गजानन माधव मुक्तिबोध : आत्मान्वेषी विलक्षण मार्क्सवादी आलोचक – डॉ. अमरनाथ

हिंदी के आलोचक – 13

मुक्तिबोध

मध्य प्रदेश के श्योपुर, जिला मुरैना में जन्मे और राजनांदगांव के कॉलेज में अध्पापक रहे मूलत: मराठी भाषी गजानन माधव मुक्तिबोध (13.11.1917-11.9.1964) जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े आलोचक भी. यद्यपि उन्होंने अपने समय की आलोचना- प्रवृति से असंतुष्ट होकर आलोचनाएं लिखी हैं. मात्र 46 वर्ष की उम्र में मुक्तिबोध ने जो साहित्य हमें दिया वह उन्हें एक असाधारण प्रातिभ साहित्यकार प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है.  उनकी समीक्षा के प्रति लोगों का ध्यान उनकी मृत्यु के बाद आकृष्ट हुआ. उनकी गद्य कृतियों का प्रकाशन भी काफी देर से हुआ. शमशेर बहादुर सिंह ने उनके ऊपर घटित इस यथार्थ पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “एकाएक क्यों 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठे ? क्यों ‘धर्मयुग’, ‘ज्ञानोदय’, ‘लहर’, ‘नवभारत टाइम्स’- प्राय: सभी साप्ताहिक, मासिक और दैनिक उनका परिचय पाठकों को देने लगे और दिल्ली की साहित्यिक, हिन्दी दुनिया में एक नयी हलचल-सी आ गई ?

इसलिए कि गजानन माधव मुक्तिबोध एकाएक हिन्दी संसार की एक घटना बन गये. कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आंख मूंद लेना असंभव था. उनकी एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावना के केन्द्रीय मंच पर सामने आ गए. और हमने अब उनके कवि और विचारक को एक नयी आश्चर्य-दृष्टि से देखा.” ( ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ की ‘एक विलक्षण प्रतिभा’ शीर्षक भूमिका से, पृष्ठ-9)

 ‘एक साहित्यिक की डायरी’, ‘कामायनी एक पुनर्विचार’, ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’, ‘नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ तथा ‘भारत इतिहास और संस्कृति’ मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृतियाँ हैं. ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ तथा ‘भूरी भूरी खाक धूल’ उनके काव्य संग्रह हैं, ‘काठ का सपना’ तथा ‘सतह से उठता आदमी’ उनके कहानी संग्रह हैं और ‘विपात्र’ उपन्यास है.

उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनो प्रकार की समीक्षाएं लिखी हैं. ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ के अधिकाँश निबंध सैद्धांतिक विषयों पर हैं, जैसे ‘काव्य की रचना प्रक्रिया’, ‘सौन्दर्य प्रतीति और सामाजिक दृष्टि’, ‘नवीन समीक्षा का आधार’, ‘समीक्षा की समस्याएं’, ‘साहित्य और जिज्ञासा’ आदि. व्यावहारिक समीक्षा की दृष्टि से ‘शमशेर मेरी दृष्टि में’, ‘सुमित्रानंदन पंत : एक विश्लेषण’ आदि महत्वपूर्ण हैं. किन्तु उनकी व्यावहारिक समीक्षा की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ है. नेमिचंद्र जैन के संपादन में उनकी ग्रंथावली ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के नाम से छह खंडों में प्रकाशित हो चुकी है.

