हिंदी के आलोचक – 21
यह दिलचस्प है कि उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक भी उर्दू साहित्य की शुरुआत अमीर खुसरो से मानते हैं और हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखक भी. आरंभिक उर्दू गद्य की पुस्तकों – बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, रानी केतकी और कुँवर उदयभान की कहानी आदि कृतियों से लेकर मुंशी प्रेमचंद, कृष्ण चंदर, सहादत हसन मण्टो, राही मासूम रजा, राजेन्द्र सिंह बेदी, इस्मत चुगताई आदि रचनाकार हिन्दी और उर्दू में समान रूप से पढ़े-पढ़ाये जाते है. हिन्दी-फिल्मों से जुड़े गीतकार जैसे कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जोश मलीहाबादी, निदा फाजली, जावेद अख्तर आदि, हिन्दी के कवियों- गीतकारों की तुलना में जनता में अधिक लोकप्रिय हैं यद्यपि इनके लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में जगह नहीं है.
हमने साहित्य और कला की यह कैसी दुनिया बनाई है जहाँ तुलसी को पढ़ने वाला गालिब को नही पढ़ सकता और इकबाल को पढ़ने वाला निराला के बारे में नहीं जानता ? विश्वविद्यालयों में हमने हिन्दी और उर्दू के नाम पर जो अलग-अलग विभाग बनाए हैं, ऐसा लगता है कि उनका मुख्य काम अपने जातीय साहित्य का बँटवारा करना है. हम हिन्दी साहित्य के अंतर्गत चंद बरदाई को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं, विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और ये सब हमें कठिन नहीं लगते लेकिन मिर्जा गालिब और मीर तकी ‘मीर’ हमें कठिन लगते हैं और उन्हें हिन्दी वाले नहीं पढ़ते जो खड़ी बोली के हैं और जिन्होंने खुद अपनी जबान को ‘हिन्दी’ कहा है.
उर्दू के रचनाकारों का जो साहित्य देवनागरी में उपलब्ध है उसमें सिर्फ अरबी-फारसी के कुछ कठिन शब्द होते है और आम तौर पर उनके हिन्दी अर्थ दिए होते हैं. मात्र इतने से ही उनकी कविताएँ आसानी से समझ में आ जाती हैं. मुझे बराबर लगता है कि गालिब, इकबाल, फैज और फिराक की तुलना में कबीर, जायसी, केशव और घनानंद कम कठिन नहीं हैं. अगर हिन्दी –उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं और दोनो शैलियों में रची गयी रचनाएँ एक ही क्षेत्र की साहित्यिक उपलब्धियाँ हैं तो हमारे साहित्य के विद्यार्थियों को अपनी दोनो ही परंपराओं से समान रूप से परिचय का अवसर मिलना चाहिए. उर्दू का सारा श्रेष्ठ साहित्य दिल्ली, आगरा और लखनऊ में रचा गया. हिन्दी का क्षेत्र भी यही है. जो लोग इस साहित्य को हिन्दी जाति का साहित्य मानने के पक्ष में नहीं हैं वे बताएँ कि यह किस जाति का साहित्य है ? क्या उर्दू नाम की भी कोई जाति बसती है ? यदि ऐसा है तो उसका भौगोलिक क्षेत्र कौन सा है ? क्या एक ही क्षेत्र में एक साथ दो जातियाँ बसती हैं ? क्या दुनिया में कहीं ऐसा भी संभव है ?
उर्दू का अलग साहित्य मानने के पीछे यदि यह तर्क है कि उसकी लिपि उर्दू है, देवनागरी नहीं; तो यह तर्क बिल्कुल बेबुनियाद है. आज हम अपनी हिन्दी को रोमन तक में लिखते हैं. आज की नयी पीढ़ी हिन्दी का एसएमएस रोमन में भेजने की अभ्यस्त हो चुकी है जबकि यह रोमन लिपि हिन्दी भाषा के लिए अत्यंत अवैज्ञानिक है. लिपि बदलने से भाषा नही बदल जाती. इतना ही नही, लिपि लिखने के काम आती है न कि बोलने के. हमारे देश में आज भी एक चौथाई लोग ऐसे हैं जो लिखना पढ़ना नहीं जानते. उनके बारे में हम कैसे तय करेंगे ? हम उर्दू के सारे साहित्यकारों को उर्दू लिपि में भी पढ़ सकते हैं और देवनागरी में भी. जो उर्दू नहीं जानते वे देवनागरी में पढ़ेंगे. इसमें क्या बुराई है ? एक भाषा दो लिपियों में पढ़ी जाय तो इसमें हर्ज क्या है ? कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा बांग्ला लिपि में पढ़ायी जाती है और मैं देखता हूँ कि उससे कोई असुविधा नहीं होती.
