रामविलास शर्मा : सभ्यता समीक्षक मार्क्सवादी ऋषि – डॉ. अमरनाथ

हिन्दी के आलोचक – 12

डा. रामविलास शर्मा

 कलकत्ता विश्वविद्यालय का भाषा विज्ञान विभाग देश का सबसे पुराना भाषा विज्ञान विभाग है. यहाँ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या और सुकुमार सेन जैसे भाषा वैज्ञानिक अध्यापन कर चुके हैं. एक दिन मैने उस विभाग के एक प्रतिष्ठित और वरिष्ठ प्रोफेसर से पूछा कि क्या वे भाषाविज्ञान के क्षेत्र में रामविलास शर्मा ( 10.10.1912 – 30.5.2000) के अवदानों से परिचित हैं ? तो उन्होंने उनके अवदानों से ही नहीं, उनके नाम से भी अपनी अनभिज्ञता जाहिर की. मैं हतप्रभ था, सोचने लगा कि यदि रामविलास शर्मा ने भाषाविज्ञान की अपनी किताबें अंग्रेजी में लिखी होतीं तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग के शिक्षक रामविलास शर्मा से परिचय की कौन कहे उन्हें कोर्स में रखने के लिए बाध्य होते. भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनकी अनेक स्थापनाएं इतनी महत्वपूर्ण हैं कि उनसे परिचित हो जाने के बाद किसी भी ईमानदार भाषावैज्ञानिक के लिए उनकी उपेक्षा कर पाना संभव न होता.

मार्क्सवादी ऋषि रामविलास शर्मा लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के गोल्डमेडलिस्ट थे, डॉक्टरेट थे और बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे. वे आजीवन अंग्रेजी पढ़ाते रहे किन्तु उन्होंने अपना सारा महत्वपूर्ण लेखन अपनी जातीय भाषा हिन्दी में किया – यह जानते हुए भी कि अंग्रेजी में लिखने से वे सहज ही अंतरराष्ट्रीय लेखक बन सकते थे। उन्होंने भाषाविज्ञान की किताबें हिन्दी में लिखकर यहाँ के बुद्धिजीवी वर्ग की औपनिवेशिक जड़ मानसिकता पर प्रहार तो किया ही, अपनी जाति के प्रति त्याग की एक अद्भुत मिशाल कायम की.

रामविलास शर्मा के महान कार्य का आज तक समुचित मूल्यांकन नहीं हो सका है. इसका एक कारण यह भी है कि वे एक कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते रहे. उनके पास हिन्दी पढ़ने वाले शिष्यों की न तो बड़ी सेना थी और न विश्वविद्यालयों में उनके अनुयायी और रिश्तेदार ही थे जिनका उन्हे समय- समय पर समर्थन मिल पाता. अपने जीवन के बहुमूल्य बीस साल उन्होंने सिर्फ भाषा विज्ञान के अध्ययन को दिया जिसका सुफल क्या निकला- इसका उदाहरण वह प्रसंग है जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है.

उत्तर प्रदेश के ‘ऊँचगाँव सानी’, जिला उन्नाव में जन्मे रामविलास शर्मा हिन्दी के महान आलोचक, भाषा वैज्ञानिक, निबंधकार, कवि, अनुवादक और चिंतक हैं. वे ऋग्वेद और मार्क्स के गहरे अध्येता, इतिहास वेत्ता और राजनीति-विशारद हैं. उन्हें सभ्यता समीक्षक कहा जा सकता है. उन्होंने सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की है. उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं, प्रेमचंद’, ‘प्रेमचंद और उनका युग’, ‘भारतेदु हरिश्चंद्र’, ‘निराला की साहित्य साधना’ (तीन खण्ड) ‘स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य’, ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना’, ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’, ‘भारत में अंग्रजी राज और मार्क्सवाद’, ‘संस्कृति और साहित्य’, ‘प्रगति और परंपरा’, ‘लोक जीवन और साहित्य’, ‘आस्था और सौन्दर्य’, ‘साहित्य : स्थाई मूल्य और मूल्यांकन’, ‘प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं’, ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’, ‘सन् सत्तावन की राज्यक्रान्ति और मार्क्सवाद’, ‘कथा विवेचना और गद्य-शिल्प’, ‘भारतीय सौन्दर्यबोध और तुलसीदास’, ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’(दो खण्ड), ‘स्वाधीनता संग्राम : बदलते परिप्रेक्ष्य’, ‘मार्क्स, त्रात्सकी और एशियाई समाज’, ‘पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद’, ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप’, ‘इतिहास दर्शन’, ‘भारतीय साहित्य की भूमिका’, ‘गाँधी, आम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ’, ‘मेरे साक्षात्कार’, ‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, ‘पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध- थेल्स से मार्क्स तक’, ‘लोकजागरण और हिन्दी साहित्य’, ‘रूप तरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि’, ‘प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल’ आदि.

उनकी रचनात्मक पुस्तकों में ‘चार दिन’ (उपन्यास), ‘पाप के पुजारी’ ( नाटक), ‘महाराजा कठपुतली सिंह’ (प्रहसन), ‘अपने धरती अपने लोग’ (तीन खंड, आत्मकथा), ‘बुद्ध वैराग्य तथा प्रारंभिक कविताएं’, ‘सदियों से सोए जाग उठे’ आदि ( कविताएं), ‘मित्र संवाद’, ‘अत्र कुसलम् तत्रास्तु’ ( पत्र साहित्य ) आदि प्रमुख हैं. उन्होंने ‘समालोचक’ नामक पत्र का संपादन भी किया है और प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव के रूप में लेखकों के संगठन का सफलता पूर्वक नेतृत्व भी किया है.  अपने विशाल मौलिक कार्य के द्वारा हिन्दी आलोचना को उत्कर्ष तक पहुँचाने में डॉ. शर्मा ने अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है.

रामविलास शर्मा के सबसे प्रिय आलोचक हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल. आचार्य शुक्ल प्रगतिशील दृष्टि सम्पन्न आलोचक हैं,  लेकिन उनकी आलोचना में यदा -कदा असंगतियाँ भी दिखायी देती हैं. ये असंगतियाँ उनके दार्शनिक दृष्टिकोण से संबंधित हैं और उनके सामाजिक, राजनीतिक तथा साहित्यिक दृष्टिकोण से भी. उदाहरणार्थ अपने दार्शनिक विचारों में वे भौतिकवादी प्रतीत होते हैं पर वे यह भी मानते हैं कि इस संसार का स्रष्टा एक अगोचर सत्ता है. यह भौतिकवाद नहीं, अपितु ‘वस्तुनिष्ठ भाववाद’ है. अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में उन्होंने एक ओर कबीरदास की प्रशंसा इसलिए की है कि मनुष्य की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और दूसरी ओर अपनी ‘गोस्वामी तुलसीदास’ नामक पुस्तक में उन्होंने तुलसीदास द्वारा समर्थित वर्ण व्यवस्था को समाज के लिए ‘आदर्श व्यवस्था’ कहकर पेश किया है.

डॉ. शर्मा ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण की सहायता से हिन्दी आलोचना को ऐसी तमाम विसंगतियों से मुक्त किया. शुक्ल जी ने तुलसी, जायसी और सूर पर विस्तृत आलोचना लिखकर मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा का अनुसंधान किया था जबकि डॉ. शर्मा प्रमुखत: आधुनिक काल के साहित्य के आलोचक हैं. उन्होंने  प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, रामचंद्र शुक्ल और महावीरप्रसाद द्विवेदी पर आलोचनात्मक पुस्तकें लिखकर आधुनिक हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील धारा का उद्घाटन किया. तुलसीदास पर उनकी कृति बहुत बाद में आई.

