हिन्दी के आलोचक -19
सिद्धार्थनगर उत्तर प्रदेश के बिस्कोहर नामक गाँव में जन्मे और बनारस तथा चंडीगढ़ से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे विश्वनाथ त्रिपाठी( 16.2.1931)हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील आलोचक है. ‘हिन्दी आलोचना’, ‘लोकवादी तुलसीदास’, ‘मीराँ का काव्य’, ‘देश के इस दौर में’, ‘कुछ कहानियाँ : कुछ विचार’, ‘पेड़ का हाथ’, ‘उपन्यास का अंत नहीं हुआ है’, ‘कहानी के साथ साथ’, ‘आलोचक का सामाजिक दायित्व’ आदि उनकी प्रमुख समीक्षा-कृतियाँ हैं. ‘व्योमकेश दरबेश’ नाम से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी लिखकर उन्होंने अच्छी ख्याति पायी है. उनकी कृति ‘देश के इस दौर में’ हरिशंकर परसाई पर केन्द्रित है जबकि ‘पेड़ का हाथ’ केदारनाथ अग्रवाल पर. इस तरह त्रिपाठी जी ने नए और पुराने दोनो ही प्रकार के साहित्य पर अपनी समीक्षाएँ लिखी हैं. आग्रह मुक्त और विवेक सम्मत दृष्टि उनकी आलोचना की विशेषता है.
तुलसीदास के महत्व को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं, “तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है. उन्होंने राम के परंपरा –प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया है. उन्होंने राम की संघर्ष-कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन की संघर्ष –कथा के आलोक में देखा है. उन्होंने बाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन: स्थापित नहीं किया है, अपने युग के नायक राम को चित्रित किया है. उनके दर्शन और चिंतन के राम ब्रह्म हैं लेकिन उनकी कविता के राम लोकनायक हैं.” ( लोकवादी तुलसीदास, भूमिका, पृष्ठ-9).
तुलसी पर लिखी उनकी पुस्तक पढ़कर राजेन्द्र यादव ने लिखा है, ”पुस्तक में एक ऐसी अजीब सी ऊष्मा, आत्मीयता और बाँध लेने वाली निश्छलता है कि मैं उसे पढ़ता ही चला गया. अच्छी बात यह लगी कि आप ने राम को न मुकुट पहनाए, न तुलसी को अक्षत चंदन लगाए—आपने तो अपने अवध को ही तुलसी के माध्यम से जिया है, वहाँ के लोगों, उनके आपसी संबंधों और संदर्भों-बिना उन्हें महिमान्वित किए- को उकेरा है. सबकुछ आपने इतना मानवीय और स्पंदनशील बना दिया है कि मैं तुलसी के प्रति अपने सारे पूर्वग्रह छोड़कर पढ़ता चला गया.” ( उद्धृत, hi.wikipedia.org/wiki/ विश्वनाथ त्रिपाठी)
त्रिपाठी जी ने मीरा के काव्य का पहली बार आधुनिक दृष्टि से मूल्याँकन करके उसकी उपयोगिता और महत्व की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया. उन्होंने बताया कि मीरा की कविता भक्ति आन्दोलन, उसकी विचारधारा और तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति से उनकी टकराहट का प्रतिफलन है. यह प्रतिफलन उस मानवीयता में प्रकट हुआ जो अपने समय की धार्मिक साधनाओं के ही सहारे रूपायित हो सकती थी. उनकी दृष्टि में मीरा की कविता तत्कालीन समाज में नारी जाति के विद्रोह की कविता है. मीरा का विद्रोह भक्ति, प्रेम, रहस्य की अनुभूति के साथ अभिव्यक्त हुआ है. इसीलिए मीरा की कविता को समझने का मतलब है, कविता के उन पक्षों को समझना. साधना, भक्ति, प्रेम, विरह या रहस्य की भावनाएँ काव्याभिव्यक्ति में अमूर्त रहकर ही नहीं प्रकट होतीं. वे मूर्त होती है, अनुभव जगत में उदित होकर. इसलिए कविता का जागतिक संदर्भ होता है.
इस तरह मीरा को उन्होंने मध्यकालीन सामंती व्यवस्था से पीड़ित नारी के रूप में देखा है. मीरा के प्रेम की लौकिक व्याख्या और सामंती समाज से उसका द्वंद्व ही विश्वनाथ त्रिपाठी की आलोचना की मुख्य स्थापना है.
