आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : ऐतिहासिक-सांस्कृतिक आलोचना के शिखर – डॉ. अमरनाथ

हजारी प्रसाद द्विवेदी

बलिया जिला ( उ.प्र.) के आरत दुबे का छपरा नामक गाँव में जन्में, काशी में शिक्षित हुए तथा शान्तिनिकेतन, चंडीगढ़ और काशी में अध्यापन करने वाले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ( 19.8.1907-19.5.1979) मूलत: साहित्येतिहासकार, आलोचक और अनुसंधानकर्ता हैं. उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक चेतना के स्तर पर देखा है. इसी दृष्टि से उन्होंने अनेक मह्वपूर्ण आलोचना ग्रंथ लिखे हैं और उनके माध्यम से उन्होंने शुक्ल जी के बाद की हिन्दी आलोचना को व्यापक रूप से प्रभावित किया है. ‘हिन्दी साहित्य कोश’ के अनुसार, “यद्यपि मूलत: द्विवेदी जी, रामचंद्र शुक्ल की परंपरा के आलोचक हैं फिर भी साहित्य को एक अविच्छिन्न परंपरा में देखने पर बल देकर द्विवेदी जी ने हिन्दी समीक्षा को नयी दिशा दी. साहित्य के इस नैरंतर्य का विशेष ध्यान रखते हुए भी वे लोक चेतना को कभी अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देते. वे मनुष्य की श्रेष्ठता के विश्वासी हैं और उच्चकोटि के साहित्य में उसकी प्रतिष्ठा को अनिवार्य मानते हैं. संस्कारजन्य क्षुद्र सीमाओं में बंधकर साहित्य ऊँचा नहीं उठ सकता. अपेक्षित ऊँचाई प्राप्त करने के लिए उसे मनुष्य की विराट एकता और जिजीविषा को आयत्त करना होगा.” ( हिन्दी साहित्य कोश, भाग-दो)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक स्पष्ट ऐतिहासिक दृष्टि के साथ अपना हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा था. उन्होंने साहित्य के इतिहास को विचार श्रृंखलाबद्ध किया, साहित्य के स्वरूप में होने वाले परिवर्तनों को जनता की मन:प्रवृत्तियों में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम बताकर उनमें कारण- कार्य संबंध स्थापित किया और प्रवृत्तिगत परिवर्तन को दृष्टि में रखकर सुसंगत काल-विभाजन का सफल प्रयास किया.

आचार्य द्विवेदी ने शुक्ल जी की दृष्टि को स्वीकार करते हुए उसमें व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता का अनुभव किया. उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को भारतीय चिन्तन की अविच्छिन्न परंपरा की एक महत्वपूर्ण श्रृंखला मानकर उसकी भूमिका प्रस्तुत की. उन्होंने साहित्य को समझने के लिए इतिहास, भूगोल, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान, आर्थिक स्थिति, राजनीतिक परिस्थिति आदि सब कुछ के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया. उन्होंने वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक के चिन्तन की श्रृंखला की कड़ियों को जोड़ते हुए हिन्दी को भारतीय विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली महत्वपूर्ण भाषा सिद्ध किया और हिन्दी साहित्य को अपने आप में एक शक्तिशाली वस्तु प्रमाणित किया.

आचार्य द्विवेदी के अनुसार मूल्य बराबर विकसनशील होते हैं, उनमें पूर्ववर्ती और पार्श्ववर्ती चिन्तन का मिश्रण होता रहता है. संस्कृत, अपभ्रंश आदि के गंभीर अध्येता होने के कारण वे साहित्य की सुदीर्घ परंपरा का आलोड़न करते हुए विकसनशील मूल्यों का सहज ही आकलन कर लेते हैं.

आचार्य द्विवेदी की प्रमुख आलोचना कृतियाँ हैं, ‘सूर साहित्य, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद’, ‘कबीर’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘हिन्दी साहित्य’ ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’, ‘साहित्य सहचर’, ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास’, ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’, ‘साहित्य का मर्म’, ‘मेघदूत : एक पुरानी कहानी’, ‘मध्यकालीन धर्मसाधना’, ‘सहज साधना’ आदि. ‘नाथ सिद्धों की बानियाँ’, ‘संक्षिप्त पृथ्वीराज रासों’, ‘संदेशरासक’, ‘दशरूपक’ आदि का उन्होंने संपादन किया है.

