हिन्दी के आलोचक – 5
काशी में जन्म लेने वाले, काशी और प्रयाग में पढ़े-लिखे और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रथम अध्यक्ष रहे बाबू श्यामसुंदर दास (14.07.1875- 08.08.1945)काशी नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापक थे. इतना ही नहीं, वे ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ के भी प्रथम संपादक तथा ‘सरस्वती’ पत्रिका के भी प्रथम संपादक थे. इस तरह वे एक सफल प्रबंधक, अध्यापक, संपादक, अन्वेषक, इतिहासकार, कोशकार, वृत्त लेखक, निबंधकार तथा आलोचक थे. आलोचना के क्षेत्र में उनकी प्रमुख देन उनका ‘साहित्यालोचन’ नामक ग्रंथ है. इस ग्रंथ की रचना उस समय हुई थी जब हिन्दी में आलोचनात्मक ग्रंथों का पूर्णत: अभाव था. इसे बाबू श्यामसुन्दर दास ने एम.ए. के विद्यार्थियों की जरूरतों को ध्यान में रखकर लिखा था. इसकी अधिकांश सामग्री उन्होंने विलियम हेनरी हडसन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘एन इन्ट्रोडक्शन टू द स्टडी आफ लिटरेचर’ से ग्रहण की है और विवेचन का आधार वर्सफोर्ड की पुस्तिका ‘जजमेन्ट इन लिटरेचर’ है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस पर टिप्पणी करते हुए इसे ‘लिखी या संकलित की है’ कहकर विवादास्पद बना दिया. यद्यपि यह निश्चित है कि बाबूजी ने सिद्धांत और सामग्री तो दूसरों से ग्रहण की है परन्तु उसे प्रस्तुत करने का ढंग उनका अपना है, जो मौलिक है. इस ग्रंथ में उन्होंने साहित्य, कविता, गद्यकाव्य, दृश्यकाव्य, रस, शैली और साहित्य की आलोचना से संबंधित पाश्चात्य लेखकों के विचारों को बहुत क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया है.
आचार्य शुक्ल की संकलन वाली उक्त अवधारणा से डॉ. नगेन्द्र सहमत नहीं हैं और कहते हैं कि, “जहाँ तक नवीन विचारों तथा काव्य सिद्धांतों की उद्भावना का प्रश्न है, बाबूजी क्या हिन्दी का कोई भी आलोचक या विचारक इस श्रेय का अधिकारी नहीं है. यहाँ मौलिकता का अभिप्राय विवेचन की ही मौलिकता से है. बाबूजी ने अपनी सफाई में यही तर्क उपस्थित किया है और जहाँ तक इस सिद्धांत का संबंध है, हम सर्वथा उनसे सहमत हैं. “(आस्था के चरण, पृष्ठ-469). यहाँ उल्लेखनीय है कि बाबू श्यामसुन्दर दास ने स्वयं स्वीकार किया है, “इस ग्रंथ की समस्त सामग्री मैने दूसरों से प्राप्त की है. परन्तु उस सामग्री को सजाने, विषय को प्रतिपादित करने तथा उसको हिन्दी भाषा में व्यंजित करने में मैने अपनी बुद्धि से काम लिया है.” ( साहित्यालोचन, भूमिका ). पश्चिम की मान्यताओं को स्वीकार करने में उन्हें कोई संकोच नही हैं और उनका मानना है कि “आज हिन्दी को पूर्व और पश्चिम- दोनो के समालोचना शास्त्र को देखकर अपना शास्त्र बनाना है. “(साहित्यालोचन, पृष्ठ-364). इस संबंध में उनकी दृष्टि वैज्ञानिक और उदार है. वे लिखते हैं, “जब दो जातियों में परस्पर संबंध हो जाता है – चाहे वह संबंध मित्रता का हो चाहे अधीनता का हो, चाहे व्यवहार या व्यवसाय का हो, तब उसमें परस्पर भावों, विचारों आदि का विनिमय होने लगता है. जो जाति अधिक शक्तिशालिनी होती है उसका प्रभाव शीघ्रता से पड़ने लगता है और जो कम शक्तिशालिनी या नि:सत्व होती है अथवा जो चिरकाल से पराधीन होती हैं, वह शीघ्रता से प्रभावित होने लगती हैं.”( साहित्यालोचन, पृष्ठ-55).
