हिन्दी के आलोचक -17
राजनीति, साहित्य और समाज-सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाले प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री (2.5.1929 – 17.4.2017 ) की ख्याति एक कुशल वक्ता और आदर्श शिक्षक की भी है. वे भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं. ‘कवि निराला की वेदना तथा अन्य निबंध’, ‘तुलसी के हिय हेरि’, ‘अनंत पथ के यात्री : धर्मवीर भारती’, ‘अनुचिन्तन’, ‘कुछ चंदन की कुछ कपूर की’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य के कुछ विशिष्ट पक्ष’, ‘भक्ति और शरणागति’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं. उनकी कृतियों का संग्रह ‘विष्णुकान्त शास्त्री : चुनी हुई रचनाएं’( 2 खंड ) प्रकाशित है जिसके प्रथम खण्ड में आलोचनात्मक निबंध हैं. इसमें क्रमश: कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, दिनकर और सर्वेश्वर का मूल्यांकन किया गया है. चार निबंधों का विवेच्य विषय है – काव्य का वाचिक संप्रेषण, आधुनिक हिन्दी कविता और छंद, गीत और नवगीत तथा बांग्लादेश की संग्रामी कविता. डॉ. रामचंद्र तिवारी ने उनकी आलोचना की विशेषताओं को बड़े व्यवस्थित ढंग से रेखाँकित किया है.
वे लिखते हैं, “ शास्त्री जी के आलोचना-कर्म की पहली सामान्य विशेषता यह है कि वे आलोच्य विषय से सम्बद्ध समस्त ज्ञातव्य तथ्यों को सामने रखकर पूरी तैयारी के साथ आलोचना-कर्म में प्रवृत्त होते हैं. इसे उन्होंने अपनी पूर्णता-ग्रंथि कहा है. इस ग्रंथि के चलते उनकी आलोचना में अनुशीलन के तत्व भी संश्लिष्ट हो गए हैं. पंत, दिनकर, महादेवी और सर्वेश्वर की आलोचनाएं अपवाद हैं. संदर्भ- गर्भत्व इन आलोचनाओं में भी है किन्तु वह विविध संदर्भ –स्रोतों से नीत न होकर लेखक के आलोचक व्यक्तित्व में रचा- बसा और उसका सहज अविभाज्य अंग बनकर सामने आया है. दूसरी विशेषता यह है कि शास्त्री जी का पूरा लेखन संतुलित है. न तो उन्होंने किसी को एकतरफा खारिज किया है न आसमान पर चढ़ाया है. आलोच्य कवि या आलोचक की सीमाओं का उल्लेख भी बड़ी विनम्रता के साथ किया है. उनके वैष्णव संस्कार आलोचना में ज्ञात- अज्ञात रूप में सक्रिय रहे हैं. किन्तु विशेष बात यह कि निर्णय के स्तर पर उनकी विनम्रता ने कहीं कोई समझौता नहीं किया है. निराला की भक्तिकाव्य संबंधी रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और नंदकिशोर नवल की आलोचनाओं को उद्धृत करने के बाद लेखक ने अपना निर्णय इन शब्दों में दिया है, “ मैं इन मतों को मार्क्सवादी आलोचना की स्थूलता और विफलता का उदाहरण मानता हूँ.” इससे लेखक की आस्थामूलक दृढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है. शास्त्री जी की आलोचना की तीसरी विषेषता है, निरंतर सक्रिय बुद्धि और हृदय की सहभागिता. यदि बुद्धि आलोच्य विषय के चयन, विश्लेषण, तुलनात्मक परीक्षण और निष्कर्ष –बिन्दु तक पहुंचने की दिशा में सक्रिय रहती है तो हृदय उसके साथ सहभाव बनाए रखकर आलोच्य विषय में अंतर्भूत, कोमल कठोर भाव –स्थितियों को धारण करने वाले मर्मक्षणों के उद्घाटन में प्रवृत्त. कहा जा सकता है कि शास्त्री जी की आलोचना में पुरुष और प्रकृति दोनो का स्वर समान भाव से मुखरित है. उनमें समरसता है, प्रतिद्वन्द्विता