मुक्तिबोध की आलोचना, लेखक और रचना के प्रति गहरी हार्दिकता के कारण विश्वसनीय आलोचना है. यह कृति और कृतिकार के माध्यम से अपनी सभ्यता की व्यापक समीक्षा में प्रवृत्त आलोचना है. मुक्तिबोध ने छायावादी कविता के प्रति सकारात्मक रुख अपनाया और उसकी प्रगतिशील भूमिका का समर्थन किया. मार्क्सवादी नजरिए से उनके द्वारा की गई कामायनी की समीक्षा बहुत महत्वपूर्ण है. कामायनी की समीक्षा करते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया है कि जीवन यथार्थ से उत्पन्न समस्याओं का जो समाधान प्रसाद ने प्रस्तुत किया है वह वायवीय और अव्यावहारिक है. ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ के आरंभ में ही उन्होंने अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए लिखा हैं, “आलोचक का यह धर्म है कि वह कामायनी में उपस्थित जीवन -समस्या की, उस आवयविक रूप से संलग्न परिवेश- परिस्थिति की तथा इन दोनो के संबंध में कवि-दृष्टि की तथा उस जीवन-समस्या के कवि-कृत निदान की, समीक्षा करे.” ( कामायनी : एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध रचनावली-4, पृष्ठ-195 ) वे अपनी मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का परिचय देते हुए प्रसाद में वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि की अपेक्षा करते हैं. वे लिखते हैं, ”प्रसाद के पास ऐतिहासिक बुद्धि थी पर कोई वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि न थी. वैदिक कथानक उनके लिए एक विशाल फैन्टेसी का काम करता है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-203)  वे लिखते हैं, “ अधिक से अधिक प्रसाद जी के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उनका दर्शन एक उदार पूंजीवादी व्यक्तिवादी दर्शन है, जो यदि एक मुंह से वर्ग-विषमता की निन्दा करते हैं तो दूसरे मुंह से वर्गातीत, समाजातीत, व्यक्तिमूलक चेतना के आधार पर समाज के वास्तविक द्वंन्द्वों का वायवीय तथा काल्पनिक प्रत्याहार करते हुए अभेदानुभूति के आनंद का ही संदेश देते है. निश्चय ही समाजातीत, वर्गातीत, व्यक्तिमूलक, आनंदवादी अद्वैतवाद अपने अन्तिम निष्कर्षों में उसी विषमतापूर्ण समाज की स्थिति में कुछ सतही ऊपरी परिवर्तन करके संतुष्ट है.” ( कामायनी : एक पुनर्विचार, मुक्तिबोध रचनावली -4, पृष्ठ- 236)

मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि के संघर्ष का बड़ा हिस्सा नयी कविता के व्यक्तिवादी –कलावादी अंतर्मुखी साहित्य-सिद्धांतों से मुठभेड़ को लेकर है. वे जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि के सिद्धांतों पर प्रहार करते हैं. ‘काव्य : एक सांस्कृतिक प्रक्रिया’ नामक निबंध में मुक्तिबोध स्थापित करते हैं कि काव्य में सांस्कृतिक परंपरा का समाहार होता है और उसके मूल्य वैयक्तिक न होकर सामाजिक होते हैं. वे इसी अर्थ में प्रयोगवाद तथा नयी कविता को भी सांस्कृतिक परंपरा का अंग मानते हैं. मुक्तिबोध के अनुसार मन के भीतर अंतर्तत्व को कला वस्तु बनने के लिए मन की आँखों के सामने क्रमश: तरंगायित, उद्घाटित, आलोकित और अभिव्यक्ति के लिए आतुर होना आवश्यक है. इसी क्रम में मुक्तिबोध कला के तीन क्षणों की व्याख्या प्रस्तुत करके कला की रचना –प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं. वे कहते हैं, “ तरंगायित होने का संबंध आवेग से है. उद्घाटित होने की अवस्था का संबंध बोध- पक्ष से है. –ऐसे बोध- पक्ष से जो ज्ञानात्मक आधार पर स्थित होकर व्यक्ति-बद्धता की स्थिति से अनुभवकर्ता को ऊंचा कर देता है. वस्तुत: यहीं से रूप -पक्ष भी आरंभ हो जाता है.  मनस्तत्व यहाँ रूप लेकर प्रस्तुत होता है. “ ( मुक्तिबोध रचनावली -5, पृष्ठ- 101).

कला का द्वितीय क्षण तबसे आरंभ होता है जब वह मनस्तत्व अन्य अनुभवों से जुड़कर अधिक संश्लेषित और कल्पनालोकित हो जाता है. इस स्थिति में उसमें व्यापक अर्थ आ जाता है,  वह अधिक सामान्य हो जाता है. व्यक्ति-बद्धता की स्थिति समाप्त हो जाती है और अनुभव कर्ता इस सामान्यीकृत मनस्तत्व को शब्द-स्वर- रंग में अभिव्यक्त करने के लिए आतुर हो जाता है. यहां से कला का तीसरा क्षण आरंभ होता है. इस तीसरे क्षण में जब मनस्तत्व बाह्योन्मुख होकर अपने अनुकूल रूप लेकर मूर्त होता है तब प्रथम और द्वितीय क्षणों से प्राप्त रूप पक्ष बहुत कुछ बदल जाते हैं.  परिणामत: पूर्ण की हुई कविता, पूर्ण की हुई कलाकृति, अपनी पूर्वगत तत्वानुभूति की वास्तविकता से बहुत कुछ भिन्न हो जाती है. “(उपर्युक्त, पृष्ठ 102)