अपनी मान्यताओं के बारे में डॉ. शर्मा लिखते हैं कि “ यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने साहित्य की पुरानी परंपराओं से परिचित हों. परिचित होने के साथ -साथ हमें उनके श्रेष्ठ तत्वों को ग्रहण भी करना चाहिए …मेरा उन लोगों से मतभेद है जो साहित्य को समाजहित या अहित से परे मानकर केवल रूप की प्रशंसा करके आलोचना की इति कर देते हैं. उनके लिए बिहारी और तुलसीदास समान रूप से वंदनीय हैं. प्राचीन साहित्य का मूल्यांकन करते हुए मेरी दृष्टि में समाज का हित और अहित भूल नहीं जाना चाहिए.  यदि दरबारों में राजाओं की चाटुकारिता करते हुए भी श्रेष्ठ साहित्य रचा जा सकता था तो इसे संत कवियों की सनक ही माननी चाहिए कि वे दरबारों में आनंदपूर्वक समय न बिताकर चिमटा बजाते हुए रूढ़िवादियों का विरोध सहन करते रहे.” ( संस्कृति और साहित्य, भूमिका, पृष्ठ- 6-7)

डॉ. शर्मा के अनुसार साहित्य की प्रगतिशीलता का प्रश्न वास्तव में समाज पर साहित्य के शुभ और अशुभ प्रभाव का प्रश्न है. प्रगतिशील साहित्य तभी प्रगतिशील है, जब वह साहित्य भी है तथा श्रेष्ठ साहित्य सदा प्रगतिशील होता है. प्रगतिशील जीवनदृष्टि के कारण ही उन्होंने आदर्शवाद, निराशावाद, प्रतीकवाद, मनोविश्लेषणवाद, अभिव्यंजनावाद तथा राजनीति के क्षेत्र में साम्राज्यवाद, सामंतवाद, प्रतिक्रियावाद तथा साम्प्रदायिकता, धार्मिक रूढ़िवादिता आदि सभी ऐसी धारणाओं का प्रतिरोध किया है  जो प्रतिक्रियावादी अथवा यथास्थितिवादी है.

सौन्दर्य के प्रति रूढ़ मान्यताओं के विरुद्ध डॉ. शर्मा की दृष्टि मार्क्सवादी है. सौन्दर्य और नैतिकता के अनिवार्य रिश्ते को रेखांकित करते हुए उनका कहना है कि इन्द्रियबोध के स्तर तक जो सौन्दर्य सीमित है, उससे जरा ऊँचे उठकर जहाँ आप भावना और विचार के सौन्दर्य के स्तर पर जाते हैं वहीं नैतिकता का सवाल खड़ा हो जाता है. साहित्य से आनंद मिलता है यह अनुभव सिद्ध बात है, लेकिन साहित्य शास्त्र यहाँ समाप्त नहीं होता, बल्कि यहीं से उसका श्रीगणेश होता है. माना कि साहित्य से आनंद आता है, उससे आपके कर्ममय जीवन पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है? किस तरह के संस्कार आप के मन में बनते बिगड़ते है? सौन्दर्य का नैतिकता से संबंध स्वीकार करने का मतलब है सौन्दर्य की उपयोगिता स्वीकार करना. डॉ. शर्मा कहते हैं कि सहृदय कवियों के लिए सुन्दर कर्म से बाहर सौन्दर्य की सत्ता है ही नहीं. उनका साहित्य मानव कर्म से ही प्रभावित होता है, मानव कर्म को प्रभावित करने के लिए होता है.

डॉ. शर्मा के के अनुसार कला के दोनो आयाम रूप और वस्तु परस्पर अभिन्न हैं. पर रचना प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका विषय वस्तु की होती है. यही कारण है कि जैसी विषय वस्तु होती है प्राय: वैसा ही साहित्य का रूप भी होता है. डॉ. शर्मा ने बिहारी और मीरा की कविताओं के उदाहरण से इस तथ्य की पुष्टि की है. बिहारी रस और अलंकारों के महान ज्ञाता थे, परन्तु उनकी विषयवस्तु का सामाजिक आधार कमजोर था. ‘हुकुमपाय जैसाह‘ उन्होंने बड़े कलात्मक दोहे लिखे, परन्तु उस कलात्मकता में मध्यकालीन समाज का मनुष्य पराधीनता के बंधनों में बँधकर रह गया है. इसके विपरीत मीरा ने विभिन्न रूपों में इसी मुक्तिभावना की चेष्टा को व्यक्त किया है.

 रामचंद्र शुक्ल के अलावा भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद और निराला, रामविलास शर्मा के सर्वाधिक प्रिय लेखक हैं. भारतेन्दु और उनके युग के साहित्य की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा कि, “भारतेन्दु युग का साहित्य हिन्दी भाषी जनता का जातीय साहित्य है. वह हमारे जातीय नवजागरण का साहित्य है. भारतेन्दु युग की जिन्दादिली, उसके व्यंग्य और हास्य, उसके सरल सरस गद्य और लोक संस्कृति से उसकी निकटता से सभी परिचित हैं. ये उसकी जातीय विशेषताएं हैं.  अंग्रेजी साम्राज्यवाद और अंग्रेजी साहित्य एक ही वस्तु नहीं है. भारतेन्दु युग के साहित्य ने न केवल अंग्रेजी साहित्य से वरन् बंगला साहित्य से भी प्रेरणा पायी है. लेकिन उनके साहित्य की जड़ें इसी धरती में हैं और ऊपर से बतायी हुई उसकी जातीय विशेषताएं उसकी अपनी हैं, मौलिक हैं.”  ( भारतेन्दु युग और हिन्दी भाषा की विकास परंपरा, तीसरे संस्करण की भूमिका )

रामविलास जी के अनुसार आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की विशेषता यह है कि वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने वाली जनता की प्रमुख शक्तियों- किसान और मजदूर को पहचानते थे. वे देश के औद्योगिक विकास को महत्व देते थे. हिन्दी को उसका अधिकार दिलाने के लिए सचेष्ट थे. वे हिन्दी भाषी प्रदेश के नवजागरण के प्रतीक थे. उनका निश्चित मत है कि, “साहित्य में जो रीति -विरोधी क्रान्ति शुरू हुई उसका पहला चरण है द्विवेदी युग और उसी का विकास छायावाद और प्रगतिवाद में होता है. ये तीनों युग एक दूसरे से भिन्न है, साथ ही एक –दूसरे के पूरक भी हैं. द्विवेदी युग की भूमिका आधुनिक साहित्य का मार्ग प्रशस्त करने वाले अग्रदल की भूमिका है.” ( महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, पृष्ठ 277)

आलोचना के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल के महत्व की प्रतिष्ठा के लिए ही डॉ. शर्मा ने ‘आचार्य रामचंद्र शक्ल और हिन्दी आलोचना‘ नामक पुस्तक लिखी. इस पुस्तक में उन्होंने शुक्ल जी पर विभिन्न आलोचकों ने जो आक्षेप लगाए हैं उनका समुचित उत्तर दिया है और समग्र रूप से शुक्ल जी की आलोचना -दृष्टि तथा उनके आलोचना- कर्म का मूल्यांकन किया है. उन्होंने यथास्थान शुक्ल जी की असंगतियों का भी निर्देश किया है जिससे यह स्पष्ट होता गया है कि किस तरह शुक्लजी के बाद हिन्दी आलोचना वैज्ञानिक ढंग से विकसित हुई है.

उन्होंने प्रमेचंद को बहुत महत्व दिया है. प्रेमचंद को महत्व देने मुख्य का कारण यह है कि उन्होंने जनता को अपनी कला का शक्ति-स्रोत माना है.  वे इस बात के प्रमाण हैं कि जनता से अलग रहकर महान साहित्य की रचना संभव नहीं है.  वे ऐसे विरले लेखक हैं जिनकी रचनाओं से बाहर के साहित्य प्रेमी हिन्दुस्तान को पहचानते हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं से साम्राज्यवादियों द्वारा फैलाए हुए भ्रमों को छिन्न- भिन्न कर दिया.

निराला साहित्य की समीक्षा रामविलास शर्मा के समीक्षक व्यक्तित्व के चरम उत्कर्ष का प्रमाण है. उन्होंने तीन खण्डों में निराला की साहित्य साधना लिखकर जो ऐतिहासिक कार्य किया है उस तरह का आलोचना कार्य दूसरा नहीं दिखाई देता. विचारधारा, भावबोध, कला, गद्य साहित्य और परंपरा शीर्षकों  के अंतर्गत उन्होंने निराला के साहित्य की विशद समीक्षा की है. निराला की कविताओं से उदाहरण देते हुए उन्होंने उनकी रचना- पद्धति का भी विशद विश्लेषण किया है.

निराला के बाद रामविलास शर्मा ने मुख्यत: मुक्तिबोध, शमशेर और नागार्जुन के मूल्यांकन में विशेष रुचि ली है.  मुक्तिबोध के काव्य का विस्तृत मूल्यांकन करते हुए उन्होंने उनके अंतर्विरोधों को पहचाना है.  उनकी दृष्टि में मुक्तिबोध का काव्य उनके आत्मसंघर्ष का काव्य है.  उनके काव्य में अस्तित्ववाद का लघुमानव भी है और रहस्यवाद का विराट पुरुष भी. उनकी दृष्टि में मुक्तिबोध पर आरंभ से ही भाववादी विचारकों का प्रभाव था. 1942 से उन्होंने मार्क्सवादी विचार-धारा को अपनाया, किन्तु भाववाद के प्रभाव से वे मुक्त नहीं हो सके.

रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि मार्क्सवादी है. वे इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या करते हैं. सामंती और पूँजीवादी व्यवस्था में लिखे गए साहित्य की मूल प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए वे  प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी तत्वो की अलग -अलग पहचान बताते हैं. उन्होंने प्रत्येक युग के महत्वपूर्ण कवियों व साहित्यकारों की रचनाओं को परखकर उनमें सामाजिक जीवन की गतिमयता के लिए जितना पोषक और स्वास्थ्यकर है, उतने को पूरी शक्ति और विश्वास के साथ प्रस्तुत किया है. इसीलिए प्राचीन काल से लेकर आजतक के साहित्यकारों में उन्होंने कबीर, तुलसी, मीरा, भारतेन्दु, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद, वृन्दावनलाल वर्मा, निराला, प्रसाद, नरेन्द्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, मुक्तिबोध और नागार्जुन आदि को महत्व देते हुए अपने सिद्धांतों को व्यावहारिक स्तर पर पुष्ट किया है. हिन्दी साहित्य के इतिहास के पूरे ढाँचे को वे बदल देने का प्रयास करते हैं. उदाहरणार्थ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदि काल और मध्यकाल को अलग- अलग रखा है. रामविलास जी दोनो को सामंती युग के अंतर्गत रखते हुए कहते हैं, “ शुक्ल जी का आदिकाल वास्तविक मध्यकाल है. हिन्दी जनपदों के इतिहास का सामंतकाल है.” (  मानव सभ्यता का विकास, पृष्ठ 97) इसी तरह आचार्य शुक्ल ने जिसे पूर्व मध्यकाल कहा है उसे वे ‘लोकजागरण काल’ कहते हैं.  क्योंकि इस काल में सामंती ढाँचे के भीतर  व्यापारिक पूँजीवाद के विकास के फलस्वरूप नए आर्थिक संबंध विकसित हो चुके थे और एक नई सांस्कृतिक चेतना भक्त-कवियों के माध्यम से जागृत हो चुकी थी. उनके अनुसार 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के समय जो राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई थी, भारतेन्दु काल उससे सीधे जुड़ा हुआ है.

 रामविलास जी की कुछ कमजोरियाँ भी हैं. उन्होंने यशपाल, राँगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, रेणु आदि रचनाकारों के साथ न्याय नहीं किया है. वे यद्यपि स्वीकार करते हैं कि, “ कथा साहित्य में राहुल जी और यशपाल ने नया कदम उठाया है, अपनी कथाओं में अछूते विषयों पर लेखनी उठाई है और अनूठी कथावस्तु का गठन किया है “ ( संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ- 55)  यशपाल को वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल से मार्क्सवादी समझ लेने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं, “ यशपाल जी को मार्क्सवाद पर पुस्तकें लिखने का शौक है. वे अपनी गलत धारणाएं शुक्ल जी के अध्ययन से दूर कर सकते हैं.” ( आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना, पृष्ठ -8) इसी तरह ‘मैला आंचल’ के विषय में वे लिखते हैं, “ उसकी चित्रण –पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतवाद के निकट है. गतिशील यथार्थ में कौन से तत्व अधिक प्रगतिशील हैं, कौन से मरणशील, किन किन पर व्यंग्य करना चाहिए, वातावरण, घटनाओं आदि  के चित्रण पर वर्णन में कितनी बातें छोड़ देनी चाहिए और कितनी का उल्लेख करना चाहिए, कथा शिल्प की इन विशेषताओं में मैला आंचल का लेखक इन परंपराओं से दूर जा पड़ा है.” ( आस्था और सौन्दर्य, पृष्ठ -111)

यद्यपि डॉ. रामविलास शर्मा मूलत: आलोचक हैं, किन्तु उनका भाषा चिन्तन संबंधी कार्य उनके जीवन के प्रौढ़काल का कार्य है और इस कार्य में उन्होंने अपने जीवन के बहुमूल्य बीस वर्ष लगाए. उन्होंने भाषाविज्ञान से संबंधित अपने कार्यों को कितना महत्व दिया है –इसका आकलन इसी तथ्य से किया जा सकता है.

रामविलास शर्मा और भाषाविज्ञान की समस्याएं

भाषा समस्या और भाषाविज्ञान पर केन्द्रित उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- ‘भाषा और समाज’        ( 1961 ), ‘भारतेन्दु युग और हिन्दी भाषा की विकास परंपरा’ ( 1975 ), ‘भारत की भाषा समस्या’ ( 1978 ), ‘आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों का संबंध’ ( 1979 ), ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी’ ( तीन खण्ड, क्रमश: 1979, 1980 और 1981 में प्रकाशित ) तथा ‘ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिन्दी भाषा’ ( 2001).

रामविलास शर्मा का सारा लेखन सोद्द्श्य है. भारतीय समाज को बेहतर बनाने के लिए है.भाषाविज्ञान के क्षेत्र में जाने के पीछे भी कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं. उन्होंने भाषाविज्ञान के क्षेत्र में प्रचलित कुछ बुनियादी अवधारणाओं पर प्रश्न खड़े किए क्योकि वे अध्ययन गलत तथ्यों पर आधारित तो थे ही, हमारे समाज के बुद्धिजीवियों में औपनिवेशिक मानसिकता को पुष्ट करने वाले भी थे. इससे हमारी जातीय अस्मिता और स्वाभिमान पर चोट पड़ती थी. इतना ही नहीं, उनके अनुसार, “ परंपरागत ऐतिहासिक भाषाविज्ञान मगध, कोसल, कुरु आदि इतिहास प्रसिद्ध गणसमाजों की भाषाई विशेषताएं पहचानने नहीं देता, वह द्रविड़ भाषाओं से आर्य भाषाओं के बहुमुखी संबंधों को विजित- विजेता के एकमुखी संबंध बना देता है. वह पड़ोसी क्षेत्रों से हमारे भाषाई संबंध विकृत रूप में प्रस्तुत करता है. आधुनिक भाषाओं के समस्त विकास को ह्रास का इतिहास बना देता है. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान ने भाषा समुदायों के बारे में जिन धारणाओं का प्रचार किया है, उनका गहरा असर भारतीय जनता के सामाजिक जीवन पर पड़ा है. विभिन्न राजनीतिक दलों की कार्यवाही उक्त धारणाओं से प्रभावित होती है.  राजनीति ऐतिहासिक भाषाविज्ञान से असंपृक्त नहीं है, न ऐतिहासिक भाषाविज्ञान राजनीति से असंपृक्त है. भाषावैज्ञानिक चिंतन की प्रगति के लिए और भारतीय जनता की सामाजिक- सांस्कृतिक प्रगति के लिए आवश्यक है कि हम पूँजीवादी भाषाविज्ञान की रूढ़ियों से मुक्त हों.“ ( भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी, खण्ड-3, पृष्ठ-355)

रामविलास शर्मा स्वीकार करते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद योरप में भाषाविज्ञान के क्षेत्र में बहुत काम हुआ है. इसमें विवरणात्मक भाषाविज्ञान के प्रमुख आचार्य अमरीकी भाषावैज्ञानिक ब्लूमफील्ड और उनके बाद परिणामी (जेनरेटिव) व्याकरण के आचार्य नॉम चाम्स्की का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है. इन दोनो भाषावैज्ञानिकों ने पाणिनि के महत्व को अत्यंत श्रद्धा के साथ स्वीकार किया है. किन्तु रामविलास जी लक्ष्य करते हैं कि, “ स्वयं भारत में पाणिनि का जो मूल्यांकन अपेक्षित था, वह नहीं हुआ. पाणिनि और संस्कृत के भाषा वैज्ञानिक रिक्थ से प्रेरित होकर भारतीय भाषाविज्ञान को जो प्रगति करनी चाहिए थी, वह उसने नहीं की. इसका मुख्य सामाजिक कारण भारतीय सामंतवाद का ह्रास और उसके ह्रास काल में यहाँ अंग्रेजों का प्रभुत्व था.” ( भाषा और समाज, दूसरे संस्करण की भूमिका, पृष्ठ- 26)

