पं. परशुराम चतुर्वेदी : अनुसंधानपरक आलोचना के आचार्य – डॉ. अमरनाथ

हिन्दी के आलोचक – 7

परशुराम चतुर्वेदी

‘उत्तरी भारत की संत-परंपरा’ जैसी अभूतपूर्व शोधकृति के प्रणेता पं. परशुराम चतुर्वेदी ( 25.7.1894-3.1.1979) का जन्म जिला बलिया, उत्तर प्रदेश के गंगा के किनारे स्थित ‘जबहीं’ नामक गांव में हुआ था. परशुराम चतुर्वेदी की प्रारंभिक शिक्षा उस दौर में प्रचलित महाजनी पद्धति से हुई. पारिवारिक पृष्ठभूमि के अनुसार उन्हें प्रारंभ में ही संस्कृत की भी शिक्षा दी गई.  चतुर्वेदी जी की प्रांरभिक शिक्षा उनके जिला मुख्यालय बलिया में तथा आगे की शिक्षा प्रयाग में हुई। प्रयाग में इनके सहपाठियों और मित्रों में आचार्य नरेन्द्र देव, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. बाबूराम सक्सेना, सुमित्रानंदन पंत जैसे मनीषी थे.

 प्रयाग से एल.एल.बी. करने के बाद 1925 में चतुर्वेदी ने अपने गृह जनपद बलिया में वकालत शुरू की. रोजी रोटी के लिए वकालत करने वाले चतुर्वेदी जी का मन वकालत में कम और साहित्य के अध्ययन और अनुसंधान में अधिक लगता था। यद्यपि आरंभ में वे कविताएं लिखते थे. गणेश शंकर विद्यार्थी अपने ‘प्रताप’ में उनकी कविताएं आमतौर पर प्रकाशित करते थे। धीरे- धीरे साहित्य के अध्ययन में वे इतने रम गए कि कविता पीछे छूट गई. इनके अध्ययन का मुख्य क्षेत्र मध्यकालीन साहित्य था और उसमें भी खासतौर पर भक्तिकालीन साहित्य. सबसे पहले 1934 में उन्होंने ‘संक्षिप्त रामचरितमानस’ का संपादन किया जो हिन्दुस्तानी प्रेस बाँकीपुर से प्रकाशित हुआ. बाद में ‘मानस की रामकथा’ नाम से यह लंबी भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ। यह ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ का उसकी कथा के आधार पर किया गया आलोचनात्मक अध्ययन है. इसमें विभिन्न देशों और भाषाओं में उपलब्ध रामकथा का विस्तृत परिचय और विश्लेषण है. यह पुस्तक दो खंडों मे है. एक खंड में भूमिका है और दूसरे में मानस का मूल पाठ दिया गया है. रामकथा पर केन्द्रित चतुर्वेदी जी के आलोचना कर्म को देखकर ही कुछ विद्वानों ने उन्हें ऐतिहासिक- सांस्कृतिक धारा का आलोचक माना है.

 ‘उत्तरी भारत की संत परंपरा’, ‘भारतीय प्रेमाख्यान की परंपरा’, ‘संत साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर साहित्य की परख’, ‘वैष्णव धर्म’, ‘मध्यकालीन श्रृंगारिक प्रवृत्तियाँ’, ‘मध्यकालीन प्रेम साधना‘ ‘हिन्दी काव्यधारा में प्रेम प्रवाह’, ‘मीराबाई की पदावली’, ‘सूफी काव्य संग्रह’, ‘संत काव्य’, ‘नव निबंध’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं. इस तरह उनका मुख्य क्षेत्र मध्यकालीन इतिहास और साहित्य है. परशुराम चतुर्वेदी की मुख्य प्रवृत्ति अनुसंधान की है. साहित्य और इतिहास पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं,

“आज हम अपने राष्ट्र की जीवन यात्रा के पथ पर एक महत्वपूर्ण स्थल तक आ पहुंचे हैं. हमारे सामने कुछ नवीन समस्याएं उपस्थित हैं. आज हमें ऐसा लग रहा है कि हमारा भविष्य जो रूप ग्रहण करने जा रहा है वह हमारे पूर्व परिचित आदर्शों से कुछ विलक्षण भी हो सकता है. … ऐसा प्रतीत होता है कि हमें अपनी निधि के अमूल्य रत्नों को भी एक बार फिर से परखना होगा. हमें अपने चिर परिश्रम द्वारा अर्जित उपयोगी संबल को भी कम कर देना पड़ेगा और आगे के लिए केवल उसी को अपनाना होगा जो उसके अनुकूल हो.”( भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक रेखाएं, दृष्टिकोण, पृष्ठ-4)

