हिन्दी के आलोचक – 22
रामस्वरूप चतुर्वेदी ( 6.5.1931- 24.7.2003 ) ऐसे विरल समीक्षक है जिन्होंने कवियों में अपना नाम दर्ज नहीं कराया. उनकी समीक्षा का केन्द्रीय विषय काव्य-भाषा है. वे मानते हैं कि सर्जन मूलत: भाषिक संरचना है. उनके अनुसार भाषा का आधारभूत रूप वह है जो रचनाकार समाज से ग्रहण करता है और उसी के अनुकूल उसकी संवेदना निखरती है जिसे वह फिर अपनी कव्य-भाषा में व्यक्त करता है. यह काव्य-भाषा कवि के व्यक्तित्व के अनुकूल रूपाकार ग्रहण करती है. वे लिखते हैं, “ आज की कविता को जाँचने के लिए, जो अब सचमुच ‘प्रास के रजतपाश’ से मुक्त हो चुकी है, अलंकारों की उपयोगिता अस्वीकार कर चुकी है और छंदों की पायलें उतार चुकी है, काव्य-भाषा का प्रतिमान ही शेष रह गया है, क्योंकि कविता के संगठन में भाषा प्रयोग की मूल और केन्द्रीय स्थिति है.” ( भाषा और संवेदना, पृष्ठ- 43) किन्तु सबकुछ भाषा नहीं है. उन्हें इस बात की परवाह है कि, “यदि हम अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं शब्दों पर, उनकी संगीतात्मकता और चित्रमयता पर, उनकी चयन और क्रम संबंधी शिल्पगत कुशलता पर –जैसा कि आधुनिक कवि और नए समीक्षक हमसे आशा करते हैं- तो कविता की भाषा अपारदर्शी हो जाती है, हम उसी को देखते हैं, उसके माध्यम से कुछ और नहीं.” ( भाषा और संवेदना, पृष्ठ-30)
रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार रचना ही एक मात्र आलोचना का प्रतिमान हो सकती है. बने बनाए प्रतिमानों के आधार पर रचना का समुचित मूल्यांकन संभव नहीं है. वे लिखते हैं, “ किसी भी रचना के लिए कोई भी पूर्वनिर्धारित मानदंड नहीं होना चाहिए. हृदय जब मुक्तावस्था में होगा, रचना भी मुक्त होगी, तो आलोचना जो अपेक्षाकृत बहुत बाद में विकसित हुई, वृद्धावस्था में नहीं रह सकती.” ( पूर्वग्रह -118, पृष्ठ-55).
रामस्वरूप चतुर्वेदी की छोटी बड़ी लगभग सत्ताईस आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें ‘हिन्दी नवलेखन’, ‘भाषा और संवेदना’, ‘अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या’, ‘हिन्दी साहित्य की अधुनातन प्रवृत्तियां’, ‘कामायनी का पुनर्मूल्यांकन’, ‘मध्यकालीन हिन्दी काव्यभाषा’, ‘कविता यात्रा : रत्नाकर से अज्ञेय तक’, ‘सर्जन और भाषिक संरचना’, ‘इतिहास और आलोचक-दृष्टि’, ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’, ‘काव्यभाषा पर तीन निबंध’, ‘प्रसाद, निराला अज्ञेय’, ‘कविता का पक्ष’, ‘भाषा, संवेदना और सर्जन’, ‘हिन्दी गद्य : विन्यास और विकास’, ‘आधुनिक कविता यात्रा’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल : आलोचना का अर्थ और अर्थ की आलोचना’, ‘भक्तिकाव्य यात्रा’, ‘हिन्दी काव्य –संवेदना का विकास’, ‘आलोचकथा’ ‘शरत् के नारी पात्र’, ‘नई कविता : एक साक्ष्य’ आदि प्रमुख हैं. दूधनाथ सिंह के अनुसार, “ वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद दूसरे आलोचक हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की कठिन चुनौती स्वीकार की और ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ लिखकर दिखा दिया. इस इतिहास में आधुनिक काल पर अधिक बल है, जिसके वे मास्टर आलोचक हैं. उन्होंने आधुनिक काल को ही अपनी आलोचना के लिए चुना और उसमें भी आश्चर्यजनक रूप से कविता को.” ( माध्यम, अक्टूबर-दिसंबर- 2003, पृष्ठ- 6)
अज्ञेय, चतुर्वेदी जी के प्रिय कवि हैं और रामचंद्र शुक्ल उनके प्रिय आलोचक. उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के दिखाए मार्ग पर ही अपनी आलोचना का विकास किया है. जिस प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता ‘कवियों की विशेषताओं का अन्वेषण और उनकी अंत:प्रकृति की छानबीन’ मानते हैं, उसी प्रकार रामस्वरूप चतुर्वेदी आलोचना को ‘रचना की पुनर्रचना’ मानते हैं. रामचंद्र शुक्ल की भांति ही वे भी अपनी आलोचना में किसी भी विचारधारा से आतंकित नहीं होते और उनका अपनी जरूरत और देशकाल के अनुसार इस्तेमाल कर लेते हैं किन्तु रचनाकारों के प्रति आचार्य शुक्ल की बेबाक और तटस्थ दृष्टिकोण रामस्वरूप चतुर्वेदी के पास नहीं है.
