हिन्दी के आलोचक – 33
कुशीनगर (उ.प्र.) जिले के शाहपुर- कुरमोटा गाँव में जन्मे प्रो. रामदेव शुक्ल (जन्म- 5.1.1938) सुधी आलोचक के साथ प्रतिष्ठित कथाकार भी हैं. उन्होंने रीतिकाल के दो महत्वपूर्ण कवियों- घनानंद और बिहारी का मूल्यांकन करने में मौलिक दृष्टि का परिचय दिया है. ‘घनानंद का श्रृंगार काव्य’, ‘आनन्दघन’, ‘सामंती परिवेश की जनाकाँक्षा और बिहारी’, ‘बिहारी के काव्य का पुनर्मूल्यांकन’, ‘निराला के उपन्यास’, ‘निराला के कथा-गद्य का आस्वादन’, ‘बिहारी-सतसई का पुनर्पाठ’ आदि उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. घनानंद के काव्य की आलोचना और उसकी व्याख्या का दायित्व एक बड़ी चुनौती स्वीकार करना है जिसे शुक्ल जी ने स्वीकार ही नहीं किया अपितु उसे भली-भाँति निभाया. ‘घनानंद का काव्य’ की प्रस्तावना में वे लिखते हैं,
“घनानंद मध्यकाल के सर्वाधिक विवादास्पद कवि हैं. एक ओर इन्हें साक्षात रसमूर्ति कहा गया तो दूसरी ओर इनके विपुल काव्य को नजर-अंदाज करते हुए इन्हें रीतिमुक्त फुटकर कवियों के खाते में डाल दिया गया. यदि इनके कतिपय समकालीन इन्हें ब्रजभूमि को कलंकित करने वाला पाप का भवन कहते हैं तो संप्रदाय के भीतर ये बहुगुनी नाम प्राप्त करते हैं और महात्माओं के भी पूज्य कहे जाते हैं. एक ओर कहा गया कि इनके भाग्य में प्रेम का हर्ष बदा ही नही था पर दूसरी ओर इनका काव्य इस बात का साक्ष्य उपस्थित करता है कि वह हर्ष इन्हें खूब मिला.
इन परस्पर विरोधी बातों से घनानंद के काव्य की असाधारण शक्ति का परिचय मिलता है. घनानंद एक मात्र कवि हैं जो प्रेम के लौकिक और आध्यात्मिक, दोनो छोरों की स्पष्ट व्याख्या करते हैं और उनमें से किसी को भी छोटा या उपेक्षणीय नहीं मानते.” ( घनानंद का काव्य, प्रस्तावना भाग ) इसी तरह उन्होंने बिहारी के काव्य का मूल्यांकन करते हुए उसे रीतिकाल के पतनोन्मुख समाज का चित्र नहीं बल्कि उस समय के खाते- पीते मध्यवर्गीय गृहस्थ जीवन का यथार्थ कहा है.
‘बिहारी- सतसई का पुनर्पाठ’ उनकी नवीनतम प्रकाशित आलोचना-कृति है जो व्याख्यात्मक आलोचना के क्षेत्र में नवीनतम और अन्यतम है. पिछले कुछ दशकों में इस तरह की गंभीर आलोचना कृति जिसमें कविता की भी गंभीर, मार्मिक और सूक्ष्म व्याख्या की गय़ी हो, दूसरी देखने को नहीं मिली.
रीतिकालीन काव्य में ‘बिहारी सतसई’ के कई दर्जन भाष्य लिखे जा चुके हैं जिनमें जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ कृत ‘बिहारी रत्नाकर’ जैसा महत्वपूर्ण भाष्य भी है. इसके बावजूद शुक्ल जी ने ‘बिहारी सतसई का पुनर्पाठ’ नाम से उसकी विस्तृत टीका लिखी और बिहारी के काव्य की विस्तृत समीक्षा भी. लगभग चार सौ पृष्ठों का यह ग्रंथ बिहारी के काव्य का सर्वाधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय अध्ययन कहा जा सकता है. ग्रंथ में महाकवि बिहारी की समीक्षा जिन शीर्षकों के अंतर्गत उन्होंने की है उन्हीं से बिहारी के प्रति उनकी समीक्षा- दृष्टि का बहुत कुछ अनुमान किया जा सकता है. ग्रंथ में उनके शीर्षक हैं, ‘पूर्वाग्रह ग्रस्त इतिहास लेखन’, ‘रीतिकाल के उपविभाजन की सीमाएं’, ‘सामंती परिवेश में सामान्य गृहस्थ जीवन का यथार्थ’, ‘प्रसंग -कल्पना जन्य अनर्थ’, ‘भाषा का जादू : शब्द- संयोजन–दृश्य- संयोजन’, ‘अन्योक्ति का शिल्प’, ‘बिहारी के काव्य में प्रेम और श्रृंगार का स्वरूप’, ‘बिहारी के काव्य में प्रकृति के यथार्थ चित्र’, ‘गृहस्थ कवि की भक्ति- चेतना’ और ‘बिहारी की सीमाएं : परिवेश का दबाव’.
