हिन्दी के आलोचक – 34
साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष, प्रख्यात साहित्यकार विश्वनाथप्रसाद तिवारी ( जन्म- 20.6.1940 ) आज अस्सी के हो गए. ‘सादा जीवन- उच्च विचार’ को अपनी जीवन- चर्या का अंग बनाने वाले तिवारी जी मूलत: कवि हैं किन्तु एक निर्भीक और तटस्थ आलोचक के रूप में भी उन्होंने अपनी पहचान बनायी है. ‘नये साहित्य का तर्कशास्त्र’, ‘आधुनिक हिन्दी कविता’, ‘समकालीन हिन्दी कविता’, ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी, ‘रचना के सरोकार’, ‘गद्य के प्रतिमान’, छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य, ‘कविता क्या है?’, ‘आलोचना के हाशिए पर’, ‘कबीर’, ‘कुबेरनाथ राय’,’गद्य का परिवेश ‘आदि उनकी प्रमुख आलोचना पुस्तकें हैं.
तिवारी जी के शब्दों में, “राज्य, समाज, धर्म और विचारधारा – ये चारो जब कट्टर होते हैं और अपने सच को अन्तिम मानने लगते हैं तो रचनाकार के शत्रु बन जाते हैं. राज्य का सर्वसत्तावादी तानाशाही रूप, समाज का संकीर्ण रूढ़िवादी रूप, धर्म का कर्मकाण्डी साम्प्रदायिक रूप और विचारधारा का पार्टी पिछलग्गू रूप – ये चारो रचनाकार के शत्रु हैं, क्योंकि ये एक अपना तंत्र विकसित कर लेते हैं, फिर उसकी सुरक्षा इनकी चिन्ता का मुख्य विषय बन जाती है.” ( आलोचना के हाशिए पर, पृष्ठ-1) उनके विचार से राजनीति को नारा या मैनीफेस्टों न बनाकर उसका कलात्मक उपयोग किया जाना चाहिए.
तिवारी जी ने गद्य और पद्य सब पर गहरी संलग्नता से लिखा है. एक स्वाधीन दृष्टि संपन्न मनुष्य होने के अतिरिक्त तिवारी जी भारतीय सौन्दर्य- दृष्टि वाले गंभीर प्रकृति के आलोचक हैं. उनकी आलोचना की भाषा में स्वत:स्फूर्त संयम है और एक खास तरह के नैतिक विवेक से वह परिचालित है.
तिवारी जी के आचार और विचार दोनो पर गाँधी का गहरा प्रभाव है. उनकी मंगल दृष्टि सिर्फ मानव समाज की ओर ही नहीं, मुष्येतर शेष सृष्टि की ओर भी उसी निष्ठा और उत्कंठा से जाती है. उन्होंने लिखा है, “ मनुष्य केन्द्रित चिन्तन की सीमा यह है कि उसने अपने को ही सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ मानकर शेष सृष्टि को अपना भोग्य मान लिया है. ऐसे में शेष सृष्टि के साथ उसका संबंध समता और भ्रातृत्व का नहीं, स्वामी और भृत्य का होगा. कृतज्ञता और विनम्रता का नहीं, अधिकार और दंभ का होगा. मांसाहारी अपने पक्ष में तर्क दे सकते हैं कि मनुष्य होने के नाते उन्हें अन्य जीवों का बध करने और उन्हें भोज्य बनाने का अधिकार है. ….. साहित्य मनुष्य की इस संकुचित दृष्टि का समर्थन नहीं कर सकता. उसका केन्द्रीय भाव ‘सहित’ का भाव है. यह ‘सहित’ भाव केवल मनुष्य के साथ नहीं है, संपूर्ण सृष्टि के साथ है, समूचे परिवेश के साथ है, जिसे आचार्य़ शुक्ल ने शेष सृष्टि कहा था. “( आलोचना के हाशिए पर, पृष्ठ- 11) वे केवल हिंसा, संघर्ष आदि को प्रश्रय देने वाले साहित्य को वांछनीय नहीं मानते और एक सच्चे मानववादी के रूप में अपनी दो टूक राय देते हुए कहते हैं, “ महान साहित्य घृणा नहीं, करुणा पैदा करता है. घृणित चरित्र के प्रति भी एक गहरी करुणा. यदि साहित्य घृणा, हिंसा और असहिष्णुता पैदा करने लगे तो दुनिया बदरंग हो जाएगी. रचना हृदय परिवर्तन की एक अहिंसक प्रक्रिया है. वह हिंसा का विकल्प नहीं है.” (आलोचना के हासिए पर, पृष्ठ -13) जाहिर है, यही गांधी का भी दर्शन है.