नहीं. हृदय से अनुप्रेरित होकर ही उनकी बुद्दि आलोचना-क्रम में प्रवृत्त हुई है. यह और बात है कि वह भी उनके अंतरतम में संचित संस्कारों से अनुप्राणित है. शास्त्री जी की आलोचना की चौथी विशेषता यह है कि परंपरा और शास्त्र का आधार लेते हुए भी न तो वह परंपराग्रस्त हैं, न शास्त्रबद्ध. उनका विश्वास, परंपरा की पुनर्व्याख्या में है. इसलिए पुराने कवियों की आलोचना करते समय भी उन्होंने आधुनिक मानसिकता वाले पाठकों का ध्यान रखा है. ( विष्णुकान्त शास्त्री अमृत महोत्सव : अभिनंदन ग्रंथ, खण्ड-3, पृष्ठ 119)
कबीर और तुलसी की तुलना करते हुए उन्होंने जो लिखा हैं उससे उनकी दक्षिणपंथी वैचारिक दृढ़ता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है, “मैं यह तो मानता हूं कि प्राचीन कवियों और उनकी कृतियों को आधुनिक दृष्टियों की कसौटी पर भी कसना चाहिए, इससे उनके नए पहलू उजागर होते हैं, किन्तु ऐसा करते समय उनकी मूलभूत निष्ठा को विस्मृत कर देना उचित नहीं है. ऐसा हुआ तो हम अंतरंग की उपेक्षा कर बहिरंग को ही प्राधान्य दे देंगे. आखिर इसपर तो विचार करना ही चाहिए कि कबीर और तुलसी बुनियादी तौर पर क्या थे? क्या उनकी पहली पहचान समाज सुधारक, लोकनायक आदि की हो सकती है? सच्चाई यही है कि कबीर और तुलसी दोनो मूलत: भक्त थे. दोनो परम तत्व से अपना संबंध निष्काम प्रेम के द्वारा जोड़ना चाहते थे. दोनो की वास्तविक निकटता या दूरी इसी मुद्दे के ऊपर प्रकट किए गए उनके भावों, विचारों से तै की जा सकती है. मेरा नम्र निवेदन है कि इस क्षेत्र में दोनो में अस्सी प्रतिशत से भी अधिक साम्य है.” ( तुलसी के हिय हेरि, पृष्ठ -253)
शास्त्री जी की आलोचना का फलक विस्तृत है. उनकी जीवन- दृष्टि और इसीलिए आलोचना- दृष्टि भी बहुत कुछ तुलसी की जीवन-दृष्टि और काव्यादर्श से प्रेरित और प्रभावित सी लगती है. वे अपने व्यवहार और आचरण में भी अत्यंत सौम्य और उदार थे किन्तु वैचारिक दृढ़ता में संघ की विचारधारा के प्रति पूर्ण आस्थावान. 1992 ईं में तथाकथित बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय कार सेवक के रूप में प्रो. विष्णुकान्त शास्त्री भी अपनी टोली के साथ अयोध्या पहुंचे थे.
शास्त्री जी बहुत उच्च कोटि के शिक्षक थे. राजनीति में रहते हुए भी उनके भीतर राजनीति के छल-प्रपंच, झूठ-फरेब आदि अवगुण नहीं थे. राज्य- सभा के सदस्य रहते हुए अनेक बार वे दिल्ली से कोलकाता हवाई अड्डे पर आते और वहाँ से सीधे विश्वविद्यालय में अपनी कक्षा में होते. विरोधी विचारधारा के लोगों से भी मैंने अनेकश: उनकी प्रशंसा सुनी है. ‘राम जी की कृपा से’ कहकर वे अपने प्रत्येक कार्य ‘राम’ पर छोड़ देते थे और स्वयं को निमित्त मात्र मानते थे.
शास्त्री जी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और रामस्वरूप चतुर्वेदी पर विस्तार से लिखा है. इनपर लिखते हुए शास्त्री जी ने इनसे अपनी सहमतियों और असहमतियों- दोनो को पूरी ईमानदारी से व्यक्त किया है. फिलहाल, संस्मरण शास्त्री जी की रचना- धर्मिता की केन्द्रीय विधा है. उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी. अपने विरोधी विचारधारा के कवि नागार्जुन की भी दर्जनों कविताएं उन्हें याद थी.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)