आज तो देखने में यह आता है कि उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार उर्दू के साथ-साथ देवनागरी मे भी छप जाते हैं. निदा फाजली, कैफी आजमी और जावेद अख्तर का श्रेष्ठ साहित्य पूरा का पूरा देवनागरी में भी उपलब्ध है. हिन्दी फिल्मों में इनके गीत हम गाते नही अघाते और दूसरी ओर इन्हें हिन्दी का नहीं मानते. यह दोहरा मापदंड क्यों ?
भले ही हमारे नेताओं ने उर्दू और हिन्दी, दोनो को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके अलग-अलग भाषा का दर्जा दे दिया है, वोट के लिए उर्दू को अघोषित रूप से इस्लाम से जोड़ दिया है, किन्तु अभी तक किसी भाषा वैज्ञानिक ने हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषा नहीं माना है. भाषा वैज्ञानिकों की राय ही हमारे लिए सर्वोपरि है, इसलिए हम कह सकते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही जाति की एक ही भाषा की दो शैलियाँ है और इसीलिए दोनो शैलियों में रचा गया हमारा साहित्य इस देश की सबसे बड़ी जाति – हिन्दी जाति का साहित्य है.
फिलहाल, हमारा दृढ़ मत है कि उर्दू शैली में लिखा गया साहित्य भी हिन्दी जाति का साहित्य है और इसीलिए हिन्दी साहित्य का अभिन्न हिस्सा है. ऐसी दशा में हिन्दी के अध्येताओं को अपने जातीय साहित्य की परंपरा के आधे हिस्से से अनभिज्ञ रखना कहाँ तक उचित है ? इसीलिए मुझे अपने उर्दू साहित्य के प्रमुख आलोचकों का सामान्य परिचय देना उचित प्रतीत हुआ है. गोपीचंद नारंग ( जन्म 11.2.1931) का इनमें महत्वपूर्ण स्थान है.
अविभाजित भारत के बलूचिस्तान में दुक्की नामक एक छोटे से कस्बे में जन्मे और दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद से अवकाश ग्रहण करने वाले गोपीचंद नारंग के पिता धरमचंद नारंग भी फारसी और संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान थे. उन्होंने विभाजन की त्रासदी को बहुत करीब से देखा और झेला था. इसकी पीड़ा उन्हें जीवन भर रही. वे मानते हैं कि, “विभाजन से भारतीय उपमहाद्वीप ने जो मोड़ लिया वो प्राकृतिक नहीं था. मुझे नहीं मालूम कि तारीख इसके बारे में क्या फैसला करेगी. लेकिन इससे सीमा के दोनो ओर की संस्कृति को बहुत नुकसान पहुँचा. देश का विभाजन सांप्रदायिक राजनीति की वजह से हुआ था लेकिन इसी सांप्रदायिक राजनीति के मुँह पर तब चपत पड़ी जब बंगलादेश बना. ये साबित हो गया कि भाषा की ताकत धर्म और जाति की ताकत से अधिक होती है. कभी किसी ने पूछा कि मराठी हिन्दू की जबान है या मुसलमान की, गुजराती का धर्म क्या है, मलयालम का क्या मजहब है. उर्दू और हिन्दी पर ही यह लेबल क्यों लगा ? इसकी वजह यह है कि इन्हें सांप्रदायिक राजनीति का हथियार बनाया गया.” ( उर्दू और हिन्दी एक दूसरे की ताकत, गोपीचंद नारंग, bbc.com/hindi/entertainment/2009)
वे आगे लिखते हैं, “ मैं उर्दू वालों को समझाता हूँ कि डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग मत बनाओ. तुम हिन्दी से अलग नहीं हो. तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत हिन्दी है. तुम इस धरती की पैदावार हो. उर्दू की 70 प्रतिशत शब्दावली देशी है जबकि केवल 30 प्रतिशत अरबी -फारसी की है. इसी तरह मैं हिन्दी वालों से भी कहता हूँ कि उर्दू तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है. उर्दू और हिन्दी में नाखून और गोश्त का रिश्ता है जो अलग हो ही नहीं सकता.” ( उपर्युक्त )
उर्दू में शैली विज्ञान और रूपवादी आलोचना के संस्थापको में गोपीचंद नारंग प्रमुख हैं. एक भाषाविद् और आलोचक के रूप में डॉ. गोपीचंद नारंग की विशेष ख्याति है. उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण, तथा इकबाल पर किए गए शोधकार्य के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति का विशेष स्वर्ण पदक ‘तमग-ए-इम्तियाज’ प्राप्त हो चुका है. उनकी आलोचना की किताब ‘साख्शियात पस-साख्शियात और मशरीकी शेरियात’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया है.