इतना ही नहीं, रामविलास जी के अनुसार ब्लूमफील्ड का विवरणात्मक भाषाविज्ञान यांत्रिक भौतिकवाद से प्रभावित था और इसकी प्रतिक्रिया के रूप में चॉम्स्की का जो परिणामी भाषाविज्ञान आया वह भाववाद से प्रभावित है. चॉम्स्की के जेनरेटिव भाषाविज्ञान की मूल धारणा यह है कि एक विश्वजनीन व्याकरण का ढॉंचा प्रत्येक मनुष्य की चेतना में विद्यमान रहता है. इस विश्वजनीन आधार पर विभिन्न भाषाओं के व्याकरण का प्रतिफलन होता है. रामविलास जी के अनुसार, “ चॉम्स्की की मान्यताएं 19वीं सदी और उसके पहले के भाववादी पाश्चात्य वैयाकरणों के चिन्तन पर आधारित है. चॉम्स्की ने विवरणात्मक भाषाविज्ञान की जो आलोचना की है वह अनेक रूपों में महत्वपूर्ण और सारगर्भित है. उन्होंने और उनके सहयोगियों ने भाषाओं के विश्लेषण में ऐसी अनेक बातें कही हैं जिनसे पुराने विवरणात्मक भाषाविज्ञान की कुछ खामियाँ दूर की जा सकती हैं. पर यह परिणामी व्याकरण शास्त्र है उसी विवरणात्मक भाषाविज्ञान का अंग. “ ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 27)     

यहाँ उल्लेखनीय है कि ‘भाषा और समाज’ नामक अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका में रामविलास जी ने लिखा है, “ भाषा और समाज लिखने के समय परिणामी वैयाकरण सम्प्रदाय का जन्म हो रहा था, उसका विकास बाद में हुआ. किन्तु इस पुस्तक के पहले अध्याय में जहाँ इस मत का खण्डन किया गया है कि मनुष्य भाषा की रचना अपनी विशेष बुद्धि के कारण करता है, वहाँ उस भाववाद का भी खण्डन किया गया है जो परिणामी सम्प्रदाय की आधारभूमि है. “ ( उपर्युक्त, पृष्ठ -27) जाहिर है रामविलास जी रूपवादी या भाववादी नहीं, द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति के अनुयायी हैं.

रामविलास शर्मा की मुख्य देन ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की कमजोरियों का निराकरण है.  ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की धारणा है कि प्रत्येक भाषा परिवार का जन्म किसी आदि भाषा से हुआ है. इस प्रकार आदि आर्य, आदि द्रविड़, आदि सामी भाषाओं की कल्पना की गयी है. एक आदि भाषा जननी और दूसरी भाषाएं उसकी पुत्रियाँ. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के नाम पर जिस एक भाषा परिवार पर सबसे ज्यादा काम हुआ है वह भारोपीय अथवा इंडोयूरोपियन है. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की इस परंपरागत अवधारणा के अनुसार इस परिवार की प्राचीन और नवीन भाषाएं एक आदि इंडोयूरोपियन भाषा से उत्पन्न हुई हैं. इस आदि भाषा की अनेक शाखाएं हुईं जिनमें से एक शाखा के लोग भारत आए. ये भारतीय आर्य थे. आर्य विजेताओं ने यहाँ के मूल निवासियों को या तो पीछे खदेड़ दिया या फिर उन्हें परास्त करके दासों की तरह जीवन यापन करने के लिए बाध्य कर दिया.  इसी भारतीय आर्यभाषा से क्रमश: प्राकृतों और अपभ्रंशों का विकास हुआ. इसी सिद्धांत के तहत भाषा का विकास दिखाने के लिए आदि मध्य और आधुनिक आर्यभाषा अर्थात संस्कृत> प्राकृत >अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं की सुगम नसेनी तैयार की गयी।

रामविलास जी ने भाषाओं के विकास का अध्ययन समाज भाषाविज्ञान की पद्धति पर किया और भाषा परिवारों के संबंधों का वैज्ञानिक विश्लेषण, उनकी ध्वनि प्रकृति, भाव प्रकृति और मूल शब्द भंडार आदि के आधार पर करते हुए जो प्रामाणिक निष्कर्ष दिए वे विश्वसनीय तो हैं ही, हमारी राष्ट्रीय एकता  और जातीय स्वाभिमान को पुष्ट करने वाले हैं.

रामविलास शर्मा ने अध्ययन करके बताया कि जिसे हम भाषा कहते हैं वह स्वयं सामाजिक विकास की एक निश्चित मंजिल में ही सुलभ होती है. आदि मानव समाज का साधारण नियम है बोलियों का विखराव. जैसे किसी आदि पुरुष से मानव परिवार की उत्पत्ति नहीं हुई वैसे ही किसी आदि भाषा से कोई भाषा परिवार नही बना. भाषाओं के परिवार होते जरूर हैं किन्तु उनके निर्माण की प्रक्रिया यह नहीं है कि आदि भाषा के विकृत या परिवर्तित होने से नई -नई भाषाएं पैदा हो गयीं हैं.

रामविलास जी के अनुसार भाषा परिवार स्थिर और जड़ इकाई नहीं है. उसका विकास दूसरे परिवारों के साथ रहकर होता है. उन्होंने लिखा है, “ भाषा परिवार के निर्माण काल में उस परिवार की भाषाएं बोलने वाले मानव समुदाय गण समाजों में संगठित होते हैं. ये गण, कबीले, ट्राइब हजारों साल तक घुमंतू जीवन बिताते हैं. सामाजिक विकास क्रम में कृषि सभ्यता की मंजिल काफी देर से आती है. कृषि सभ्यता का आरंभ होने से पहले अपने घुमंतू जीवन के कारण विभिन्न गण समाज एक दूसरे के संपर्क में आते हैं. भाषा परिवारों के मूल तत्वों का निर्माण गण व्यवस्था की इस पहली मंजिल में होता है जब कबीले अधिकतर घुमंतू जीवन बिताते हैं. स्वभावत: ये मूल तत्व किसी एक कबीले के नहीं होते अनेक कबीलों के होते हैं. उन्हें ये कबीले अनेक स्रोतों से प्राप्त करते हैं. “ ( भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी , खण्ड-1, भूमिका, पृष्ठ-11)

इतना ही नहीं, “कृषि सभ्यता का विकास आरंभ होने पर गण समाजों का आपसी संपर्क समाप्त नहीं हो जाता वरन् और बढ़ता है, सुदृढ़ होता है. मिले और चल दिये की स्थिति से निकलकर निश्चित आवास भूमि में रहने वाले गण समाज आपस में अधिक टिकाऊ संबंध कायम करते हैं.“ ( उपर्युक्त, पृष्ठ-11)

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान में एक अन्य पूर्वाग्रह भी था जिसका संबंध औपनिवेशिक मानसिकता से है. ” पूर्वाग्रह यह है कि भारत में सदा बाहर से लोग आकर बसते रहे हैं. यहाँ के आदमी बाहर निकलकर कहीं बसने नहीं गए. भारत में जो भी आकर बस गया वह नए आक्रमणकारियों से पराजित हुआ. भारत का इतिहास यहाँ के जनसमुदायों की अटूट पराजय-श्रृंखला का इतिहास है. भाषाविज्ञान के लिए इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत प्राचीन काल से अब तक भाषा तत्वों का आयात केन्द्र रहा है, भाषा तत्वों का निर्यात केन्द्र कभी नहीं रहा. भारत का अपना भाषाई रिक्थ कुछ भी नहीं है. केवल आर्य नहीं, द्रविड़- कोल –नाग भी अपने भाषा तत्व बाहर से लाए. संसार के सभी भाषा परिवारों का निर्माण भारत से बाहर हुआ है, यहाँ किसी भाषा परिवार का निर्माण नहीं हुआ. आर्य, द्रविड़, कोल, नाग – इन चार परिवारों की भाषाएं बोलने वाले जनसमुदायों में कोई भी भारत का मूल निवासी नहीं है. ‘ ( उपर्युक्त, पृष्ठ-12)