आलोचक से अधिक बाबू श्यामसुन्दर दास का महत्व हिन्दी भाषा और साहित्य के पठन- पाठन के प्रबंधन और उसके विकास में योगदान की दृष्टि से है. उन्होंने हिन्दी भाषा और लुप्तप्राय अनेक कवियों पर खोजपूर्ण लेख लिखे. उनकी इस भूमिका पर टिप्पणी करते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “ बाबू साहब ने बड़ा भारी काम लेखकों के लिए सामग्री प्रस्तुत करने का किया है. हिन्दी पुस्तकों की खोज के विधान द्वारा आपने साहित्य का इतिहास, कवियों के चरित्र और उनपर प्रबंध आदि लिखने का बहुत सा मसाला इकट्टा करके रख दिया. इसी प्रकार आधुनिक हिन्दी के नए- पुराने लेखकों के संक्षिप्त जीवन वृत्त ‘हिन्दी कोविदमाला’ के दो भागों में संग्रहीत किए हैं. शिक्षोपयोगी तीन पुस्तकें ‘भाषा विज्ञान’, ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ तथा ‘साहित्यालोचन’ – भी आपने लिखी या संकलित की हैं.“ ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ – 495)
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उक्त तीनों पुस्तकें एम.ए. के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर तैयार की गई थीं. ‘कबीर ग्रंथावली’ की भूमिका, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ तथा ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’ उनके व्यावहारिक आलोचना के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं. उक्त ग्रंथों के अलावा बाबू श्यामसुन्दर दास ने बहुत बड़ी संख्या में साहित्य और लेखकों से संबंधित खोजपूर्ण आलोचनात्मक निबंध लिखे. इन निबंधों में भाषा और लिपि, काव्य और नाट्यशास्त्र के अतिरिक्त चंदबरदाई, रासोकाव्य, गोस्वामी तुलसीदास आदि अनेक कवियों और लेखकों पर उन्होंने लिखा है.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने शोध-कार्य की नींव रखी. उन्होंने ही 1928 ई. में डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल को निर्गुण काव्यधारा पर शोध के लिए प्रेरित किया और उनके इस शोध-कार्य से विश्वविद्यालय में शोध-प्रक्रिया की शानदार शुरुआत हुई. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का उक्त शोध- कार्य बाबू श्यामसुंदर दास के निर्देशन में ही पूरा हुआ और वह कृति ‘हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय’ शीर्षक से प्रकाशित और खूब चर्चित भी हुई. इस तरह बाबू श्यामसुंदर दास काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोध-कार्य के पथ-प्रदर्शक कहे जा सकते हैं.