अपनी इस पूरी स्थापना को निष्कर्ष के रूप में प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध कहतें हैं, “ जिस प्रकार हम जीवन में बाह्य- जीवन- जगत को अपने आभ्यंतर में संशोधित संपादित कर आत्मसात करते जाते हैं, उसी तरह हम शब्दों द्वारा आत्मसातकृत को बाह्यगत करते जाते हैं, चाहे ये शब्द साधारण बात- चीत में प्रकट हों, भाषणों में, लेखों मे प्रकट हों अथवा छंद- लय में उद्घाटित हों.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ 102) मुक्तिबोध मानते हैं कि छायावादियों और प्रगतिवादियों की तरह नयी कविता के पास कोई दार्शनिक विचारधारा नहीं है. नयी कविता को बौद्धिकता की कविता कहते हुए वे उसकी सीमा तय कर देते हैं.

रचना के प्रति अपनी समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय देते हुए वे लिखते हैं, “हम जिस समाज, संस्कृति, परंपरा, युग और ऐतिहासिक आवर्त में रहते हैं उन सबका प्रभाव हमारे हृदय का संस्कार करता है. हमारी आत्मा में जो कुछ है वह समाज प्रदत्त है- चाहे वह निष्कलुष अनिंद्य सौन्दर्य का आदर्श ही क्यों न हो. हमारा सामाजिक व्यक्तित्व हमारी आत्मा है. आत्मा का सारा सार तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है. व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक विक्षेप है, इस विरोध का कोई अस्तित्व नहीं.” ( नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध रचनावली-5, पृष्ठ -188)

मुक्तिबोध वर्ग-संघर्ष, जन -क्रान्ति, सामाजिक –सांस्कृतिक पुनर्निर्माण तथा मानव की वृहत्तर संभावनाओं में निष्ठा रखने वाले समीक्षक हैं. साहित्य में वे व्यक्तिवादी मूल्यों के खण्डन के साथ ही सामाजिक तथा लोकमंगलवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा के प्रति निरंतर सचेष्ट रहते हैं. कलाकार को सौन्दर्यपरक भावों की अभिव्यक्ति तक सीमित करने का प्रयास संसार भर के कलावादी आरंभ से ही करते आए हैं. यह सिद्धांत मुक्तिबोध की दृष्टि में मानव विरोधी तथा जन विरोधी है, इसलिए मुक्तिबोध जीवनानुभूति तथा सौन्दर्यानुभूति में पार्थक्य स्थापित करने वाले इस सिद्धांत को एक खतरनाक सिद्धांत और पूंजीवादी साजिश मानते हैं.

‘ज्ञानात्मक संवेदना’ मुक्तिबोध द्वारा प्रयुक्त एक चर्चित पारिभाषिक शब्द है जिसका प्रयोग उन्होंने रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए नई कविता के संदर्भ में किया है. मुक्तिबोध ज्ञान का संबंध वाह्य जगत से मानते हैं जबकि संवेदना का संबंध व्यक्ति के अंतर्जगत से है. इस प्रकार ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ का तात्पर्य हुआ, वह संवेदना जो ज्ञान से परिपूर्ण हो. ज्ञानात्मक संवेदना की स्थिति में रचनाकार स्व से ऊपर उठ जाता है. मुक्तिबोध के ही शब्दों में, “अपने से परे जाने, अपने से ऊपर उठने, दूसरों से अपने को मिलाने, विशिष्ट से सामान्य पर पहुंचने की यह जो ज्ञानात्मक संवेदना की दशा है, ज्ञानात्मक अनुभवों की दशा है, वह सबमें होती है.“(  उपर्युक्त, पृष्ठ 189)

इस तरह ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ को एकमेक करके ही लेखक जीवन विवेक विकसित करता है. मुक्तिबोध के अनुसार लेखक अपनी मूल्य भावना के अनुसार आभ्यंतर भावों को प्रस्तुत करता है और उसके अंत:करण में एक मूल्य भावना होती है जो उसे किन्हीं विशेष भावों को प्रकट करने के लिए तैयार करती रहती है. दूसरे शब्दों में लेखक अपना एक एस्थेटिक्स तैयार कर लेता है.  इस तरह मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र को हिन्दी में नए ढंग से प्रस्तुत किया है.

