हिन्दी के आलोचक – 20
कानपुर ( उ.प्र.) जिले के ‘महोली’ नामक गाँव में जन्मे, कानपुर तथा सागर में पढ़े-लिखे और सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभविद्यानगर, गुजरात में शिक्षक रहे शिवकुमार मिश्र ( 02.02.1931- 21.06.2013) प्रतिबद्ध मार्क्सवादी आलोचक हैं. ‘जनवादी लेखक संघ’ के राष्ट्रीय महासचिव और बाद में अध्यक्ष के रूप में उन्होंने लम्बे समय तक लेखक संगठन का नेतृत्व किया. उनकी समीक्षा साफ सुथरी और निर्णयात्मक है.
‘कामायनी और प्रसाद की कविता गंगा’, ‘वृंदावनलाल वर्मा : उपन्यास और कला’, ‘प्रगतिवाद’, ‘यथार्थवाद’, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धांत’, ‘साहित्य और सामाजिक संदर्भ’, ‘प्रेमचंद : विरासत का सवाल’, ‘भक्तिकाव्य और लोक जीवन’, ‘दर्शन, साहित्य और समाज’, ‘हिन्दी आलोचना की परंपरा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल’, ‘आलोचना के प्रगतिशील आयाम’, ‘नया हिन्दी काव्य’, ‘आधुनिक कविता और युग संदर्भ’, ‘मार्क्सवाद देवमूर्तियाँ नहीं गढ़ता’, ‘साहित्य : इतिहास और संस्कृति’, ‘साम्प्रदायिकता और हिन्दी उपन्यास’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं.
मिश्र जी की आलोचनाएं सैद्धांतिक भी हैं और व्यावहारिक भी. ‘यथार्थवाद’, ‘प्रगतिवाद’, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धांत’ आदि ग्रंथ उनकी सैद्धांतिक आलोचना के प्रमाण हैं. दूसरी ओर उन्होंने प्रेमचंद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, निराला और मुक्तिबोध के अलावा भक्तिकालीन कवियों, खासकर सूर और तुलसी पर बहुत ही व्यवस्थित और संतुलित समीक्षाएं लिखी हैं. भक्ति आन्दोलन के प्रगतिशील तत्वों को समझने में उनकी समीक्षा बड़ी कारगर साबित हुई है. ‘मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धांत’ नामक उनकी पुस्तक मार्क्सवाद के नए अध्येताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है. इस पुस्तक पर उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला था. चार खंडों में विभाजित इस पुस्तक में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन, उसके प्रमुख आधार स्तंभ, मार्क्सवादी चिन्तन की पृष्ठभूमि तथा इतिहास, मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन के प्रमुख पुरस्कर्ता, मार्क्सवाद के मूल साहित्यिक प्रश्न तथा हिन्दी में मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन का विस्तृत विश्लेषण किया है. उनकी दृष्टि की व्यापकता को इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन की परंपरा का विश्लेषण करते हुए भारतीय रस सिद्धांत का भी उसी परिप्रेक्ष्य में विस्तृत विश्लेषण किया है और साधारणीकरण के महत्व को स्वीकार किया है.
वे अपनी दो टूक राय देते हुए लिखते हैं, “ मार्क्सवादी समीक्षकों का रस सिद्धांत से मूल मतभेद उसकी भाववादी चिन्तन, उसकी दार्शनिक परिणति और उसकी लोकोत्तर व्याख्याओं से है. काव्यानुभूति और काव्यास्वाद के मानवीय धरातल पर उसकी अनेक निष्पत्तियाँ मार्क्सवादी विचारकों को स्वीकार हैं. यही बात साधारणीकरण के लिए भी सत्य है.” ( मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धांत, पृष्ठ- 510)
मिश्र जी ने साहित्य और कला को विशिष्ट मानवीय उपलब्धि स्वीकार करते हुए भाववादी कला चिन्तकों के विपरीत उसे सामाजिक संदर्भों से जोड़ा है तथा उसके मूल्यांकन के लिए सामाजिक प्रतिमानों को स्वीकार किया है. उनका मानना है, “ साहित्य और कलाओं के सामाजिक प्रतिमान का वास्तविक महत्व इस बात में है कि साहित्य और कलाएं जीवन को दूसरे बुनियादी पक्षों से स्वतंत्र नहीं, वरन् उनका ही एक अंग हैं और जीवन के दूसरे बुनियादी प्रश्नों से उनके महत्व का एकान्त मूल्यांकन नहीं किया जा सकता.” ( मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धांत, पृष्ठ- 405).
मिश्र जी के सर्वाधिक प्रिय लेखक प्रेमचंद हैं. प्रेमचंद पर उनकी दो पुस्तकें हैं, ‘प्रेमचंद : विरासत का सवाल’ तथा ‘प्रेमचंद की विरासत और गोदान’. मिश्र जी का प्रेमचंद से जुड़ाव का मुख्य कारण है कि प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य समाज सापेक्ष है. उन्हें मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया भी खास तौर पर प्रभावित करती है क्यों कि, “ रचना प्रक्रिया संबंधी मुक्तिबोध के विवेचन का यह सामाजिक आधार ही उसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है. यहाँ इस तथ्य का स्मरण रखना भी आवश्यक है कि विवेचन के सामाजिक आधार के बावजूद जहाँ तक साहित्य और कला की अपनी विशिष्ट प्रकृति का प्रश्न है मुक्तिबोध उनके प्रति पूरी तरह सचेष्ट रहे हैं.” ( साहित्य और सामाजिक संदर्भ, पृष्ठ- 56)
‘भक्तिकाव्य और लोकजीवन’ नामक उनकी पुस्तक भी खूब सराही गई. उन्होंने अपनी इस पुस्तक में भक्ति आन्दोलन के प्रगतिशील मूल्य को पहचाना और संत साहित्य को लोक जागरण के काव्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
मिश्र जी की स्मरण शक्ति अद्भुत थी. साहित्य के किसी भी विषय पर वे घंटों बोल सकते थे और बोलते थे. उनको सुनना रोचक संस्मरण सुनने जैसा होता था –मगर तथ्यपरक और उतना ही ज्ञानवर्धक भी. विषय पर उनकी पकड़ जितनी मजबूत और अवधारणाएं जितनी स्पष्ट हैं, भाषा भी उनकी उतनी ही सरल है. इतना ही नहीं, उनका आचरण भी उनकी भाषा की तरह ही सरल था.
अंतत: मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह के शब्दों में, “समालोचना के क्षेत्र में मार्क्सवादी विश्लेषण पद्धति को वे अनूठे ढंग से उपयोग में लाते हैं और किसी भी रचना के मूलभूत पाठ पर गहराई से विचार करते हैं. इसके साथ ही इतिहास की गतिमानता में किसी भी पाठ के बदलते हुए अभिप्रायों और संकेतों के आधार पर अपना निष्कर्ष निकालते हैं. घटनाओं की सापेक्षता और मानव संबंधों की क्रिया –प्रतिक्रिया में झाँकने की उनकी आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि अनोखी है. वे परंपरा में पगे हुए रसज्ञ पाठक की विचारभूमि से रचना प्रक्रिया को संदर्भ से काटकर कभी नहीं देखते.” (वाणी प्रकाशन समाचार, जून 2016, पृष्ठ- 5)
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)