‘कामायनी का पुनर्मूल्यांकन’ शीर्षक पुस्तक में कामायनी के संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि कामायनी को समझने की अबतक की पद्धतियाँ रही हैं- महाकाव्य के रूप में, रूपक के रूप में, ऐतिहासिक इतिवृत्त के रूप में, दार्शनिक रचना के रूप में या ऐसा ही कुछ अन्य पक्षों को आधार बनाकर. पर कामायनी को महाकाव्य की दृष्टि से देखना या कि उसके चरित्रांकन की व्याख्या करना, उसमें रस की स्थापना करना या रूपकत्व पर बल देना या उसके दर्शन को महत्व लगाना आधुनिक हिन्दी काव्य की एक महत्वपूर्ण रचना के वैशिष्ट्य को अनदेखा करने का सफल प्रयास है. जरूरत इसे समग्रता मे देखने की है.
मैनेजर पाण्डेय ने इतिहास लेखकों की एक ‘बहिष्कारवादी श्रेणी’ का जिक्र किया है जिसमें रामस्वरूप चतुर्वेदी को रखा है. उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ शीर्षक पुस्तक पर अपनी उचित प्रतिक्रिया व्यक्त की है और लिखा है कि हिन्दी साहित्य के इस इतिहास में आधुनिक काल में विवेचन के कवि के रूप में त्रिलोचन के नाम का उल्लेख तक नहीं है. कवि नागार्जुन का विवेचन केवल चार-पाँच वाक्यों में है. यही नहीं, कथाकारों के विवेचन में कृष्णा सोबती के नाम का उल्लेख है और उनकी केवल एक रचना का जिक्र. यही स्थिति राही मासूम रजा, श्रीलाल शुक्ल और शानी आदि की है.
रामस्वरूप चतुर्वेदी के आलोचना कर्म पर गंभीर काम करने वाले डॉ. महेन्द्रप्रसाद कुशवाहा से मैंने जब यह जानना चाहा कि कहीं यह सब भूल से तो नही हुआ है, तो उन्होंने कहा कि ऐसा चतुर्वेदी जी ने सचेत रूप में और पूरी तरह सोच समझ कर किया है. अज्ञेय को उन्होंने बहुत महत्व दिया है और प्रगतिवादी काव्यान्दोलन को विदेश की नकल मानकर उसकी उपेक्षा की है. उनकी दृष्टि में प्रगतिवाद की जड़े भारत में नहीं हैं.
वास्तव में रामस्वरूप चतुर्वेदी प्रसाद, निराला और अज्ञेय को लेकर आधुनिक हिन्दी कविता का एक विकास -क्रम देखते हैं. उनकी दृष्टि में ये ही आधुनिक हिन्दी कविता के तीन शीर्ष विन्दु हैं. उनकी एक पुस्तक ही है ‘प्रसाद–निराला-अज्ञेय’. इनमें भी अज्ञेय विशेष प्रिय. कभी- कभी तो लगता है कि वे अपनी आलोचना के प्रतिमान अज्ञेय के साहित्य से निर्मित करते हैं.
उक्त कमजोरियों के बावजूद रामस्वरूप चतुर्वेदी की उक्त पुस्तक आज की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली साहित्येतिहास की पुस्तकों में से एक है. साहित्य के अलावा संस्कृति, सभ्यता, दर्शन, शिक्षा, राजनीति आदि पर भी रामस्वरूप चतुर्वेदी समय समय पर लिखते रहे हैं. जिनमें से बहुत से लेख उनकी दो पुस्तकों – ‘साहित्य का नया दायित्व’ तथा ‘भारत और पश्चिम : संस्कृति के अस्थिर संदर्भ’ में संकलित हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)