द्विवेदी जी किसी कृति की आलोचना उसके ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ में रखकर ही करने के पक्षधर हैं.  वे कहते हैं कि, “कवि को पूर्ववर्ती और समसामयिक कवियों की तुलना में रखकर देखने का अर्थ है कि हम मानते हैं कि संसार में कोई घटना अपने आप में स्वतंत्र नहीं है. पूर्ववर्ती और पार्श्ववर्ती घटनाएं वर्तमान घटनाओं को रूप देती रहती हैं, इसलिए जिस किसी रचना या वक्तव्य वस्तु का हमें स्वरूप निर्णय करना हो उसे पूर्ववर्ती और पार्श्ववर्ती घटनाओं की अपेक्षा में देखना चाहिए.” ( साहित्य सहचर, पृष्ठ-12)

‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ उनके सिद्धांतों की बुनियादी पुस्तक है जिसमें साहित्य को एक अविच्छिन्न परंपरा तथा उसमें प्रतिफलित क्रिया- प्रतिक्रियाओं के रूप में देखा गया है. भक्ति काल के संबंध में आचार्य शुक्ल की मान्यता थी कि, “इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छायी रही. अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था.” ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-60)

शुक्ल जी के इस निष्कर्ष से द्विवेदी जी सहमत नहीं हो सके. उन्होंने भक्ति-पूर्व नाथ -सिद्ध साहित्य का भली-भाँति अनुशीलन किया था. इसीलिए वे घोषित कर सके कि, “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है.” ( हिन्दी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ- 2)

 अपने फक्कड़ व्यक्तित्व, घरफूँक मस्ती और क्रान्तिकारी विचारधारा के कारण कबीर ने उन्हें विशेष आकृष्ट किया. उन्होंने घोषित किया कि हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ. महिमा में यह व्यक्ति केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है –तुलसीदास.

‘कबीर’ पुस्तक में उन्होंने जिस सांस्कृतिक परंपरा, समसामयिक वातावरण और नवीन मूल्यानुचिन्तन का उद्घाटन किया है वह उनकी उत्कृष्ट समीक्षात्मक दृष्टि का परिचय देता है. द्विवेदी जी ने कबीर को भक्त रूप को अधिक महत्व दिया है और समाज- सुधारक रूप को दूसरे दर्जे पर रखा है. इसका कारण यह है कि द्विवेदी जी के चिन्तन में भक्ति का महत्व अधिक है. वे पारिवारिकता, सामाजिकता और वैयक्तिक सुख, सार्थकता और सदाचार के लिए भक्ति-भावना को बहुमूल्य मानते हॆं. मध्य युग में भक्ति मेल- मिलाप का मुख्य आधार थी. नाथों, सिद्धों और सूफी साधकों के परस्पर मेल से यह मेल- मिलाप, धर्म- दर्शन और संप्रदायों का ही नहीं था, इसका वास्तविक आधार भारत की समाज-व्यवस्था थी. वर्णाश्र्म –व्यवस्था ने जिन लोगों को दबा रखा था, वे इसमें शामिल थे. निर्गुण भक्ति परंपरा और कविता में अधिकांश दलित वर्ग के लोगों का होना अकारण नहीं था. द्विवेदी जी की पैनी दृष्टि वहाँ तक भली-भाँति पहुँची थी.

बतौर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी “कालिदास की लालित्य योजना’ आलोचना विवेक की प्रतिमान कृति है. ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ में द्विवेदी जी ने नवीन उपलब्ध सामग्री के आधार पर शोधपरक विश्लेषण किया है. ‘नाथ संप्रदाय’ में सिद्धों और नाथों की उपलब्धियों पर गंभीर विचार व्यक्त किए गए हैं. ‘सूर साहित्य’ उनकी आरंभिक आलोचनात्मक कृति है. विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार द्विवेदी जी सूरदास की विरह भावना को वैष्णव मधुर भावना से जोड़कर उसे अखिल भारतीय साहित्यिक आयाम ही नहीं प्रदान करते, उसे सामाजिक मांगल्येच्छा से पूरित करते हैं. इनके अतिरिक्त उनके अनेक मार्मिक समीक्षात्मक निबंध, विभिन्न निबंध संग्रहों में संग्रहीत हैं, जिनसे उनकी तलस्पर्शी आलोचनात्मक दृष्टि का परिचय मिलता है.