गोपीचंद नारंग ने मुख्यत: कथा-साहित्य की आलोचना पर अपने को केन्द्रित किया है. अपनी कथा समीक्षा से संबंधित पुस्तक ‘फिक्शन शेरियात : तश्कील-ओ-तनकीद’ ( कथा का शास्त्र : रचना और समीक्षा) में उन्होंने प्रेमचंद, मंटो, राजिन्दर सिंह बेदी, कृश्न चंदर, बलवंत सिंह, इंतिजार हुसैन, गुलजार, सुरेन्द्र प्रकाश और साजिद रशीद आदि कथाकारों की कहानियों का पाठ आधारित विस्तृत विश्लेषण किया है. कहानियों के मूल्यांकन में उन्होंने विचारधारा, दर्शन, इतिहास, सौंदर्यशास्त्र और भाषा-शास्त्र के साथ ही सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा है. गोपीचंद नारंग की आलोचना की प्रमुख विशेषतओं की ओर संकेत करते हुए शाफे किदवई लिखते हैं,
“गोपीचंद नारंग ने आकारपरक और शैलीपूर्ण आलोचना के अलावा आर्कीटाइपल आलोचना को भी, जिसके व्याख्याकारों में नार्थरोप फ्राई और लेवी स्ट्राउस के नाम सूची में शीर्ष पर हैं, उर्दू में प्रचलित किया. इस संबंध में सर्वाधिक प्रतिष्ठित और विचारशील लेख ‘बेदी के फन की इस्तआराती ( रूपक संबंधी ) और असातीरी ( देवमालायी ) जड़ें’ है. इस मजमून में गोपीचंद नारंग ने बेदी की कई कहानियों और उपन्यासिका ‘एक चादर मैली सी’ के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि साहित्यिक पाठ स्वयं एक साँस्कृतिक स्वरूप की हैसियत रखता है, जिसकी बुनियाद आर्कीटाइप और अस्तूर ( देवमाला) पर कायम है.”( बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य, पृष्ठ- 247). वे आगे लिखते हैं, “बेदी के अतिरिक्त मंटो और इंतजार हुसैन की कला को भी नारंग साहब ने अध्ययन का विषय बनाया और उनकी कला की कुछ बिलकुल नई दिशाओं को चिह्नित किया. इंतजार हुसैन के बुनियादी विषयों का विवरण देते हुए नारंग साहब ने लिखा है कि सामाजिक यादों की कहानियाँ, इंसान के रूहानी एवं नैतिक पतन और अस्तित्ववादी समस्याओं की कहानियाँ, राजनीतिक समस्याओं की कहानियाँ , मनोवैज्ञानिक कहानियाँ, बौद्ध जातक और हिन्दू देवमाला की कहानियाँ और आज की समस्याओं के परिदृश्य में उनका नया अर्थ संबंधी रूप- विधान इंतजार हुसैन की कला का अपरिहार्य भाग है. कलात्मक स्तर पर उन्होंने प्रचलित साँचों को पलटकर कहानी को एक नई शक्ल और नया जायका दिया है.“ ( बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य, पृष्ठ- 247).
गोपीचंद नारंग ने कवियों में गालिब, इकबाल, अनीस, मीर, फिराक, फैज, अली सरदार जाफरी से लेकर शहरयार तक के काव्य का मूल्यांकन किया है और अपनी विशिष्ट आलोचनात्मक दृष्टि और शैली के अनुसार उनकी भाषिक विशिष्टताओं और उनकी शायरी के साँस्कृतिक मूल्यों का विवेचन किय़ा है. मीर के बारे में गोपीचंद नारंग की समीक्षा पर टिप्पणी करते हुए खुर्शीद अहमद ने लिखा है कि नारंग साहब का यह वाक्य, “ मीर दरअस्ल पूरी उर्दू जुबान के पूरे शाइर हैं.” नक्दे मीर ( मीर की समालोचना ) में लोकोक्ति का दर्जा रखता है.
गोपीचंद नारंग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तकों में ‘सख्सियात पस-सख्सियात और मशरीकी शेरियात’ (संरचनावाद, उत्तरसंरचनावाद और प्राच्यकाव्य शास्त्र ) का प्रमुख स्थान है. इसमें उत्तर आधुनिक आलोचनात्मक अवधारणाओं का विस्तृत विश्लेषण है. उत्तर आधुनिकतावाद, उर्दू में उत्तर आधुनिकता, साहित्यिक आलोचना और शैलीविज्ञान, आलोचना की बदलती वरीयताएँ और वैचारिक रवैये आदि विषयों और आलोचना की नई से नई अवधारणाओं पर उन्होंने विस्तार से लिखा है.
“पुस्तक में संस्कृत काव्यशास्त्र, अरबी- फारसी काव्यशास्त्र और संरचनावाद के बीच त्रिकोणीय संवाद प्रस्तुत करने का प्रयत्न है. नारंग ने प्राय: उपेक्षित प्राच्य काव्यशास्त्र को अपने अनुसंधित्सु मन की ज्योति से जीवंत किया है और प्राचीनतम काल से लेकर समकालीन साहित्य-सिद्धांतों के प्रारंभिक लक्षणों तक का समाहार किया है. अंत:साक्ष्य सुस्पष्ट और व्यावहारिक होने के नाते विश्वसनीय हैं. संरचनावाद और उत्तरसंरचनावाद से प्राच्य काव्यशास्त्र को जोड़कर नारंग आलोचना के नए प्रतिमान पर समृद्ध बहस की शुरुआत करते हैं. यह बहस एक सार्वभौम और राष्ट्रीय अस्मिता की निरंतर खोज की पड़ताल करती है.” (साहित्य अकादमी के प्रतिवेदन से)
अपने एक साक्षात्कार में वे उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में कहते है,
“उत्तर आधुनिकता ऐसा दर्शन है जो पाठक-वर्ग पर असर कायम करता है और असर कायम करने का अर्थ है उसे बदलना. हाँ, यह बदलाव पुराने दर्शनों की तरह किसी पार्टी के फार्मूलों से नियोजित नहीं है क्योंकि सारे पार्टीबद्ध दर्शन और नजरिए अंतत: डाग्मैटिक हो जाते हैं और मानवीय स्वतंत्रता को परिमित करते हैं. उत्तर आधुनिकतावाद को मैं तरफें खोलने वाले, जब्र के खिलाफ आवाज उठाने वाले और जिन्दगी को सेलीब्रेट करने वाले दर्शन के तौर पर देखता हूँ. ऐसा दर्शन जो पुराने पूँजीवाद का दर्शन नहीं है.” ( उर्दू का खुलता दरीचा, पृष्ठ- 637)
उन्होंने ‘फैज को कैसे पढ़ें ?’ शीर्षक निबंध के माध्यम से फैज की रचनाओं का विश्लेषण करते हुए संरचनावाद का व्यावहारिक उदाहरण भी प्रस्तुत किया है. इस तरह उर्दू में उत्तर आधुनिक आलोचनात्मक विमर्श को लाने का श्रेय गोपीचंद नारंग को है.
गोपीचंद नारंग ने साहित्य में संकीर्णतावाद, धार्मिक कट्टरता और सामाजिक अन्याय का निरंतर विरोध किया है. साहित्य में विचारधारा के महत्व को स्वीकार करते हुए भी वे एक सीमा तक ही उसे स्वीकार करते हैं. उर्दू को वे सद्भाव और सौहार्द की भाषा मानते हैं जिसने हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों के बीच हमेशा से सेतु का काम किया है.
गोपीचंद नारंग के आलोचनात्मक ग्रंथों में ‘अमीर खुसरो का हिन्दवी काव्य’, ‘उस्लूबियाते-मीर’, ‘सफर आशाना’, ‘इकबाल का फन’, ‘राजेन्दर सिंह बेदी’, ‘इकबाल : जामिया के मुसन्नफीन की नज़र में’, ‘अनीस- शनासी’, ‘गालिब’, ‘सज्जाद जहीर’, ‘उर्दू अफसाना – रिवायत और मसायल’,‘भारतीय लोक कथाओं पर आधारित उर्दू-मसनवियाँ’ ‘आजादी के बाद उर्दू अफसाना’, ‘जदीदियत के बाद’, ‘नया उर्दू अफसाना’, ‘बलवंत सिंह के बेहतरीन अफसाने’, ‘उर्दू गजल और हिन्दुस्तानी जेह्न-वो-तहजीब’, ‘उर्दू की नई बस्तियाँ’, ‘उर्दू की नई किताब’, ‘उर्दू जबान और लिसानियत’, ‘कागज-ए-आतिश-जदह’, ‘हिन्दुस्तान की तहरीक-ए-आजादी और उर्दू शायरी’, ‘उर्दू की तालीम की लिसानियती पहलू’, ‘हिन्दुस्तान के उर्दू मुसन्नफीन और शोरा’, ‘अदबी तन्कीद और उस्लूबियात’, ‘देखना तकरीर की लज्जत’, ‘वजाहती किताबियत’ आदि प्रमुख हैं. उनकी कुछ किताबें हिन्दी और कुछ अग्रेजी में भी हैं.
गोपीचंद नारंग साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)