मुक्तिबोध ने भक्ति आन्दोलन का भी नई दृष्टि से मूल्यांकन किया और स्थापित किया कि यह मूलत: निचली जातियों का सवर्ण जातियों के खिलाफ विद्रोह था. बाद में सवर्ण जातियों ने इस महान आन्दोलन पर नियंत्रण कर लिया.

अपने समीक्षा सिद्दांतों में मुक्तिबोध ने कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी को बहुत महत्व दिया है. उनका विश्वास है कि यदि लेखक ईमानदार है, तो उसे अपने प्रति और अपने युग के प्रति अधिक उत्तरदायी होना होगा. अधिक साहस और ज्यादा हिम्मत से काम लेना होगा. अपनी सौन्दर्याभिरुचि के सेन्सर्स के वशीभूत होना ठीक नहीं है. अनुभव वृद्धि के साथ- साथ सौन्दर्याभिरुचि का विस्तार और पुन: संस्कार होना आवश्यक है. मुक्तिबोध इसीलिए ‘आनेस्टी’ तथा ‘सिंसियरिटी’ दोनो को कलाकार की ईमानदारी में आवश्यक मानते हैं. उन्होंने रचना प्रक्रिया का विवेचन भाववादी चिन्तन- पद्धति से मुक्त होकर किया है. इसलिए वे रचना प्रक्रिया के मानसिक व्यापार तक ही सीमित न होकर उसके वस्तुपरक आकलन तक आते हैं और रचना को क्षण- विशेष की उपज न मानकर सुदीर्घ मन: प्रक्रिया का परिणाम मानते है. इस तरह मुक्तिबोध की आलोचना में रचनाकार की ईमानदारी को जितना महत्व दिया गया है उतना ही आलोचक के चरित्र को भी.

फिलहाल, मार्क्सवादी समीक्षकों में मुक्तिबोध की पहचान किंचित विवादास्पद रही है. रामविलास शर्मा ने उनपर अस्तित्ववाद का प्रभाव भी अनुभव किया है और उनके महत्व के आकलन में कोताही बरती है. कुछ लोगों का मानना है कि भाववादी चिन्तन के संस्कार उनमें अन्त तक बने रहे. दरअसल मुक्तिबोध आत्मालोचन करते हैं, अपने से लड़ते हैं, आत्मसंघर्ष करते हैं. इसे ही कुछ लोगों ने उनके भीतर के अंतर्विरोध के रूप में रेखांकित किया है. वस्तुत: इसे एक सच्चे लेखक के आत्मसंघर्ष के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए. इस संबंध में एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को भी बड़ी बेबाकी से ‘समीक्षा की समस्याएं’ शीर्षक अपने निबंध में रेखांकित किया है. आम मार्क्सवादी समीक्षकों को इसे सहज स्वीकार कर पाना आसान नहीं है.

 मुक्तिबोध को सभ्यता समीक्षक के रूप में रेखांकित करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, “मुक्तबोध सभ्यता समीक्षा के लिए सत्-चित्-आनंद के बदले सत्-चित्-वेदना का बोध जरूरी समझते हैं, जिससे पैदा होती है सत्ताओं द्वारा सताए हुए लोगों के प्रति गहरी संवेदनशीलता, जो मुक्तिधर्मी आलोचना की शक्ति का स्रोत है और उसकी सामाजिकता की एक जरूरी शर्त भी.  सभ्यता समीक्षा रचना और आलोचना के बीच समानधर्मिता स्वीकार करती है. वह आलोचना से रचना के साथ चलने की मांग करती है, उसके पीछे- पीछे नहीं.  इसलिए वह आलोचना को रचना की सीमाओं से सावधान और मुक्त करने की स्वतंत्रता भी देती है.” ( उद्धृत, दस्तावेज, -152 / जुलाई-सितंबर 2016, पृष्ठ- 8)

वर्ष 2017 मुक्तिबोध का जन्म -शताब्दी वर्ष था. इस वर्ष मुक्तिबोध पर भरपूर विवेचन -विश्लेषण हुआ. उनपर हिन्दी की अधिकाँश महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने विशेषांक प्रकाशित किए. देश के विभिन्न हिस्सों मे उनपर गोष्ठियाँ हुईं. इन सबसे मुक्तिबोध के महत्व की व्यापक स्वीकृति का पता चलता है.

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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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