‘सूर-साहित्य’, ‘कबीर’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’, ‘नाथ संप्रदाय’ आदि कृतियों का गहराई से मूल्यांकन करने पर उनकी समीक्षा -दृष्टि की एक प्रमुख विशेषता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है और वह है कि उनकी समीक्षा, शोध के सहारे चलती है. आलोचना के मूल बिन्दुओं की खोज उनकी प्राथमिकता होती है.  उनकी दृष्टि शोध -कार्य में रम जाती है और वे प्राचीन से लेकर अर्वाचीन ग्रंथों में उनके प्रमाण ढूँढने लगते हैं. दविवेदी जी भारतीय साहित्य और संस्कृति तथा संस्कृत और ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित हैं लिहाजा उनकी शोध- दृष्टि इतिहास, धर्मशास्त्र, पुराण, प्राच्यविद्या, जीव विज्ञान, मनोविज्ञान, प्रजनन शास्त्र, नृतत्व शास्त्र, पुरातत्व विज्ञान, नीतिशास्त्र, कानून, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि सभी का सहारा लेती हैं.  इस तरह उनकी समीक्षा मुख्यरूप से अनुसंधानपरक समीक्षा है.

उनकी आलोचना की एक विशेषता व्याख्यात्मकता भी है. विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार उन्होंने कवि द्वारा प्रयुक्त रचनात्मक पदों की ऐसी व्याख्या की है कि वे आलोचना के प्रकरण सिर्फ उसी कवि के साहित्य के नहीं, साहित्य मात्र के आलोचनात्मक प्रत्यय बन जायं. इस विषय में उनकी तुलना केवल आचार्य शुक्ल से की जा सकती है.

नंदकिशोर नवल के शब्दों में, “जहाँ तक आलोचक के रूप में उनकी प्रवृति का प्रश्न है  वे समन्वयवादी ही हैं, लेकिन वाजपेयी जी और नगेन्द्र से वे इस दृष्टि से भिन्न हैं कि उनकी मूल दिशा प्रतिक्रियावादी न होकर प्रगतिशील है.” ( हिन्दी आलोचना का विकास, पृष्ठ-201)

आचार्य द्विवेदी के विषय में डॉ. नंदकिशोर नवल की उक्त टिप्पणी सही है. साहित्य के प्रभाव की चर्चा करते हुए द्विवेदी जी ने लिखा है, ” अब शब्द और अर्थ की केवल एक दूसरे से होड़ मचाने वाली सुंदरता को ही, जिसे प्राचीन पंडित परस्पर स्पर्धिचारुता कहा करते थे, हम साहित्य नहीं कहते बल्कि उस सुन्दरता से उत्पन्न होने वाले प्रभावों की भी बात सोचते हैं.” ( हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली , खण्ड-7, पृष्ठ-285 ) वे समाज में सक्रिय प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी शक्तियों को पहचानते हैं, भले ही किंचित अस्पष्ट रूप में और साहित्यकारों से प्रगतिशील शक्तियों को सबल बनाने का आग्रह करते हैं, “ छोटा लेखक हो या ब़डा, समाज के प्रति उत्तरदायित्व वही है. उसे संसार की वर्तमान समस्याओं को ठीक से समझना चाहिए और शान्त चित्त से सोचना चाहिए कि मनुष्य को मनुष्यत्व लक्ष्य तक ले जाने में कौन- कौन सी शक्तियाँ सहायक है और कौन कौन सी बाधक? फिर उसे सहायक शक्तियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करनी चाहिए और बाधक तत्वों के प्रति विरक्ति.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-286) ‘साहित्य का नया रास्ता’ शीर्षक अपने निबंध में द्विवेदी जी ने प्रगतिशीलता के नये मार्ग की ओर संकेत करते हुए दृढ़ शब्दों में कहा है कि अगर मनुष्य जाति को वर्तमान दुर्गति से बचना है तो इस मार्ग पर चलने के सिवा और कोई उपाय नहीं है.” (उपर्युक्त, पृष्ठ-290) शोषित पीड़ित जनों के उद्धार को वे साहित्य का सबसे बड़ा लक्ष्य मानते हैं और साहित्य के सभी प्रश्नों का उत्तर वे उन्हीं को ध्यान में रखकर प्राप्त करने पर बल देते हैं.