हिन्दी की कथा समीक्षा पर केन्द्रित उनकी पुस्तक ‘कुछ कहानियाँ : कुछ विचार’ भी आलोचकों में बहुत समादृत है. इस पुस्तक के अंतिम दो आलेखों के बारे में निर्मला जैन लिखती है, “ अंतिम दो ‘समकालीन कहानी : कुछ विचार’ और ‘बदलते समय के रूप’ समकालीन कथा-परिदृश्य के संबंध में विश्वनाथ त्रिपाठी की समझ और विश्लेषण-क्षमता दोनो के प्रमाण हैं. पूर्वकथन में उन्होंने लिखा है कि ‘रचना के कुछ पोर होते हैं, जैसे बाँस या गन्ने के, जिन्हें फोड़ने में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत पड़ती है.’ कहना न होगा कि लेखक के पास इन पोरों को पहचानने वाली मेधा भी है और उन्हें फोड़ने का कौशल भी, जिसका प्रयोग वे सूत्रवत छोटे-छोटे वाक्यों में बड़े सहज गद्य-विन्यास में करते चलते हैं. इन दोनो लेखों के माध्यम से पाठक उस दौर के पूरे कहानी-परिदृश्य की खूबियों और खामियों को भली -भाँति पहचान सकता है. सूत्रों में विश्वनाथ जी ने उस दौर के अधिकाँश कहानीकारों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं. सार्थक सूत्रों में मूल्याँकनपरक निर्णय देते चलना उनकी आलोचना की खूबी है.” ( हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ, निर्मला जैन, पेपरबैक संस्करण 2014, पृष्ठ-143-144) इसी तरह ‘कहानी के साथ साथ’ शीर्षक कथा समीक्षा की उनकी एक और पुस्तक बहुत चर्चित है.
‘व्योमकेश दरवेश’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन और रचना-कर्म पर लिखी गई अपने ढंग की अकेली और अनोखी पुस्तक है. त्रिपाठी जी ने आचार्य द्विवेदी के सानिध्य में रहकर शिक्षा ही नहीं ग्रहण की है अपितु एक शिष्य के रूप में उनका आना-जाना द्विवेदी जी के घर के भीतर तक था. इसीलिए पुस्तक की प्रामाणिकता असंदिग्ध है. यह पुस्तक संस्मरण शैली में है. प्रयास किया गया है कि प्रसंगों और स्थितियों को यथासंभव प्रामाणिक स्रोतों से ही ग्रहण किया जाए. काशी की तत्कालीन साहित्य-मंडली अनायास ही पुस्तक में आ गई है. इस पुस्तक की भाषा का सौंदर्य देखते ही बनता है. पुस्तक में वे लिखते हैं कि घास काटती हुई औरतों का गाना सुना तो लगा घासें ही गा रही हैं. खेत में काम करती औरतों का गाना खेत के पौधों का संगीत लगा. सड़क पर चलती औरतों की बातचीत नीम, आम, सड़क, अमलताश की बातचीत लगती. इस तरह उनके कहने का अंदाज सबसे अलग और निराला है.
विश्वनाथ त्रिपाठी हिन्दी के अकेले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने एक ओर अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की ‘व्योमकेश दरबेश’ नाम से जीवनी लिखी तो दूसरी ओर अपने प्रिय शिष्यों पर ‘गुरु जी की खेतीबारी’ शीर्षक से पुस्तक लिखी. निस्संदेह उनके हृदय में अपने शिष्यों के प्रति भी असीम स्नेह और आत्मीयता है. त्रिपाठी जी की स्मृति विलक्षण है. वे जब बोलते हैं तो साहित्य, राजनीति, संगीत, इतिहास, लोक, सबको साथ-साथ लेकर चलते हैं. वे मानव मन के सूक्ष्मदर्शी हैं.
उनके द्वारा लिखित ‘हिन्दी आलोचना’ हिन्दी के विद्यार्थियों में सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों में से है. इसमें भारतेन्दु युग से लेकर नामवर सिंह तक की आलोचना-यात्रा का बहुत ही तर्कसंगत, प्रामाणिक और सोदाहरण विश्लेषण है.