रामविलास शर्मा को इन सारे पूर्वाग्रहों की तह में जाकर सचाई का पता लगाना था. उन्हें इस देश की सांस्कृतिक विरासत पर भरोसा था और इसीलिए वे इस काम में एकनिष्ठ होकर लग गए. उन्होंने तत्कालीन भाषाओं की भाव प्रकृति, ध्वनि प्रकृति और मूल शब्द – भण्डार का वैज्ञानिक विश्लेषण और तुलनात्मक अध्ययन करके यह स्थापित किया कि, “तथाकथित भारत यूरोपीय परिवार की संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, स्लाव आदि भाषाएं स्वतंत्र कुलों की भाषाएं हैं. इनमें जो सामान्य तत्व मिलते हैं उनका आधार इन भाषाओं या इनसे मिलती जुलती भाषाओं के बोलने वालों का परस्पर संपर्क है, न कि एक आदि भाषा से उनका जन्म. इस प्रकार संस्कृत, आदि- भारत- यूरोपीय- भाषा का उच्छिष्ट और विकृत रूप न होकर स्वतंत्र भारतीय भाषा सिद्ध होती है. यूरोप की भाषाओं पर संस्कृत और उसके समानान्तर बोली जाने वाली भाषाओं का असर पड़ा है न कि किसी कल्पित आदि आर्य भाषा से अनार्य संपर्क के कारण संस्कृत की उत्पत्ति हुई.” (भाषा और समाज, भूमिका, पृष्ठ -13)

दरअसल ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के विकास के दौर में भारत अंग्रेजों का उपनिवेश था. अंग्रेजों ने बड़े सूझ-बूझ से धर्म, जाति और भाषा के नाम पर यहाँ विभिन्न जातीय समूहों को लड़ाने का प्रयास किया और उसमें सफल भी हुए. रामविलास जी ने लक्ष्य किया कि भाषा के क्षेत्र में अंग्रेजों को यहाँ मुख्यत: दो भाषा समूह दिखायी दिये, “एक उत्तर भारतीय आर्य भाषा समूह और दूसरा दक्षिण भारतीय द्रविड़ भाषा समूह. यदि यह सिद्ध किया जाए कि आर्य आक्रमणकारियों ने भारत आकर द्रविड़ भाषाओं का दमन किया तो इसकी प्रतिक्रिया अंग्रेजों के लिए लाभप्रद होगी. कुछ इसाई धर्म प्रचारकों ने बड़ी लगन से और बड़ी सूझ-बूझ से द्रविड़ भाषाओं पर कार्य किया किन्तु उनके इस बहुत अच्छे काम का एक उद्देश्य यह भी था कि वे द्रविड़ भाषियों को समझाएं कि उत्तर भारत के ब्राह्मणों ने तुम पर अपनी भाषा लादी है, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य न केवल संस्कृत के चंगुल से निकलना है वरन् ब्राह्मण धर्म की दासता से मुक्त होना भी है. “ ( भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी, खण्ड-1,पृष्ठ- 36)

इस तरह रामविलास शर्मा ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की कमजोरियों को पहचाना, साम्राज्यवादियों  की साजिशों का पर्दाफाश किया तथा भारत को एक भाषायी क्षेत्र प्रतिष्ठापित किया. भाषा के विकास को लेकर पहले से प्रचलित एक जननी भाषा संस्कृत और उससे विकसित आधुनिक भारतीय भाषाओं की अवधारणा को खारिज किया. उन्होंने बताया कि भाषाओं का विकास वंश-वृक्ष की तरह नहीं हुआ है अपितु भाषाओं का विकास नदी की धारा की तरह होता है. जिस तरह पहाड़ों के बीच से निकलने वाली नदी जब समुद्र तक की यात्रा पूरी करती है तो उसके मार्ग के बीच-बीच में अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती और उसमें समाहित होती रहती है. उसी तरह भाषाओं का भी विकास होता है. हम जितना ही अपने अतीत में जायेंगे, भाषाओं की संख्या बढ़ती जाएगी. आज जो भी भाषायें जीवित हैं उनका विकास संस्कृत से नहीं बल्कि उन्हीं के पुराने रूपों से हुआ है.

अपनी अवधारणाओं की पुष्टि में रामविलास शर्मा को सबसे ज्यादा सहारा मिला है आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की मान्यताओं से. आचार्य वाजपेयी की स्पष्ट अवधारणा है कि वैदिक भाषा एक सुदीर्घ विकास का परिणाम है. “जब वेदों की रचना हुई उससे पहले ही भाषा का वैसा पूर्ण विकास हो चुका होगा. (भारतीय भाषाविज्ञान, वाराणसी, पृष्ठ-113) वैदिक भाषा का आधार एक जनभाषा थी. उसमें बहुत सा साहित्य रचा गया. वेदों की रचना से पहले छोटा-मोटा और हलका भारी न जाने कितना साहित्य बना होगा तब वेदों का नंबर आया होगा. वह सब काल कवलित हो गया.” ( भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी, खण्ड-1, भूमिका, पृष्ठ-14)

रामविलास शर्मा ने लक्ष्य किया कि ऐतिहासिक भाषाविज्ञान में भाषा के रूप तत्व पर अधिक जोर दिया गया, अर्थ तत्व की उपेक्षा की गयी. जबकि, इनमें किसी भी स्तर पर भाषा का विवेचन अर्थ तत्व को ध्यान में रखे बिना संभव नहीं है. उन्होंने अपने गंभीर अध्ययन और विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला कि “ समाजी भाषाविज्ञान, ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और विवरणात्मक भाषाविज्ञान परस्पर संबद्ध हैं, इन तीनों के मेल से बृहत्तर भाषा शास्त्र की इकाई निर्मित होती है, ध्वनि तंत्र, विन्यास तंत्र ( रूपतंत्र +वाक्य तंत्र) परस्पर संबद्ध हैं. इस इकाई में अर्थतत्व प्राण की तरह प्रतिष्ठित है. “( उपर्युक्त, पृष्ठ-22) उन्होंने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान संबंधी मान्यताओं की पुष्टि में प्रसिद्ध अमरीकी समाजविज्ञानी बोआस की स्थापनाओं का उल्लेख किया है और लिखा है, “ ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की विश्लेषण पद्धति की आलोचना अमरीकी समाज विज्ञान के प्रवर्तक बोआस ने भी की थी. विशेष रूप से एक ही आदि भाषा से किसी परिवार की अनेक भाषाओं के उत्पन्न होने के सिद्धान्त का उन्होंने खण्डन किया था. “ ( भाषा और समाज, भूमिका, पृष्ठ 23) किन्तु यह परंपरा आगे नहीं चली. स्विस भाषा वैज्ञानिक फर्डीनान्ड द सास्युर (1857-1913) का प्रभाव अधिक निर्णायक सिद्ध हुआ. सास्युर को आधुनिक भाषाविज्ञान का जनक माना जाता है. उन्होंने भाषावैज्ञानिक अध्ययन के लिए भाषा के कालक्रमिक या ऐतिहासिक संदर्भ के स्थान पर एककालिक संदर्भ को उचित ठहराया. भाषा को उन्होंने लांग ( भाषा -व्यवस्था ) और पैरोल ( भाषा-व्यवहार ) के द्वंद्वात्मक संबंध के रूप में समझना चाहा. भाषा को उन्होंने यादृच्छिक प्रतीकों की व्यवस्था कहा और संरचनात्मकता पर बल दिया अर्थात प्रत्येक स्तर पर ( ध्वनि, पद, वाक्य ) इकाइयों के अंत:संबंधों की व्यवस्था पर बल. इस तरह सास्युर ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का निषेध करके विकास की नई दिशाएं सुझाईं और भाषाविज्ञान का आगामी विकास इन्हीं में से कुछ दिशाओं में हुआ. यह आगामी विकास विवरणात्मक भाषाविज्ञान के रूप में सामने आया. बीसवीं सदी में विवरणात्मक भाषाविज्ञान को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय अमरीकी भाषावैज्ञानिक ब्लूमफील्ड को है.

रामविलास जी ने भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिए जिस शाखा को आधार बनाया उसे सोसियोलिंग्विस्टिक्स या समाज भाषा विज्ञान ( रामविलास जी ने उसे समाजी भाषाविज्ञान कहा है )  कहा जाता है. डॉ. शर्मा के अनुसार “चॉम्स्की से आरंभ होकर जो भाववादी विश्लेषण पद्धति आगे बढ़ी थी, इसे उसकी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है.” (भाषा और समाज, दूसरे संस्करण की भूमिका, पृष्ठ -47)

 रामविलास शर्मा ने इस क्षेत्र में विलियम ब्राइट( सोसियोलिंग्विस्टिक्स, 1971) तथा गुम्पर्ज और हाइम्स ( डाइरेक्शन्स इन सोसियोलिंग्विस्टिक्स,1972 ) का उल्लेख आदर के साथ किया है जिन्होंने कहा है कि समाजों के आपसी संबंधों और सामाजिक विकास की प्रक्रिया को समझे बिना भाषा का ऐतिहासिक विवेचन असंभव है.

रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति संबंधी अवधारणा

हिन्दी जाति के गठन और उसके विकास पर रामविलास शर्मा का काम अत्यंत महत्वपूर्ण है. उनके अनुसार किसी जाति के गठन में चार चीजें आवश्यक होती हैं- सामान्य भाषा, सामान्य भौगोलिक क्षेत्र, सामान्य संस्कृति और सामान्य आर्थिक जीवन. इन चारो में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक सामान्य भाषा है. रामविलास जी के सामने सबसे पहली समस्या तो यह थी कि इस देश में, बल्कि पूरी दुनिया में जातियों की अवधारणाएं रेखांकित की गयी है किन्तु हिन्दी जाति की अवधारणा से ही अनेक भाषा वैज्ञानिक और इतिहासकार इनकार करते हैं. आश्चर्य यह है कि इनमें कई भारतीय भी हैं. इन्हीं में सुनीति कुमार चाटुर्ज्या और अशोक रामचंद्र केलकर जैसे लेखक हैं. रामविलास जी के अनुसार, “ इस संदर्भ में डॉ. सुनीति कुमार और डॉ. केलकर में अन्तर यह है कि डॉ. सुनीति कुमार पहले हिन्दी जाति और उसके क्षेत्र का अस्तित्व पहचानते थे और उसका स्पष्ट वर्णन करते थे. स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जैसे-जैसे प्रादेशिक पूँजीवादी राष्ट्रवाद ने सर उठाया, वैसे वैसे ये पुरानी मान्यताएं बदलने लगीं. डॉ. केलकर ने इस समस्या पर तब लिखा जब यह प्रादेशिक पूँजीवादी राष्ट्रवाद हिन्दी द्वेष की आग भड़का रहा था और अमेरिकी साम्राज्यवाद को इस बात से विशेष दिलचस्पी हो गयी थी कि भारत सुदृढ़ और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में संगठित होकर आगे न बढ़े “ ( भाषा और समाज, दूसरे संस्करण की भूमिका, पृष्ठ 51)

रामविलास शर्मा ने इस विषय पर विस्तार से लिखा. इसके हर पहलू पर लिखा और अन्तिम दिनों तक इस मुद्दे पर सक्रिय बने रहे. उन्होंने गणों से सामंतयुगीन लघुजातियों और फिर पूँजीवादी महाजाति के निर्माण का विस्तृत और प्रामाणिक अध्ययन किया है और निष्कर्ष निकाला कि प्राक्सामंतीय जनों और सामंतयुगीन लघुजातियों के विघटन और एकीकरण से महाजातियों का निर्माण होता है. महाजाति का निर्माण एक सुदीर्घ प्रक्रिया है. पश्चिम के उन देशों में भी –जहां पूँजीवाद का विकास सबसे अधिक हुआ है. यह प्रक्रिया पूरी तरह अभी भी संपन्न नहीं हुई है, किन्तु महाजातियों के निर्माण के पहले हम उनकी जातीय भाषाओं की कल्पना भी नहीं कर सकते.

रामविलास जी का मत है कि  “जातीय भाषाएं किसी आर्थिक व्यवस्था का सांस्कृतिक प्रतिबिंब नहीं हैं. उनके भाषा तत्वों का निर्माण आर्थिक आधार पर नहीं होता. बोलियों या किन्हीं लघु जातियों की भाषाओं के रूप में उनका अस्तित्व पहले भी रहता है, किन्तु महाजातियों की भाषा के रूप में उनका अस्तित्व पहले नहीं होता. उदाहरण के लिए दिल्ली या आगरे की जो बोली हिन्दी –उर्दू के रूप में विकसित हुई, वह पहले एक छोटे से क्षेत्र में सीमित थी. जब वह अवध, बुन्देलखण्ड, भोजपुरी प्रदेशों की सम्मिलित भाषा बनी, तब उसका क्षेत्र व्यापक हो गया, वह हमारी जातीय भाषा बनी.” भाषा और समाज, पृष्ठ 258)

रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘भाषा और समाज’ का एक पूरा अध्याय जातीय भाषा के गठन और प्रसार पर केन्द्रित है. इसमें उन्होंने भाषा के विकास की प्रक्रिया का भी वैज्ञानिक ढंग से  विश्लेषण किया है. उनकी दृष्टि में “भाषाओं के परिवर्तन के दो मुख्य कारण हैं- आन्तरिक और बाह्य. ….मनुष्य निरंतर प्रकृति के संसर्ग में अपना विकास करता रहा है और निरंतर इस प्रकृति पर हावी होने का प्रयत्न करता रहा है. मनुष्य और प्रकृति का अन्तर्विरोध सनातन है. समस्त सभ्यता का विकास इस अन्तर्विरोध को हल करने का परिणाम है. जीवित रहने के लिए मनुष्य जिस प्रकृति के मुकाबले खड़ा होता है उसपर वह सामुदायिक प्रयत्न से ही क्रमश: विजय पाता है. उसके जीवन की आवश्यकताएं निरंतर बढ़ती जाती हैं, प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करने, उसपर विजय प्राप्त करने की आवश्यकताएं निरंतर बढ़ती जाती हैं. भाषा में परिवर्तन और विकास का यह मुख्य कारण है.

समाज में व्यक्तिगत संपत्ति के उद्भव, नए श्रम- विभाजन के चलन और वर्गों के निर्माण के साथ समाज के भीतर नए अन्तर्विरोध उत्पन्न होते हैं. सभ्यता और ज्ञान के प्रसार के साथ भाषा में परिवर्तन और विकास अपेक्षित होता है. यह दूसरी तरह का अंतर्विरोध भाषागत परिवर्तन का दूसरा कारण है.“ ( ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा, पृष्ठ -44)

जातीय भाषा के क्रमिक विकास का विश्लेषण करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं, “ भाषा बोलने वाला समुदाय विकास की विभिन्न अवस्थाओं में एकरूप नहीं रहता. मनुष्य पहले छोटे-छोटे गण समाजों में संगठित होते हैं. फिर ये विभिन्न गण समाज अपने गणसंघ बनाते हैं. गणसंघ बनाने के समय  किसी भी गणविशेष की भाषा की वही स्थिति न रहेगी जो उसके अलगाव के समय में थी. परस्पर विनिमय के बढ़ने के साथ भाषा तत्वों का विनिमय भी बढ़ता है. गणव्यवस्था समाप्त होने पर सामंती व्यवस्था का चलन होता है. रक्त संबंध पर आधारित गण समाज टूट जाते हैं या बड़े समाजों में समेट लिए जाते हैं. वर्णाश्रम धर्म वाला यह छोटे पैमाने का उत्पादन करने वाला समाज जनपदों में गठित होता है. पुन: व्यापार के प्रसार और पूंजीवादी संबंधों के निर्माण के साथ ये जनपद अलगाव की स्थिति में नहीं रह जाते. सामंती व्यवस्था के जनपद टूट जाते या और बड़े संगठनों में समेट लिए जाते हैं. इस नए संगठन का नाम है जाति. “ ( उपर्युक्त, पृष्ठ-44)

 रामविलास शर्मा के अनुसार जातीय भाषा के प्रसार का सबसे अधिक श्रेय व्यापार को है. औद्योगिक क्रान्ति से देश के विभिन्न भागों के बीच संपर्क बढ़ता है, जातीय बाजार का गठन और भी सुदृढ़ होता है. जातीय भाषा का और भी अधिक प्रचार-प्रसार होता है किन्तु जातीय भाषा बन चुकी होती है किसी बोली के आधार पर व्यापार के कारण पहले ही.