इस प्रकार द्विवेदी जी मुख्यत: शुक्ल जी की परंपरा के आलोचक हैं. किन्तु उनका मुख्य क्षेत्र साहित्येतिहास और अनुसंधान है, आलोचना नहीं. इसीलिए उन्होंने आलोचना को न तो सिद्धांत के क्षेत्र में सुसंगत रूप में वैज्ञानिक परिणति तक ले जा सके और न व्यवहार के क्षेत्र में.

डॉ. नगेन्द्र के अनुसार ऐतिहासिक आलोचना के क्षेत्र में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का स्थान अग्रगण्य है. जन जीवन की सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं का उद्घाटन करते हुए विवेच्य को समष्टि के साथ संबद्ध कर देखना इनकी आलोचना का मूलाधार है. द्विवेदी जी साहित्य का संबंध  मानवजीवन के साथ मानकर चलते हैं. उनकी समीक्षा का आधार फलक मानवतावादी होने के कारण  अत्यंत विस्तृत है और उनका व्यक्तित्व उसके सम्हालने योग्य पाण्डित्य, सहानुभूति तथा कल्पना आदि गुणों से संपन्न है.

निस्संदेह आचार्य द्विवेदी में अपार पांडित्य था किन्तु हर महापुरुष की तरह उनमें भी कुछ कमजोरियाँ थी. उन्होंने स्व. इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी का समर्थन किया था, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रेक्टर जैसे पद से अवकाश लेने के बाद उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष के पद पर काम किया जहाँ एक लेखक की स्वायत्तता के लिए कम अवसर होते हैं.

इन सबके बावजूद डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी सही कहते हैं कि, “शुक्ल जी के बाद हिन्दी पाठकों , विद्यार्थियों, अध्यापकों और आलोचकों की दृष्टि और रुचि पर जितना अधिक प्रभाव द्विवेदी जी की कृतियों का पड़ा है उतना किसी आलोचक का नहीं. रसग्राहिता द्विवेदी जी की सबसे बड़ी शक्ति है और यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि आलोचक की भी सबसे बड़ी कसौटी रस-ग्राहिता ही है. कबीर, सूरदास, कालिदास और अपभ्रंश साहित्य पर लिखी गई रचनाओं में द्विवेदी जी की रसग्रहिता के प्रचुर प्रमाण मिलेंगे.” ( हिन्दी आलोचना, पृष्ठ 150)

द्विवेदी जी की प्रतिष्ठा एक आलोचक के रूप में जितनी है उससे अधिक उपन्यासकार और निबंधकार के रूप में हैं. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘पुनर्नवा’, ‘अनामदास का पोथा’ और ‘चारु चंद्रलेख’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं. ‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क’, ‘अशोक के फूल’, ‘विचार प्रवाह’, ‘आलोक पर्व’ और ‘कुटज’ उनके प्रख्यात निबंध संग्रह हैं. ‘मृत्युंजय रवीन्द्र’ तथा ‘महापुरुषों का स्मरण’ भी उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ हैं.

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली का उनके पुत्र डॉ. मुकुंद द्विवेदी ने संपादन किया है. उनके सबसे प्रिय शिष्य प्रो. विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘व्योमकेश दरवेश ( आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण )’ नाम से द्विवेदी जी के जीवन और रचना-संसार पर महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है. इसी तरह की पुस्तक उनके दूसरे शिष्य नामवर सिंह की भी है ‘दूसरी परंपरा की खोज’ शीर्षक से. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्य अकादमी पुरस्कार और भारत सरकार के ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित हो चुके हैं.

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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं. )

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