परशुराम चतुर्वेदी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समीक्षा-कृति है ‘उत्तरी भारत की संत परंपरा’. इस पुस्तक को हरदेव बाहरी ने “उत्तरी भारत के संतों और उनके संप्रदायों का विश्वकोश” कहा है. संतों की परंपरा और उनके लक्षणों का विश्लेषण करते हुए परशुराम चतुर्वेदी अपनी उक्त पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, “कबीर साहब के कतिपय पूर्ववर्ती व्यक्तियों में भी संतों के अनेक लक्षण पाए जाते हैं, किन्तु वे सभी बातें उनमें पूर्णत: विकसित हुई नहीं दीख पड़तीँ. कबीर साहब के समय से ऐसे लोगों का एक तांता सा लग जाता है, जो उनसे प्रत्यक्ष रूप में प्रभावित न रहते हुए भी, लगभग उसी प्रकार का जीवन व्यतीत करते हैं. ये लोग भी पहले स्वतंत्र साधक ही रहा करते हैं, किन्तु आगे चलकर इनके पंथ वा संप्रदाय भी बनने लग जाते हैं. तब से उनका ध्यान अपनी व्यक्तिगत साधना की ओर से अधिक सामूहिक संगठन एवं प्रचार की ओर भी बंटने लग जाता है और उनका प्रधान लक्ष्य क्रमश: छूटता चला जाता है. किन्तु जिस परिस्थिति ने इस परंपरा को सर्वप्रथम जन्म दिया था, उसके प्राय: उसी रूप में वर्तमान रहने के कारण अंत में महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक नयी लहर एक बार फिर जागृत हो उठती है.” (उत्तरी भारत की संत परंपरा, वक्तव्य, पृष्ठ-1)

अपनी इस पुस्तक में चतुर्वेदी जी ने गाँधी जी को भी एक संत माना है और कबीर साहब से लेकर महात्मा गांधी तक के संप्रदायों का विस्तृत अध्ययन किया है. अध्ययन के लिए संतों के चयन के आधार का विवेचन करते हुए वे लिखते है, “संत परंपरा के अंतर्गत सम्मिलित किए जाने वाले संतों का चुनाव करते समय सबसे अधिक ध्यान स्वभावत: उन लोगों की ओर ही दिया गया है जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से कबीर साहब अथवा उनके किसी अनुयायी को अपना पथप्रदर्शक माना था अथवा जिन्होंने उनके द्वारा स्वीकृत सिद्धांतों और साधनाओं को किसी न किसी प्रकार अपनाया था.  फिर भी यहां कुछ ऐसे लोगों को भी स्थान देना पड़ गया है जो सूफियों, सगुणोपासकों, नाथपंथियों वा अन्य ऐसे संप्रदायों के साथ संबद्ध रहते हुए भी संत परंपरा में गिने जाते आए हैं और जो अपने संतमतानुकूल सिद्धांतों वाली रचनाओं के आधार पर भी उक्त संतों के अत्यंत निकटवर्ती समझे जा सकते हैं. संतों की ‘रहनी’ में लक्षित होने वाला ‘सहजभाव’ एक ऐसी विशेषता है जो किसी भी असाधारण व्यक्ति के जीवन स्तर को बहुत ऊंचा कर देती है. महात्मा गाँधी ने कबीर साहब आदि संतों की भाँति पदों वा साखियों की रचना नहीं की और न उनकी भाँति उपदेश देते फिरने का कोई कार्यक्रम रखा. परंतु जिस प्रकार उन्होंने अपने निजी अनुभवों के आधार पर अपने सिद्धांत स्थिर किए और उन्हें अपने जीवन के प्रत्येक पल में व्यवहृत कर दिखलाया, वह ठीक उन संतों के ही अनुसार था.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-2)

अपनी इस पुस्तक में चतुर्वेदी जी ने कबीरपंथ, नानकपंथ, दादूपंथ, बावरी पंथ, मलूक पंथ, बालाजी संप्रदाय, धामी संप्रदाय, सत्तनामी संप्रदाय, धरणीश्वरी संप्रदाय, दरियादासी संप्रदाय, दरियापंथ, शिवनारायणी संप्रदाय, चरमदासी संप्रदाय, गरीब पंथ, पानप पंथ, रामसनेही संप्रदाय, साहिब पंथ, नांगी संप्रदाय, राधास्वामी सत्संग से लेकर महात्मा गांधी तक के सैकड़ों संप्रदायों और उनसे जुड़े संतों का विवेचन किया है. नानकदेव, अंगद गुरु, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरगोविन्द, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविन्द सिंह, वीर बंदा बहादुर, शेख फरीद, जंभनाथ, सिंगाजी, भीषनजी, दादूदयाल, सुंदरदास, राघोदास, दुखहरन, धरनीदास, भीखराम, कीनाराम, पलटू, स्वामी रामतीर्थ जैसे कई दर्जन संतों का विस्तृत परिचय दिया है. इस महान कार्य के लिए उन्हें निश्चित रूप से गांव- गांव, मंदिर- मंदिर दौड़ना पड़ा होगा. कहा  जाता है कि मीरा पर काम करते हुए वे मीरा के परिवार के महाराजा अनूप सिंह से भी मिले थे जो आसान नहीं था। कुछ लोग उन्हें गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला बताकर उनका उपहास उड़ाते थे और निन्दा करते थे. किन्तु चतुर्वेदी जी पर इन अपवादों का कोई असर नहीं हुआ.