विचारधारा के स्तर पर वे मार्क्सवादी कहे जा सकते हैं किन्तु अन्य बहुतेरे मार्क्सवादियों की तरह वे जड़सूत्रवाद के शिकार नहीं है. वे नरम दल के मार्क्सवादी हैं. ‘हिन्दी आलोचना’ पुस्तक के आरंभ में भारतेन्दु युग के महत्व का आकलन करते हुए वे लिखते हैं, “भारतेन्दु और उनके साथी वे साहित्यकार थे जिन्होंने साहित्य को सामाजिक उत्तरदायित्व की चेतना से युक्त किया. ऐसा करने में वे समर्थ हो पाए क्योंकि वे सामाजिक समस्याओं के प्रति सचेत थे और उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करते थे. इस युग का साहित्य केवल मनोविनोद या विलास की सामग्री नहीं प्रस्तुत करता, अपितु समाज का चित्रण करता है और उसके विकास की प्रेरणा देता है. जीवन को समझने- बूझने और देखने की भारतेन्दु की निश्चित दृष्टि है.” ( हिन्दी आलोचना, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नई दिल्ली, पहला छात्र संस्करण :1992, दसवी आवृत्ति: 2007, पृष्ठ- 14) दरअसल समाज को देखने की इस दृष्टि की पहचान वही व्यक्ति कर सकता है जिसके पास अपनी वैज्ञानिक दृष्टि हो और वह वैज्ञानिक दृष्टि मार्क्सवादी ही हो सकती है.
किसी भी विषय पर वे विवादों से यथासंभव दूर रहना पसंद करते हैं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और नगेन्द्र पर उन्होंने विस्तार से लिखा है. इन सभी आलोचकों के आलोचना कर्म में अनेक विषयों को लेकर व्यापक मतभेद है किन्तु त्रिपाठी जी ने इन सबकी बहुत ही व्यवस्थित और प्रामाणिक समीक्षा करते हुए अद्भुत संतुलन का परिचय दिया है.
आचार्य नंदददुलारे वाजपेयी को वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परंपरा का आलोचक मानते हैं. वे लिखते हैं, “पं. नंददुलारे वाजपेयी की समीक्षा कृतियों को देखने पर ज्ञात होता है कि वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परंपरा के समीक्षक हैं. उनकी सामर्थ्य शुक्ल जी का विरोध करने में नहीं, बल्कि उनका समर्थन करने या उनके द्वारा निकाली हुई समीक्षा -पद्धति पर चलने में प्रकट हुई है. वाजपेयी जी को इस बात का श्रेय मिलेगा कि छायावाद, प्रगतिवाद, महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं. रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, दिनकर की और प्रयोगवादी रचनाओं की उन्होंने गंभीर या विस्तृत समीक्षा की.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 140)
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में उनका विश्वास है कि, “शुक्ल जी के बाद हिन्दी पाठकों, अध्यापकों और आलोचकों की दृष्टि और रुचि पर जितना अधिक प्रभाव द्विवेदी जी की कृतियों का पड़ा है, उतना किसी आलोचक का नहीं. रसग्राहिता द्विवेदी जी की सबसे बड़ी शक्ति है और यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि आलोचक की भी सबसे बड़ी कसौटी रसग्राहिता ही है. कबीर, सूरदास, कालिदास और अपभ्रंश साहित्य पर लिखी गई रचनाओं में द्विवेदी जी की रसग्राहिता के प्रचुर प्रमाण मिलेंगे.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 150) उनकी दृष्टि में द्विवेदी जी साहित्य को सामाजिक संदर्भों में देखने और परखने का आग्रह करते हैं. सामाजिकता का यह आग्रह ही उन्हें मानवतावादी बनाता है. इसी आधार पर वे घोषित करते हैं कि, “मानवतावादी और प्रगतिशील दृष्टि के कारण ही द्विवेदी जी, प्रेमचंद साहित्य की महानता को समझ सके हैं. ध्यान देने की बात यह है प्रगतिवादी आलोचकों को छोड़ दें तो हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों यानी, बाजपेयी, द्विवेदी और नगेन्द्र में प्रेमचंद को प्रथम श्रेणी का साहित्यकार केवल द्विवेदी जी ही मानते हैं.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-153)