बिहारी के अध्ययन के दौरान शुक्ल जी ने महसूस किया है कि, “बिहारी के दोहों की व्याख्या और उनकी परख में सबसे बड़ी बाधा है, हिन्दी के समालोचकों एवं व्याख्याकारों में मौलिकता का अभाव. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो बात किसी कवि या उसकी किसी रचना के विषय में लिख दी, उसी की व्याख्या नयी- नयी शब्दावली में प्रस्तुत करने का काम होता रहा है.” ( बिहारी सतसई का पुनर्पाठ, पृष्ठ-26) जबकि उनके अनुसार, “हिन्दी के इतिहास लेखक और समालोचक किस तरह रीतिकालीन काव्य और विशेषत: बिहारी सतसई की दुर्व्याख्या करते रहे हैं, इसके कुछ संकेत आगामी पृष्ठों में किए गए हैं.”
वे आगे लिखते हैं, “बिहारी के जिन थोड़े से ऊहा और अत्युक्ति वाले दोहों का उल्लेख करते हुए उनके प्रशंसक और निन्दक अपने- अपने आग्रह लेकर सामने आते हैं, वे परिवेश के दबाव में रचे गए दोहे हैं. उन पर यथास्थान विचार किया गया है. बिहारी सतसई के अधिकाँश दोहों में तत्कालीन समाज का गृहस्थ जीवन -विशेषत: श्रृंगार, नीति और भक्ति के क्षेत्र में कुशलता के साथ चित्रित हुआ है. बिहारी सतसई में चित्रित भक्ति भी ‘अपना लक्ष्य आप’ वाली आदर्श भक्ति नहीं है, वह गृहस्थ जीवन में आने वाली भक्ति- भावना है, जिसका आरंभ हिन्दी काव्य में विद्यापति से ही हो जाता है. गृहस्थ अपने और परिजनों के योग-क्षेम के लिए जिस प्रकार की भक्ति- भावना रखता है, उसी के चित्र इन दोहों में हैं.” ( बिहारी सतसई का पुनर्पाठ, भूमिका, पृष्ठ-6 )
निश्चित रूप से वे रीतिकालीन साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं. इसके अलावा उन्होंने निराला के साहित्य की भी समीक्षा की है और जयशंकर प्रसाद तथा लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों की भी. उनकी आलोचना में अनुसंधान की प्रवृति प्रमुख है. वैचारिक स्तर पर वे लोहिया के समाजवाद से गहरे प्रभावित लगते हैं. अकारण नहीं है कि कोलकाता के प्रख्यात समाजवादी स्व. अशोक सेक्सरिया से उनकी गहरी मैत्री थी.
जैसा कि मैंने आरंभ मे ही लिखा है, आलोचना, रामदेव शुक्ल के साहित्यकार व्यक्तित्व का एक पक्ष मात्र है. वे एक उच्च कोटि के कथाकार और नाटककार भी हैं. ‘ग्राम देवता’, ‘मन दर्पन’, ‘विकल्प’, ‘गिद्ध लोक’, ‘बेघर बादशाह’, ‘संकल्पा’, ‘अगला कदम’, ‘चौखट के बाहर’ आदि उनके महत्वपूर्ण उपन्यास तथा ‘पतिव्रता’, ‘उजली हँसी की वापसी’, ‘नीलांबर’, ‘अपहरब’ आदि उनके कहानी संग्रह हैं. ‘राजनीति के खिलाड़ी’ जैसी चर्चित नाट्यकृति के अलावा ‘अधूरा चित्र’, ‘कुब्जा की प्रीति’, ‘देश का रक्त’, ‘शुरुआत यहीं से’ आदि उनके रेडियो नाटक भी हैं.
प्रो. रामदेव शुक्ल महान शिक्षक हैं. गोरखपुर विश्वविद्यालय में उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं गौरवान्वित अनुभव करता हूँ. मेरे आग्रह पर वे कोलकाता आए थे और कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्मरणीय व्याख्यान दिया था. ‘अपनी भाषा’ संस्था द्वारा वर्ष 2002 और 2008 में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों को भी बतौर मुख्य अतिथि उन्होंने संबोधित किया था.
मेरे गाँव में आयाजित होने वाले ‘रामपुर उत्सव-2017’ कार्यक्रम में भी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति होकर उन्होंने हमें गौरवान्वित किया था और आज भी मुझे उनका स्नेह हासिल है.