जहां भी अवसर मिला है तिवारी जी ने पश्चिम की मशीनी सभ्यता का विरोध किया है. इस विषय पर उनके एक प्रिय मित्र और आलोचक रेवती रमण लिखते हैं, “ प्रश्न उठता है कि पश्चिम की विकास और प्रगति वाली कसौटी क्या हमारे लिए सही है? आप किस सांस्कृतिक विकास की बात करते हैं? क्या यह कहने का कोई आधार है कि ब्रिटेन, रूस, अमेरिका, सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक उन्नत हैं? फिर किस आधार पर एफ्रो-एशियाई दुनिया को तीसरी दुनिया या पिछड़ी हुई दुनिया कहने का साहस करते हैं? उनकी तरकीब यही है कि हम अपने को दुर्बल, असहाय, परमुखापेक्षी मानकर उनके सामने संमर्पण कर दें. क्या यह उपनिवेशवाद का विकृत चेहरा नहीं है? देवता का मुखौटा लगा लेने से शैतान देवता नहीं हो जाता. इस मुखौटे को पहचानकर ही गाँधी जी ने पश्चिमी सभ्यता को ‘शैतानी सभ्यता’ कहा था. –‘हिन्द स्वराज’ में, और हर क्षेत्र में पश्चिमी बर्बर शोषण पर केन्द्रित आधुनिकता से बचने की सलाह दी थी. आलोचक विश्वनाथप्रसाद तिवारी इसी गाँधी- दृष्टि को एवं वैष्णव -दृष्टि को मानने वाले आलोचक हैं और ‘हिन्द स्वराज’ के चिन्तन ने उनकी मनोभूमिका का दूर तक निर्माण किया है. “ ( विश्वनाथप्रसाद तिवारी : साहित्य का स्वाधीन विवेक, पृष्ठ- 302)
तिवारी जी की आलोचनात्मक कृतियों में ‘रचना के सरोकार’, ‘छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य’, ‘गद्य के प्रतिमान’ और ‘आलोचना के हाशिए पर’ विशेष महत्वपूर्ण हैं. रचना के सरोकार अट्ठाइस निबंधों का संग्रह है. परंपरा और आधुनिकता, अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य और प्रतिबद्धता, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय भावना, रचनात्मक ईमानदारी, अनुभूति की प्रामाणिकता, काव्य भाषा, श्लीलता-अश्लीलता, रचना की भारतीय अवधारणा, संप्रेषण और प्रासंगिकता जैसे विषयों पर तिवारी जी ने अत्यंत गंभीरतापूर्वक विचार किया है. ‘छायावादोत्तर हिन्दी गद्य साहित्य’ उनकी शोधपरक कृति है. ‘गद्य के प्रतिमान’ समय समय पर लिखे गए लेखों का संग्रह हैं. इसके आरंभिक पाँच लेख तो प्रेमचंद के साहित्य और विचार से संबंधित हैं. इसके अलावा इस कृति में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी के साहित्यिक अवदान पर भी लेख हैं.