पं. परशुराम चतुर्वेदी की एक पुस्तक ‘संत काव्य-धारा’ नाम से है जो 1952 में प्रकाशित हुई. इसमें संत-कवि जयदेव से लेकर स्वामी रामतीर्थ जैसे अनेक संत-कवियों की रचनाएं संकलित हैं. संग्रह की शुरूआत में चतुर्वेदी जी ने लिखा है कि ये संत कवि आत्मचिंतन एवं स्वानुभूति के आधार पर अपनी रचनाएं निर्मित करते गए. चतुर्वेदी के लेखों के एक संग्रह का शीर्षक है ‘नव-निबंध’ यानी नई खोज से लिखे गए निबंध. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में समय- समय पर छपे लेख इसमें संकलित हैं.  इन लेखों में विविधता है. शोध-आधारित ये लेख विद्यापति, शेख, आलम, बिहारी, देव, घनानंद, बोधा, ठाकुर आदि पर केन्द्रित तो हैं ही, भारतेंदु काल की हिंदी कविता में जातीयता जैसे विषयों पर भी हैं. इसी तरह बौद्ध मत के सिद्धों द्वारा लिखी गई रचनाओं पर भी उनकी एक पुस्तक प्रकाशित है जिसका शीर्षक है, ‘बौद्ध सिद्धों के चर्यापद’. इस पुस्तक में चर्यापद के रचनाकारों, उनके दार्शनिक चिंतन और इन रचनाओं पर समाज-संस्कृति के प्रभाव पर गहरा शोध किया गया है.

पेशे से वकील होते हुए और बलिया जैसे छोटे से शहर में रहने के बावजूद मध्यकालीन साहित्य और संस्कृति पर किया गया उनका कार्य बहुत महत्वपूर्ण है. ‘उड़ीसा में अवशिष्ट बौद्ध धर्म’, ‘दक्षिण और उत्तर भारत का सांस्कृतिक आदान- प्रदान’, ‘सिख धर्म का सांस्कृतिक विकास’ आदि उनके निबंध जो ‘भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक रेखाएं’ मे संकलित हैं, उनकी आलोचना के प्रतिनिधि उदाहरण माने जा सकते हैं. मीराबाई के महत्व को स्थापित करने वाले वे आरंभिक आलोचकों में हैं.  ‘मीराबाई की पदावली’ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने मीरा के काव्य और भक्ति के उपलब्ध दो सौ पदों का पाठान्तरों और अपेझित टिप्पणियों के साथ विस्तृत विश्लेषण किया है. इसी तरह ‘सूफी काव्य संग्रह’ में उन्होंने उस समय तक उपलब्ध प्रमुख सूफी कवियों की रचनाओं को पहली बार संकलित ही नहीं किया अपितु उसपर विस्तृत आलोचनात्मक टिप्पणियां भी लिखीं.

पाठालोचन के क्षेत्र में भी चतुर्वेदी जी ने महत्वपूर्ण कार्य किया हैं. उन्होंने ‘दादूदयाल ग्रंथावली’ का पाठ संपादन किया जिसे नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी ने सन् 1966 में प्रकाशित किया. यद्यपि इसके पूर्व दादू की रचनाओं के कम से कम छ: संस्करण प्रकाश में आ चुके थे किन्तु कबीर की तरह दादू की बानियां भी मौखिक और लिखित दोनो रूपों में उपलब्ध थी. कबीर की तरह दादू भी पढें- लिखे नहीं थे. जाहिर है उनकी बानियाँ भी उनके शिष्यों ने ही लिखी होंगी. छंद और व्याकरण की त्रुटियां भी कम नहीं रही होंगी. इस समस्त सामग्री का बड़ी गंभीरता और पाठालोचन की अद्यतन प्रणाली का विनियोग करते हुए चतुर्वेदी जी ने दादू के पाठ को संपादित करने का स्तुत्य प्रयास किया है.  

संत काव्य के संपादन के दौरान चतुर्वेदी जी ने राजस्थान के पुस्तकालयों में उपलब्ध पाण्डुलिपियों का भी गंभीर अनुशीलन किया है और बहुत सी मौलिक सामग्री को ढूंढ निकाला है. उनके मूल्यांकन में कथ्य और शिल्प, दोनो के संतुलन का ख्याल रखा गया है. इसी तरह ‘हिन्दी काव्यधारा में प्रेम- प्रवाह’ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर अपने समय तक की प्रचलित प्रेम- पद्धतियों का वैज्ञानिक ढंग से विवेचन किया है.

अध्ययन और अनुसंधान में निरंतर लगे रहने वाले चतुर्वेदी जी कभी किसी संप्रदाय से नहीं बंधे. अनुसंधान उनका स्वभाव था. उनका जीवन भी मानवता के कल्याण के लिए समर्पित था. 3 जनवरी 1979 को इस अप्रतिम मनीषी का निधन हो गया.

हिंदी के आलोचक – अनुक्रम के लिए क्लिक करें

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

More From Author

रामदेव शुक्ल : व्याख्यात्मक आलोचना के अंतिम स्तंभ – डॉ. अमरनाथ

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है- भारतेंदु हरिश्चंद्र

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *