गार्सां द तासी : हिन्दी साहित्य के पहले इतिहासकार – डॉ. अमरनाथ

हिन्दी के आलोचक-2

गार्सा दा तासी

चकित करने वाला तथ्य है कि ‘इस्त्वार द ल लितरेत्युर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी’ शीर्षक से हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास लिखने वाले गार्साँ द तासी ( Joseph Heliodore Sagesse Vertu Garcin De Tassy) कभी भारत नहीं आए थे। वे फ्रांस में हिन्दुस्तानी के प्रोफेसर थे। फ्रांस में रहकर ही उन्होंने हिन्दुस्तानी की शिक्षा भी ग्रहण की थी। वहाँ रहकर उन्होंने फ्रेंच में हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास तो लिखा ही, वह उस सदी का सबसे ज्यादा समृद्ध इतिहास ग्रंथ भी है। उनका इतिहास तीन जिल्दों में है जो क्रमश: 1839, 1847 और 1871 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक की पहली और दूसरी जिल्दें फ्रांस के राजकीय मुद्रणालय में छपी थीं और लंदन तथा पेरिस में बिक्री के लिए रखी गई थीं।  दूसरा संस्कण भी पेरिस से ही 1871 में प्रकाशित हुआ था। इसकी विशालता का अनुमान इसी तथ्य से किया जा सकता है कि 1871 के संस्करण की पहली जिल्द में 1223, दूसरी जिल्द में 1200 और तीसरी जिल्द में 801 कवियों और लेखकों का विवरण है।

हिन्दी में लिखा गया हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास शिवसिंह सेंगर कृत ‘शिवसिंह सरोज’ है जो 1877 में प्रकाशित हुआ था, तथा अंग्रेजी में लिखा गया हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन कृत ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ है जो 1889 में प्रकाशित हुआ था। इस तरह निर्विवाद रूप से तासी का यह ग्रंथ किसी भी भाषा में लिखा गया हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास है।

इतना ही नहीं, अपने ग्रंथ में गार्साँ द तासी ( 25.1.1794 – 2.9.1878 ) ने जिस वृत्त संग्रह शैली को अपनाया है आगे चलकर शिवसिंह सेंगर और और जॉर्ज ग्रियर्सन ने भी उसी शैली को अपनाया।

डॉ. सईदा सुरैय्या हुसैन ने तासी की लिखी गई 155 कृतियों का जिक्र किया है। उनके काम को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक तो हिन्दुस्तानी साहित्य के बारे में उनका फ्रेंच में लिखा गया साहित्य, दूसरा, उनके द्वारा की गई हिन्दुस्तानी की साहित्यिक कृतियों का संकलन और संपादन जिसमें वली दकनी की काव्य-कृतियों का संपादन भी शामिल है, और तीसरा, हिन्दुस्तानी की महत्वपूर्ण कृतियों का फ्रेंच में अनुवाद, जिसमें मीर अम्मन की मशहूर कृति ‘बाग-ओ-बहार’, सर सैयद अहमद खाँ की पुस्तक ‘असरारुस सनादीद’ का अनुवाद भी शामिल है।

गार्सां द तासी की हिन्दुस्तानी और हिन्दवी में लिखी गई प्रमुख पुस्तकों में ‘ले ओत्यूर ऐंदुस्तानी ऐ ल्यूर उवरज’( हिन्दुस्तानी लेखक और उनकी रचनाएं), ‘ल लॉग अ ल लितरेत्यूर ऐंदुस्तानी द 1850 अ 1869’( 1850 से 1869 तक हिन्दुस्तानी भाषा और साहित्य), ‘रुदिमाँ द ल लॉग ऐंदुई’ ( हिन्दुई भाषा के प्राथमिक सिद्धांत), ‘रुदिमाँ द ल लॉग ऐंदुस्तानी’ ( हिन्दुस्तानी भाषा  के प्राथमिक सिद्धांत) आदि महत्वपूर्ण है।

गार्सां द तासी का जन्म 25 जनवरी 1794 को फ्रांस के मारसेली ( Marseille ) में हुआ था। ‘गार्सां’ उनके पिता का सरनेम था और तासी उनकी माँ का। उनका परिवार मिस्र मूल का था और पिता का एक अच्छा खासा व्यवसाय था। किन्तु तासी की रुचि पढ़ने- लिखने में अधिक थी। आरंभ में उन्होंने अरबी का अध्ययन किया और उसके बाद उनकी रुचि पूरब की भाषाओं के अध्ययन की ओर हो गई। अध्ययन के लिए वे 1817 में पेरिस चले गए। वहाँ चार वर्ष रहकर उन्होंने प्रख्यात प्राच्यविद विद्वान सिल्वस्त्रे द सासी ( Silverstre de Sacy) की छत्र-छाया में रहकर अरबी, फारसी और तुर्की का अध्ययन किया। 1822 में तासी की नियुक्ति उनके शिक्षक सिल्वस्त्रे के कॉलेज में सचिव के पद पर हो गय़ी। उसी वर्ष पेरिस में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई और उसकी ओर से शोध जर्नल प्रकाशित होने लगा। तासी एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक सदस्यों में थे। शीघ्र ही उनकी नियुक्ति सोसाइटी के सहायक सचिव एवं पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में हो गई। उसके बाद उन्होंने पूरा जीवन एशियाटिक सोसाइटी को ही समर्पित कर दिया और 1876 में एशियाटिक सोसाइटी, पेरिस के प्रेसीडेंट बन गए। वे आजीवन एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में लिखते रहे। इस दौरान उन्होंने हिन्दुस्तानी का गंभीर अध्ययन किया। उनके गुरु सिल्वस्त्रे द सासी हिन्दुस्तानी के महत्व को समझते थे और वे अपने प्रतिभाशाली शिष्य को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने फ्रांस की सरकार से हिन्दुस्तानी के अध्ययन के लिए एक चेयर स्थापित करने का आग्रह किया। उन्ही के प्रयास से पेरिस के “इंस्टीट्यूट देस लैंग्वेज एट सिविलाइजेशन्स ओरियन्टल्स” में हिन्दुस्तानी का एक चेयर स्थापित हुआ और उस चेयर पर 1828 में गार्सां द तासी की नियुक्ति हुई। 1829 में तासी ने फ्रेंच में ‘रुडिमेंस द ल लैंग्वे हिन्दूस्तानी’ नामक महत्वपूर्ण व्याकरण ग्रंथ की रचना की जिससे उनकी ख्याति बहुत दूर तक पहुँच गई। 1830 में तासी वहाँ हिन्दुस्तानी के स्थाई प्रोफेसर हो गए।

आरंभ में गार्सां द तासी की रुचि इस्लाम और अरबी साहित्य के अध्ययन में अधिक थी किन्तु बाद में उनकी रुझान उर्दू-हिन्दी की ओर हो गई जिसे पहले ‘हिन्दुस्तानी’ कहा जाता था। उन्होंने अपने जीवन का बाकी समय हिन्दुस्तानी को पढ़ने, पढ़ाने, लिखने और शोध करने में लगाया।

गार्सां द तासी एशिया और यूरोप के कई प्रमुख प्राच्य विद्या संस्थानो से भी जुड़े थे। वे पेरिस के फ्रांसीसी इंस्टीट्यूट, एशियाटिक सोसाइटी (लंदन, कलकत्ता, मद्रास, बंबई), इंपीरियल एकेडमी ऑफ साइंसेज, म्यूनिख, रॉयल एकेडमी, लिस्बन व रॉयल सोसाइटी, कोपेनहेगेन और अलीगढ़ इंस्टीट्यूट जैसे संस्थानों के सदस्य थे। तासी को फ्रांस में ‘नाइट ऑफ द लिजियन ऑफ ऑनर’ और ‘स्टार ऑफ द साउथ पोल’ जैसी उपाधियों से नवाजा गया था।

अपने शोध व आलोचनात्मक कार्यों के लिए तासी विशेष रूप से भारत में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों तथा अंग्रेजी पत्रिकाओं और समाचार पत्रों का सहारा लेते थे। वे प्रतिवर्ष, साल भर तक प्रकाशित भारत से संबंधित साहित्य का अध्ययन करते थे और वर्ष के अंत में उसका आकलन करते हुए व्याख्यान भी देते थे। ये व्याख्यान 1850 ई. से लेकर 1870 ई. के बीच उन्होंने दिए थे। इनमें हिन्दुस्तानी भाषा का महत्व तथा उसके साहित्य का सामान्य परिचय होता था। इन व्याख्यानों का प्रमुख उद्देश्य यूरोप के विद्यार्थियों में हिन्दुस्तानी भाषा और साहित्य के प्रति रुचि पैदा करना होता था।

10 दिसंबर 1857 के अपने व्याख्यान की शुरुआत तासी इन शब्दों में करते हैं, “ उत्तर भारत में जो भयावह घटनाएँ इस वर्ष हुई हैं, विशेषकर उत्तर पश्चिम के प्रान्तों में, ये वे प्रान्त हैं जहाँ की मुख्य भाषा हिन्दुस्तानी है और जहाँ वह विशेष तौर पर विकसित है, उनकी वजह से वहाँ साहित्यिक कार्य बिलकुल ठप हो चुके थे और इसलिए मैं जो वार्षिक व्याख्यान देता हूँ जिनमें विगत वर्ष के उर्दू और हिन्दी जबानों के प्रकाशनों और अखबारों का विवरण होता है, वह मैं नहीं दे पाया। यह आपको ज्ञात है, हिन्दुस्तान की अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक नई और जबरदस्त बगावत की शुरुआत हो चुकी है।“ ( अनुवाद, किशोर गौरव, मई 2015, tirchhispelling.wordpress.com/गार्सां द तासी/ )

शीताँशु ने सही लिखा है कि, “ हिन्दुस्तान में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच उपनिवेश की स्थापना को लेकर तीखे संघर्ष हुए थे और उनमें फ्रांसीसियों को मुँह की खानी पड़ी थी। पूरी अठारहवीं सदी में विभिन्न भारतीय इलाके फ्रांसीसियों के हाथों से निकलकर अंग्रेजों के हाथ में पहुँच गए थे। इन स्थितियों के बावजूद एक फ्रांसीसी विद्वान ही ब्रिटिश और भारतीय सहयोगियों के माध्यम से हिन्दी -हिन्दुस्तानी साहित्येतिहास के क्षेत्र में प्रारंभिक कार्य कर रहा था। फ्रांस में इतनी दूर बैठकर एक ऐसे समय में तासी अपना वृत्त-संग्रह तैयार कर रहे थे जब इस विषय पर सामग्री एकत्रित करना हिन्दुस्तान में भी विद्वानों के लिये दुष्कर था।…. तासी अपनी अनेक सीमाओं के बाद भी जो काम फ्रांस में बैठकर कर रहे थे वही काम यहाँ बैठकर अगले कई दशकों तक भारतीय नहीं कर सके थे।” ( भाषा के तराजू पर धर्म का पासंग : गार्सां द तासी, हिन्दी समय डाट काम )।

तासी ने बहुत ही गर्व के साथ अपनी पुस्तक में सूचित किया है कि, “गिलक्रिस्ट ने सिर्फ तीस विद्वानों की सूची दी है किन्तु मेरे पास सामग्री की कमी होने के बावजूद मैंने केवल पहली ही जिल्द में सात सौ पचास लेखकों और नौ सौ से भी अधिक रचनाओं का उल्लेख किया है।” ( ‘इस्तवार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी’ का लक्ष्मीसागर वाष्णेय द्वारा किया गया ‘हिन्दुई साहित्य का इतिहास’ शीर्षक अनुवाद, प्रकाशक, हिन्दुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद, संस्करण, 2003, पृष्ठ-3)