बाबू श्यामसुन्दर दास ने सैद्धांतिक आलोचनाएं भी लिखी हैं और व्यावहारिक भी. साहित्यालोचन तथा रूपक रहस्य जैसे ग्रंथ उनकी सैद्धांतिक आलोचना के उदाहरण हैं. उनकी व्यावहारिक आलोचनाएं उनके सैद्धांतिक आलोचना के मानदंडों पर ही आधारित हैं. उनकी आलोचना शैली मुख्यत: व्याख्यात्मक है. हिन्दी भाषा और साहित्य में उन्होंने इसी शैली का प्रयोग किया है. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में, “ व्याख्या की पूर्णता के लिए विवेचन, तुलना, निष्कर्ष, उदाहरण, निर्णय आदि आवश्यक उपकरणों का भी यथास्थान बाबूसाहब ने प्रयोग किया है. तुलसी की प्रबंधपटुता पर विचार करते हुए आपने ‘वाल्मीकि रामायण’, ‘हनुमन्नाटक’ और ‘अध्यात्म रामायण’ के कथा- प्रसंगों से ‘रामचरितमानस’ की तुलना की है. इसी प्रकार उनके प्रकृति वर्णन की विशेषता बताते हुए आपने सूरदास और केशवदास का भी उल्लेख किया है. बाबूसाहब की व्यावहारिक समीक्षा में प्रासंगिक रूप से यह तुलनात्मक शैली बराबर प्रयुक्त हुई है. ( हिन्दी का गद्य साहित्य पृष्ठ- 512) कवियों का मूल्यांकन करते हुए निबंध के अंत में उन्होंने प्राय: निष्कर्ष रूप में निर्णय भी दे दिया है. तुलसी की कला का विवेचन करते हुए अंत में लिखा है, “ संक्षेप में तल्लीनता, प्रबंधपटुता, रचना -चातुर्य, भाषा सौष्ठव, रस परिपाक, अलंकार योजना आदि चाहे जिस दृष्टि से देखें, गोसाईं जी में हम सभी दशाओं में कला का अन्यतम उत्कर्ष पाते हैं. “ (उद्धृत, हिन्दी का गद्य साहित्य , पृष्ठ- 512)
अपनी आत्मकथा में उन्होंने अपना भाषा विषयक दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए लिखा है, “ शब्द प्रयोग की दृष्टि से सबसे पहला स्थान शुद्ध हिन्दी के शब्दों को, उसके पीछे संस्कृत के सुगम और प्रचलित शब्दों को, इसके पीछे फारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों को और सबसे पीछे संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को स्थान दिया जाय. फारसी आदि विदेशी भाषाओं के कठिन शब्दों का प्रयोग कदापि न हो.“ ( मेरी आत्म कहानी, पृष्ठ -72)
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया ‘पृथ्वीराज रासो’ तथा ‘कबीर ग्रंथावली’ का संपादन ऐतिहासिक कार्य है. ‘पृथ्वीराज रासो’ का एक संपादन सन् 1883 ई. में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने प्रारंभ किया था किन्तु थोड़े से अंशों के प्रकाशन के बाद इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाने के कारण प्रकाशन बंद हो गया. बाद में नागरी प्रचारिणी सभा काशी के तत्वावधान में सन् 1898 ई. में बाबू श्यामसुन्दर दास के प्रधान संपादकत्व में इसके वृहद् संस्करण के पाठ का संपादन शुरू हुआ जो आठ वर्ष में पूरा हुआ.
इसी तरह बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा संपादित ‘कबीर ग्रंथावली’ आज सबसे ज्यादा प्रामाणिक मानी जाती है और विद्वानों में लोकप्रिय भी है. इसे भी नागरी प्रचारिणी सभा ने 1928 ई. में प्रकाशित किया था. पाठ संपादन के क्रम में बाबू श्यामसुन्दर दास ने संपादन का कार्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से किया है. पाठों की समीक्षा, उचित पाठ का ग्रहण, शेष का पाठान्तर में उल्लेख तथा प्रक्षेपों का निराकरण उनकी कार्य-पद्धति की विशेषताएं हैं.
काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना उनका एक ऐतिहासिक कार्य है. बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा लिखित, संपादित और संकलित पुस्तकों की संख्या एक सौ के लगभग है. निस्संदेह हिन्दी आलोचना को गति देने में बाबू श्यामसुन्दर दास की महत्वपूर्ण भूमिका है.
बाबू श्यामसुन्दर दास के बारे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है,
“हिन्दी के हुए जो विगत वर्ष पचास / नाम उनका एक ही है श्यामसुन्दर दास.”
बाबू श्यामसुन्दर दास के जन्मदिन के अवसर पर हम उनके असाधारण साहित्य साधना का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.