रामविलास शर्मा के विषय में वे कहते हैं, “जब डॉ. शर्मा अपने किसी प्रिय साहित्यकार या विषय पर लिखते हैं तब उनकी भाव तरलता और सहृदयता देखने लायक होती है. तुलसीदास, भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, रामचंद्र शुक्ल, पढ़ीस आदि पर लिखे गये उनके निबंधों को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि उनमें इतिहास-बोध की प्रखर प्रतिभा ही नहीं, रसग्राहिणी शक्ति भी है. जिस आलोचक ने भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, शुक्ल जैसे महान साहित्यकारों पर इतना परिश्रम करके पुस्तकें लिखी हों, जिसने इन साहित्यकारों को हिन्दी की जातीय प्रगतिशील परंपरा से जोड़ा, उसे केवल प्रखर आलोचक कहकर टालने की कोशिश करना अनुचित है… इतना अर्थगर्भित निर्दोष और आडंबरहीन गद्य लिखनेवाला हिन्दी में दूसरा कोई नहीं दिखलाई पड़ता.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 198) और नामवर सिंह के बारे में उनका कहना है कि, “यदि प्रगतिशील आलोचना को जातीय और हिन्दी पाठकों की दृष्टि में विश्वसनीय बनाने का कार्य डॉ. रामविलास शर्मा ने किया है तो उसे सक्रिय आन्दोलन के रूप में जीवित रखने और हिन्दी भाषी बुद्धिजीवी-युवकों में तत्संबंधी रुचि जाग्रत करने का कार्य डॉ. नामवर सिंह कर रहे हैं.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-198)
विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए भी रामविलास शर्मा को ही उद्धृत करते हैं और कहते हैं, “भारतेन्दु युग का साहित्य जनवादी इस अर्थ हैं है कि वह भारतीय समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट न रहकर उसमें सुधार भी चाहता है. वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य न होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है. भारतेन्दु स्वदेशी आन्दोलन के ही अग्रदूत न थे. वे समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे. स्त्री- शिक्षा, विधवा -विवाह, विदेश- यात्रा आदि के वे समर्थक थे.” ( उद्धृत, हिन्दी आलोचना, पृष्ठ-13) वे कहते हैं, “इस प्रकार यथार्थ-बोध, विषमता-बोध और इस विषमता से उबरने की छटपटाहट, ये तीन भेदक लक्षण हैं जो भारतेन्दु -युग को रीतिकालीन साहित्य से अलग करते हैं और इन्हीं कारणों से भारतेन्दु युग हिन्दी के आधुनिक साहित्य का प्रवर्तक युग है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 14)
निष्कर्ष यह कि त्रिपाठी जी का समस्त आलोचना- कर्म हमारे समय की जरूरत और समाज हित से अनुस्यूत है. तुलसी और मीरा के साहित्य की व्याख्या उन्होंने इसी दृष्टि से की है. रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, नगेन्द्र, नामवर सिंह तथा अन्य आलोचकों का मूल्याँकन करते हुए उन्होंने लोकहित को कभी ओझल नहीं होने नहीं दिया. परसाई के व्यंग्य- निबंधों, केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं तथा कहानी-समीक्षा से संबंधित पुस्तकों के प्रणयन में भी त्रिपाठी जी ने इसका ख्याल रखा है. इस तरह हिन्दी की प्रगतिवादी आलोचना को समृद्ध करने वालों में त्रिपाठी जी का महत्वपूर्ण स्थान है. उन्होंने हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की आलोचना-परंपरा को आगे बढ़ाया है.
विश्वनाथ त्रिपाठी जैसा लालित्यपूर्ण गद्य लिखने वाले बहुत कम हैं. सजीवता, सरसता, जीवंतता और चित्रात्मकता उनके गद्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं. छोटे-छोटे सरस चित्रात्मक वाक्य और उसमें गँवईं संस्कृति की छाप त्रिपाठी जी के गद्य की पहचान है. काव्यात्मकता उनके गद्य का सहज वैशिष्ट्य है. इसीलिए उनकी आलोचना में रचना का सा स्वाद मिलता है.
आलोचना से इतर अपने स्मृति आख्यान ‘नंगातलाई का गाँव’ से भी उन्हें खूब ख्याति मिली है. ‘व्योमकेश दरवेश’ के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार प्राप्त हुआ है.
हमारे आग्रह पर वे 2001 और 2009 में कोलकाता आए थे, हमारा आतिथ्य स्वीकार किया था और विश्वविद्यालय के हमारे विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए यादगार व्याख्यान दिया था. उन्होंने ‘अपनी भाषा’ द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की अध्यक्षता भी की थी और ‘जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान 2009’ को अपने हाथों से प्रदान किया था. उस वर्ष यह सम्मान हिन्दी और गुजराती के बीच सेतु निर्मित करने वाली लेखिका डॉ. बिन्दु भट्ट को मिला था.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोय़फेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)