इन सबके बावजूद राजतंत्र का अंध समर्थन, ईसाइयत पर अंध आस्था और बुर्जुआ मानसिकता एक लेखक के रूप में तासी को कमजोर बनाती हैं। जिस फ्रांसीसी क्रान्ति को दुनिया की पहली और इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनक्रान्ति के रूप में स्मरण किया जाता है उसके प्रति भी तासी की दृष्टि नकारात्मक है और इसी तरह भारत में हुए प्रथम स्वाधीनता संग्राम के प्रति भी वे तटस्थ नहीं हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी इस्लाम के प्रति तासी के अतिरिक्त आग्रह को रेखाँकित किया है। वे लिखते हैं, “ हिन्दी-उर्दू का झगड़ा उठने पर अपने मजहबी रिश्ते के ख्याल से (गार्सां द तासी ने) उर्दू का पक्ष ग्रहण किया और कहा- हिन्दी में हिन्दू धर्म का आभास है- वह हिन्दू धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषंगिक विधान हैं। इसके विपरीत उर्दू में इस्लामी संस्कृति और आचार व्यवहार का संचय है। इस्लाम भी सामी मत है और एकेश्वरवाद उसका मूल सिद्धाँत है, इसलिए इस्लामी तहजीब में ईसाई या मसीही तहजीब की विशेषताएँ पाई जाती हैं।

संवत् 1927 के अपने व्याख्यान में गार्सां द तासी ने साफ खोलकर कहा, “मैं सैयद अहमद खाँ जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान की तारीफ में और ज्यादा नहीं कहना चाहता। उर्दू भाषा और मुसलमानों के साथ मेरा जो लगाव है वह कोई छिपी हुई बात नहीं है। मैं समझता हूँ कि मुसलमान लोग कुरान को तो आसमानी किताब मानते ही हैं, इंजील की शिक्षा को भी अस्वीकार नहीं करते, पर हिन्दू लोग मूर्तिपूजक होने के कारण इंजील की शिक्षा को नहीं मानते।“ (उद्धृत, हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2035, पृष्ठ-296)।

तासी का नजरिया यद्यपि बाद में उर्दू के प्रति अधिक उदार हो गया किन्तु आरंभ में वे हिन्दुई और हिन्दुस्तानी को एक ही परंपरा में रखकर देख रहे थे। उन्होंने लिखा है, “जहाँ तक दार्शनिक महत्व से संबंध है, यह उसकी विशेषता है और यह विशेषता हिन्दुस्तानी को एक बहुत बड़ी हद तक उन्नत आत्माओं द्वारा दिया गया अपनापन प्रदान करती है। वह भारत वर्ष के धार्मिक सुधारों की भाषा है। जिस प्रकार यूरोप के ईसाई सुधारकों ने अपने मतों और धार्मिक उपदेशों के समर्थन के लिए जीवित भाषाएँ ग्रहण कीं, उसी प्रकार भारत में हिन्दू और मुसलमान संप्रदायों के गुरुओं ने अपने सिद्धाँतों के प्रचार के लिए सामान्यत: हिन्दुस्तानी का प्रयोग किय़ा है। ऐसे गुरुओं में कबीर, नानक, दादू, बीरभान, बख्तावर और अंत में अभी हाल के मुसलमान सुधारकों में अहमद नामक एक सैयद हैं। न केवल उनकी रचनायें हिन्दुस्तानी में हैं, वरन उनके अनुयायी जो प्रार्थना करते हैं, वे जो भजन गाते हैं, वे भी उसी भाषा में हैं।“ ( इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी, का लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय द्वारा किया गया ‘हिन्दुई साहित्य का इतिहास’ शीर्षक अनुवाद, पृष्ठ-4)