‘आलोचना के हाशिए पर’ उनकी एक अत्यंत महत्वपूर्ण आलोचना कृति है. इसमें तेईस लेख हैं. हमारी परंपरा द्वारा स्थापित मान्यता है कि ‘न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्’ – मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है. रवीन्द्रनाथ ने भी कहा है, “सबार उपरे मानुष सत्य तार उपरे नेई.” इस अवधारणा का विरोध करते हुए तिवारी जी कहते हैं, “ प्रकृति की शक्तियों से ही जिस मनुष्य का अस्तित्व संभव हुआ है, उस मनुष्य का अपने को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि मानना दंभ नहीं तो और क्या है? मनुष्य खुद को सर्वोपरि मानकर अन्य प्राणियों के प्रति न्याय नहीं कर पाता. सच तो यह है कि मनुष्य से भी श्रेष्ठ और उससे भी ऊपर उसी के बनाए- कमाये और अर्जित किए हुए मूल्य होते हैं, जिनके लिए वह अपने प्राण उत्सर्ग कर देता है.” ( विशवनाथप्रसाद तिवारी : साहित्य का स्वाधीन विवेक, पृष्ठ- 342). इसलिए साहित्य का लक्ष्य केवल मनुष्य नहीं हो सकता. करुणा को तिवारी जी महाभाव कहते हैं. करुणा ही वह भीतर की नमी है जिसके सूख जाने पर मनुष्य में कोई कल्याणकारी भाव पैदा हो ही नहीं सकता. “ ( विशवनाथप्रसाद तिवारी : साहित्य का स्वाधीन विवेक, पृष्ठ- 342). आजकल दलित विमर्श के विवाद जोरों पर हैं. दलित लेखकों द्वारा उठाए गए सहानुभूति और स्वानुभूति के मुद्दे पर विचार करते हुए वे सवाल करते हैं कि “दलित जीवन का वस्तुपरक चित्रण जरूरी है या दलित द्वारा किया गया चित्रण ?” वे संवेदनशीलता , कल्पनाशीलता, परकाया-प्रवेश और भाषिक क्षमता को एक रचनाकार की बुनियादी शक्ति मानते हैं. तिवारी जी सवाल करते हैं कि “ क्या प्रेमचंद की दलित विषयक कहानियों को पढ़ते हुए अत्याचार और उत्पीड़न के प्रति क्रोध और घृणा नहीं पैदा होती ? ( ‘समीक्षा’, अक्टूबर-दिसंबर, 2017, पृष्ठ- 26)
विश्वनाथप्रसाद तिवारी की आलोचना दृष्टि को समझने के लिए उनके दो बहुचर्चित आलोचनात्मक निबंधों से गुजरना जरूरी है, पहला है, “रामविलास शर्मा की बरसी पर आलोचना का कट्टरवाद” और दूसरा है ‘हंस’ के संपादक के छलात्कार’. ‘दस्तावेज’ में छपने के बाद इन दोनो निबंधों ने साहित्य की दुनिया में भारी वैचारिक कोलाहल पैदा किया था. अपने समय की साहित्यिक हलचलों में सक्रिय रहते हुए भी वे कभी किसी गुट से नहीं जुड़े. विनम्रता के साथ दृढ़ता, उदारता किन्तु अपने विचारों के प्रति प्रतिबद्धता, भारतीय मूल्यों के साथ विश्व चेतना तिवारी जी की समीक्षा की मुख्य विशेषताएं हैं. अकेले दम पर गोरखपुर जैसी छोटी जगह से ‘दस्तावेज’ जैसी पत्रिका का अविकल संपादन करके उन्होंने एक कीर्तिमान स्थापित किया है.
उनकी आलोचना की भाषा और शैली में सादगी भी है और अर्थगर्भत्व भी. साहित्य अकादमी के इतिहास में हिन्दी का एक लेखक पहली बार अध्यक्ष बना. इस रूप में तिवारी जी ने हिन्दी का गौरव बढ़ाया है.
तिवारी जी ने एम.ए. की कक्षाओं में मुझे पढ़ाया है. उनका छात्र होकर मैं गौरवान्वित हूँ.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)