इस तरह  रामविलास शर्मा जातीय भाषा के विकास का संबंध औद्य़ोगिक पूँजीवाद से पहले की मंजिल व्यापारिक पूंजीवाद से जोड़ते हैं – सोलहवीं-सत्रहवीं सदी से. इसी समय उत्तर भारत के विखरे हुए बाजार एक-दूसरे से संबद्ध हुए. योरप के व्यापारी अवध का बना हुआ कपड़ा आगरे में खरीदते थे. रामविलास जी लिखते हैं,” पेलसार्ट ने लिखा था कि गुजरात, सिंध, लाहौर, दकन हर तरफ का माल आगरे से गुजरता है. सड़कों पर बेशुमार माल –खास कर सूती माल –ढोया जाता है. पटना, बनारस, लखनऊ – ये सभी शहर सूती कपड़ों के व्यापार – केन्द्र थे. मुगल शासन के अंतर्गत आर्थिक और राजनीतिक दोनो रूपों में वे परस्पर संबद्ध थे. इन बड़े नगरों में आस-पास के देहात से जुलाहों की बड़ी तादाद सिमट आती थी. रोटी-रोजी की तलाश में अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले लोग इन शहरों में इकट्ठा होते थे. इनमें आपस के व्यवहार के लिए किसी सामान्य भाषा की आवश्यकता थी. इस आवश्यकता को पूरा किया व्यापारी वर्ग से संबद्ध खड़ी बोली ने. “ (भाषा और समाज, पृष्ठ -274)

यह खड़ी बोली मूलत: दिल्ली की बोली थी. हिन्दी भाषी प्रदेश में दिल्ली व्यापार और राजनीतिक जीवन का केन्द्र रहा है. दिल्ली की बोली के आधार पर हिन्दी-उर्दू का विकास हुआ. आगरा भी दिल्ली से जायादा दूर नहीं है. अवधी और भोजपुरी के क्षेत्रों में भी अनेक व्यापार केन्द्र कायम हुए थे किन्तु वे दिल्ली और आगरे के समान शक्तिशाली न थे बल्कि उनके अधीन थे. इसके अलावा तुर्कं और मुगलों के शासन काल में दिल्ली, उत्तर भारत में राजसत्ता का बहुत बड़ा केन्द्र थी. इस कारण भोजपुरी या अवधी जातीय भाषा के रूप में विकसित न हो सकी. जातीय भाषा बनी दिल्ली केन्द्र वाली खड़ी बोली.

रामविलास शर्मा का दृढ़ मत है कि जो लोग हिन्दी जाति का अस्तित्व अस्वीकार करते हैं और हिन्दी भाषा की एकता खण्डित करना चाहते हैं, वे कहीं न कहीं भारत की राष्ट्रीय एकता का भी विरोध करते हैं. कारण यह कि इस राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने का माध्यम हिन्दी ही है.

इतना ही नहीं, उनका स्पष्ट मत है कि,” जो भाषा विज्ञानी ब्रज, अवधी आदि पुरानी जनपदीय भाषाओं के साहित्य को हिन्दी से अलग करते हैं वे जातीय विकास की प्रक्रिया के प्रति अपना अज्ञान प्रकट करते हैं. …… जिन लघु जातियों के मिलने से जाति का निर्माण होता है उनकी भाषाओं में रचा हुआ पुराना या नया साहित्य उस जाति का साहित्य तो माना ही जाएगा. फिर यदि ब्रज भाषा लिखने वाले आधे से ज्यादा ब्रज के बाहर के हों, तो उनके रचे हुए साहित्य को केवल ब्रज जनपद का साहित्य कैसे कहा जा सकता है ?  हिन्दी प्रदेश में जो साहित्य रचा गया है वह चाहे ब्रजभाषा में हो, चाहे अवधी में, चाहे खड़ी बोली हिन्दी में, यह ऐतिहासिक तथ्य है कि उसका प्रसार किसी एक जनपद तक सीमित नहीं रहा. हिन्दी द्वेषी भाषाविज्ञानी इस प्रयत्न में हैं कि हिन्दी की सारी साहित्यिक विरासत से हिन्दी जनता को वंचित कर दिया जाय, फिर हिन्दी भाषा के क्षेत्र को स्वतंत्र जनपदों में बाँटकर उसके जातीय अस्तित्व को छिन्न भिन्न कर दिया जाय. इस तरह जब हिन्दी की एकता नष्ट हो जाएगी तब उन विद्वानों की अपनी भाषाओं की बहुसंख्यक श्रेष्ठता सिद्ध हो जाएगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि तब भारत में हिन्दी नहीं, अंग्रेजी राष्ट्र भाषा बनी रहेगी.“ ( भाषा और समाज, दूसरे संस्करण की भूमिका, पृष्ठ-56)

रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भाषा और समाज’ के दूसरे संस्करण की भूमिका में उक्त बातें कही थी. यह भूमिका 1976 ई. में लिखी गई थी किन्तु उनकी आशंका आज आकार ग्रहण कर रही है.  वर्ष 2003 में हिन्दी की एक बोली मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके उसे हिन्दी से अलग कर दिया गया और आज जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं तो मुझे आशंका है कि आज से कुछ दिन बाद ही हिन्दी की दो सबसे महत्वपूर्ण बोलियों- भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जायेगा क्योंकि इसकी पूरी भूमिका बना ली गई है.

रामविलास शर्मा ने लक्ष्य किया कि हमारे देश में साम्राज्यवादी प्रभुत्व और सामंती अवशेषों के कारण जातीय निर्माण की प्रक्रिया अवरुद्ध रही है. इसलिए यहाँ इस तरह के प्रश्न महत्वपूर्ण हैं कि ब्रज या बुन्देलखण्ड की भाषा किसी स्वतंत्र जाति की भाषा है या वह हिन्दी भाषा की बोली है. सामंती व्यवस्था में लघुजातियों के निर्माण और पूँजीवादी व्यवस्था में उनके विघटन की प्रक्रिया समझे बिना इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता. रामविलास शर्मा ने गणों से लघुजातियों और लघुजातियों से महाजातियों के विकास का विस्तार से अध्ययन किया है और बताया है कि महाजातियों का निर्माण पूंजीवादी दौर में ही संभव है. भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को स्वतंत्र भाषा बताना सामंती मानसिकता का परिचय देना है.  उन्होंने बार – बार इंगित किया कि यदि भोजपुर क्षेत्र की जनपदीय चेतना सिर्फ भोजपुरी में और अवध की जनपदीय चेतना सिर्फ अवधी में ही संभव है तो फिर कबीर और तुलसी की संवेदना से राजस्थान से लेकर बिहार तक का विविध बोली भाषी क्षेत्र सांस्कृतिक ऐक्य का अनुभव कैसे कर सका ? ध्यान रहे रामविलास जी मनुष्य के सांस्कृतिक इतिहास को भाषा के इतिहास से अभिन्न मानते हैं. आखिर भाषा मनुष्य की महत्वपूर्ण अर्जित संपत्ति है. हमारे पूर्वजों ने किस तरह भाषा की संपत्ति अर्जित की, इसकी जानकारी राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान के लिए आवश्यक है.

तात्पर्य यह कि हिन्दी या हिन्दुस्तानी एक जाति है. यह भारत की सबसे बड़ी जाति है. इसका अपना एक क्षेत्र है. इसका गठन उसी पद्धति से हुआ है जिस पद्धति से रूसी, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश आदि जातियों का हुआ अर्थात् व्यापार द्वारा पूँजीवादी संबंधों के प्रसार से. भारत में अकेले हिन्दुस्तानी जाति का गठन नहीं हुआ. यहाँ बांग्ला, मराठी, गुजराती आदि भाषाएं बोलने वाली जातियों का भी गठन हुआ. किन्तु अनेक कारणों से हिन्दी जाति में अन्य जातियों की तुलना में जातीय चेतना का अभाव पाया जाता है. रामविलास जी ने उन कारणों की विस्तृत पड़ताल की है. 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम ( जो खास तौर पर हिन्दी क्षेत्र में लड़ा गया और जिसके नाते यह क्षेत्र अंग्रेजों द्वारा विशेष रूप से दबाया गया ) विशाल क्षेत्र, बहुकेन्द्रियता और असंतुलित विकास आदि इसके प्रमुख कारण हैं.