इस तथ्य का उल्लेख भी शुक्ल जी ने अपने इतिहास में किया है। उन्होंने तासी के एक व्याख्यान के अंश को उद्धृत किया है जिसमें तासी ने हिन्दुई और हिन्दुस्तानी दोनो के विकास की साझा परंपरा का उल्लेख किया है। तासी ने लिखा है, “ उत्तर के मुसलमानों की भाषा यानी, हिन्दुस्तानी उर्दू पश्चिमोत्तर प्रदेश ( अब संयुक्त प्रांत ) की सरकारी भाषा नियत की गय़ी है। यद्यपि हिन्दी भी उर्दू से साथ साथ उसी तरह बनी है जिस तरह वह फारसी के साथ थी। बात यह है कि मुसलमान बादशाह सदा से एक हिन्दी सेक्रेटरी, जो हिन्दी नवीस कहलाता था और एक फारसी सेक्रेटरी जो फारसी नवीस कहते थे, रखा करते थे, जिससे उनकी आज्ञाएँ दोनो भाषाओं में लिखी जायँ। इस प्रकार अंग्रेज सरकार पश्चिमोत्तर प्रदेश में हिन्दू जनता के लिए प्राय: सरकारी कानूनों का नागरी अक्षरों में हिन्दी अनुवाद भी उर्दू कानूनी पुस्तकों के साथ देती है।“ ( हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2035, पृष्ठ- 296)

1857 के राष्ट्रीय विद्रोह पर भी तासी की दृष्टि संतुलित नहीं थी। उन्होंने नाना साहब को ‘रक्तपिपासु’ कहा है और अंग्रेजों का साथ देने के लिए ग्वालियर के राजा सिंधिया की भरपूर सराहना की है। जबकि दूसरी ओर कार्ल मार्क्स ने मेरठ की छावनी में घटी घटना पर 15 जुलाई 1857 को ‘न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून’ में बहुत ही संतुलित ढंग से और विस्तार से लिखा है। वे भी कभी भारत नहीं आए किन्तु उन्होंने 1857 के आंदोलन को ‘नेशनल रिवाल्यूशन आप हिन्दूज एंड मुस्लिम्स’ कहा है।

‘इस्त्वार द ल लितरे त्युर ऐंदुई ऐं ऐंदुस्तानी’ का पहली बार हिन्दी अनुवाद लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने ‘हिन्दुई साहित्य का इतिहास’ नाम से किया जो हिन्दुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद से 1953 में प्रकाशित हुआ।

अपने इस अनुवाद में वार्ष्णेय जी ने तासी के उक्त ग्रंथ से सिर्फ हिन्दुई साहित्य के अंश का चयन करके मात्र उसी हिस्से का अनुवाद किया है। ऐसा करके मेरी दृष्टि में तासी की उक्त कृति के साथ वार्ष्णेय जी ने न्याय नहीं किया है। तासी ने हिन्दुई और हिन्दुस्तानी के साहित्यकारों को बहुत सोच विचार कर एक साथ रखा था और इसका सम्मान किया जाना चाहिए था।

अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने इस ग्रंथ का महत्व रेखाँकित करते हुए लिखा है, “ फ्रेंच में होने के कारण तासी के ग्रंथ का उपयोग अभी तक हिन्दी के विद्यार्थी नहीं कर सके हैं, न हिन्दी साहित्य के इतिहासों में इस सामग्री का उपयोग हो सका है। तासी के ग्रंथ में हिन्दी तथा उर्दू साहित्यों का परिचय मिश्रित रूप में है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने हिन्दी साहित्य से संबंधित अंश का हिन्दी अनुवाद मूल ग्रंथ के आधार पर किया है।“ ( हिन्दुई साहित्य का इतिहास, लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, 1953, का डॉ. धीरेन्द्र वर्मा द्वारा लिखा गया प्रकाशकीय।) 

गार्सां द तासी का निधन 2 सितंबर 1878 को पेरिस में हुआ और वे उसी मारसेली (Marseille) शहर में दफनाए गए जहाँ उनका जन्म हुआ था।

डॉ. सईदा सुरैया हुसैन ने ‘गार्सां द तासी : उर्दू खिदमत, इल्मी कारनामे’ नाम से तासी पर पुस्तक लिखी है। इसी तरह सुल्तान मुहम्मद हुसैन ने ‘तलीकत-ए-खुतबत-ए-गार्सां द तासी’ नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है।

फ्रांस में रहते हुए गार्सां द तासी ने हिन्दुस्तान के साहित्य के बारे में जो अध्ययन और लेखन किया है वह असाधारण है।

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( लेखक कलकत्ता विश्वविद्य़ालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)

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