयी. वाजपेयी पश्चिम के महत्व को अंगीकार करते हुए भी साहित्य के ‘स्वदेश’ और ‘स्वराज’ की लड़ाई छायावाद का समर्थन करते हुए भी लड़ते हैं और प्रयोगवाद, कलावाद, व्यक्तिवाद का विरोध करते हुए भी.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ 94)
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)