डॉ. रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति के विषय में नंदकिशोर नवल की टिप्पणी उल्लेखनीय है. “ डॉ. शर्मा की आलोचना शैली न भारतीय है, न पाश्चात्य है. वह मार्क्सवादी है. तात्पर्य यह है कि उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य आलोचना शैली में से जो तत्व ग्रहण करने योग्य थे उन्हें ग्रहण करके मार्क्सवादी आलोचना की पद्धति पर अपनी आलोचना शैली का विकास किया है. उन्होंने आवश्यक होने पर भाव, रस, गुण, अलंकार और शब्द –शक्ति के साधनों से भी काम लिया है और पाश्चात्य आलोचना शैली के वस्तु एवं रूप संबंधी विश्लेषण के साधनों से भी. उनकी आलोचना की भाषा शुक्ल जी की आलोचना की भाषा से एक भिन्न स्तर की भाषा है. उसमें जितनी सरलता है उतनी ही रोचकता भी है. ये दोनो चीजें धोखा देने वाली हैं. सरल और रोचक भाषा अपने भीतर गंभीर विचार और विश्लेषण छिपाए रहती है जिसे देखने के लिए सधी हुई निगाह आवश्यक है. उसमें जो हास्य-व्यंग्य के तत्व हैं वे भारतेन्दु और शुक्लजी में मिलने वाले हास्य-व्यंग्य के तत्वों का विकसित रूप हैं. डॉ. शर्मा की आलोचना में उन्हीं आलोचकों जैसी निर्भीकता भी है. उसमें सूर्य की किरणों जैसी तीक्ष्णता है जो सारे आडंबर को चीर कर वास्तविकता का ज्ञान करा देती है. उनकी आलोचना न तो पुस्तकीय है, न पाण्डित्यपूर्ण. वह जीवन में काम आने वाली आलोचना है. वह पाठकों के साथ चलती है और साहित्य के संबंध में उन्हें इस तरह शिक्षित करती है कि उसे पहचानकर जीवन में उसका ठीक ठीक उपयोग कर सकें. डॉ. शर्मा ने ध्वंसात्मक शैली में प्रचुर मात्रा में आलोचना लिखी है, लेकिन उनकी ध्वंसात्मक आलोचना भी सृजनात्मक है, क्योंकि वह केवल ध्वंस नहीं करती निर्माण भी करती है. उनमें हम हमेशा एक चीज को टूटने और दूसरी चीज को बनते देखते हैं. उन्होंने विचारधारा के क्षेत्र में न कभी समझौता किया न किसी भटकाव को माफ किया है. इस कारण उन्होंने प्रगतिशील साहित्यकारों की भी कटु आलोचना की है. उन पर संकीर्णतावादी और कुत्सित समाजशास्त्री होने का आरोप लगाया गया है जो पूर्णतया निराधार है. वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं जिन्होंने मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र को ठीक से समझकर उसे साहित्य के क्षेत्र में लागू किया है और उसके आधार पर आलोचना लिखी है. मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र को लेकर हिन्दी में तरह तरह की भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं. डॉ. शर्मा की आलोचना ने सबों का निवारण किया है. उनके सिद्धांत और व्यवहार में पूर्ण संगति है. उन्होंने जिस किसी साहित्यकार पर विचार किया है, उसकी समग्रता में. उन्होंने हिन्दी की प्रगतिशील साहित्यिक परंपरा की व्यख्या की है और बतलाया है कि यह परंपरा जितनी जातीय है उतनी ही राष्ट्रीय भी. उनके पहले हिन्दी आलोचना वस्तुत: कविता की ही आलोचना थी.  उन्होंने कविता, कथा साहित्य, नाटक और आलोचना, इन सबों की आलोचना की है. कहने की आवश्यकता नहीं कि डॉ. शर्मा एक प्रतिबद्ध ही नहीं, पक्षधर आलोचक हैं. हिन्दी आलोचना को उनकी सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने साहित्य में शुक्ल जी के भौतिकवादी दृष्टिकोण को वैज्ञानिक रूप से विकसित कर उसे सामाजिक परिवर्तन के एक साँस्कृतिक अस्त्र के रूप में और अधिक कारगर बना दिया है.” ( हिन्दी आलोचना का विकास, पृष्ठ- 276)

निष्कर्ष

रामविलास शर्मा अकेले ऐसे आलोचक हैं जिनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, इतिहास, राजनीति आदि को एक साथ लेकर उसका मूल्यांकन करते हैं. उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है.

रामविलास शर्मा के अनुसार यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा. अँग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है. भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अँग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है. समाज को बाँटकर ही अँग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया भी है.

हिंदी साहित्य और साहित्यकारों के विषय में रामविलास शर्मा की स्थापनाएं प्राय: स्वीकार कर ली गई हैं.  भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, रामचंद्र शुक्ल आदि के बारे में जो छवि रामविलास जी ने निर्मित की है वह लगभग सर्वस्वीकृत है. हाँ, सुमित्रनंदन पंत, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल और मुक्तिबोध पर उन्होंने जो लिखा है वह हिन्दी के बौद्धिक जगत में विवादास्पद बना हुआ है. किन्तु, अपनी ईमानदारी, चरित्र और विचारों के प्रति आस्था को लेकर वे असाधारण रूप से निर्विवाद हैं.

अपनी कथनी और करनी में साम्य के लिए मशहूर रामविलास शर्मा को अपने जीवनकाल में अनेक सम्मान मिले. सम्मान के साथ धनराशि भी मिलती थी. उन्हें जितने सम्मान मिले, उसका सम्मान तो उन्होंने स्वीकार कर लिया, किन्तु कोई धनराशि ग्रहण नहीं की. सारा धन उन्होंने हिन्दी के विकास अथवा बच्चों के शिक्षार्थ दान कर दिया. यहाँतक कि जब उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला तो पुरस्कार के साथ उन्हें पंद्रह दिन तक सोवियत संघ की यात्रा का निमंत्रण भी मिला. उन्होंने सम्मान लिया और यात्रा ठुकरा दी. रामविलास शर्मा ऐसे साहित्यकार हैं जो कभी विदेश नहीं गए. उनका कोई चित्र किसी नेता या मंत्री के साथ नहीं मिलता. जब उन्हें व्यास सम्मान मिला तो खुद बिड़ला जी उन्हें वह सम्मान देने उनके घर गए. यह बिड़ला जी का बड़प्पन भी था और डॉ. शर्मा के प्रति उनका सम्मान भी.

मार्क्सवाद को रामविलास शर्मा सिद्धांत से अधिक चिंतन पद्धति मानते हैं. इसीलिए मार्क्सवाद से संबंधित उनकी कई अवधारणाएं सामान्य मार्क्सवादियों को नहीं पचतीं. उदाहरणार्थ सर्वहारा की तानाशाही का सिद्धांत वे नहीं मानते हैं. उनका कहना है कि सर्वहारा का वर्चस्व व्यवस्था में हो, तानाशाही में नहीं, क्योंकि किसी भी स्थिति की तानाशाही अंतत: तानाशाही को ही बढ़ावा देती है. मार्क्सवादी सिद्धांतकार के रूप में उनका योगदान यह है कि उन्होंने इस चिंतन पद्धति का उपयोग स्वतंत्र रूप से भारतीय संदर्भ में किया और हिंदी के पाठकों के दिमाग से यह भ्रम दूर कर दिया कि मार्क्सवाद विदेशी विचारधारा है. उन्होंने कहा कि भारत को समझने के लिए वेदों सहित तमाम संस्कृत साहित्य को पढ़ना होगा और उन्होंने उनका गहन अध्ययन भी किया. रामविलास शर्मा ऐसे मार्क्सवादी हैं जिन्होंने ऋग्वेद पर ग्रंथ लिखे, जिन्हें वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास जैसे कवि सबसे ज्यादा पसंद हैं. उन्होंने बताया कि तुलसी का पूरा साहित्य ही सामंतवाद विरोधी मूल्यों से भरा पड़ा है. इसके लिए उन्होंने ‘तुलसी-साहित्य के सामंत विरोधी मूल्य’ नाम से लंबा निबंध लिखकर आलोचकों का मुँह बंद कर दिया.

रामविलास शर्मा को साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, शताब्दी सम्मान, शलाका सम्मान, भारत भारती सम्मान आदि बहुत से सम्मान मिल चुके हैं. किन्तु उनके लेखन, वैचारिक प्रतिबद्धता और आचरण को देखते हुए सारे पुरस्कार और सम्मान छोटे पड़ जाते हैं. इन सबके प्रति वे निस्पृह थे. उनके लेखन को केन्द्र में रखकर कई पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें रविभूषण लिखित ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ विशेष उल्लेखनीय है. ‘दस्तावेज’, ‘वसुधा’, ‘कल के लिए’, ‘उद्भावना’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ आदि पत्रिकाओं ने उनके ऊपर विशेषांक प्रकाशित किए हैं.

ऐसे लेखक, जो इस समाज को सुन्दर बनाने के लिए अपनी कलम का सर्वोत्तम इस्तेमाल करते हैं और व्यवस्था से कभी समझौता नहीं करते, उनमें रामविलास शर्मा अन्यतम हैं.

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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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