खगेन्द्र ठाकुर : सामाजिक सरोकार की खोज के आलोचक : – डॉ. अमरनाथ

हिंदी के आलोचक – 30

खगेंद्र ठाकुर

गोड्डा (झारखंड) जिले के मालिनी गाँव में जन्मे, भागलपुर और पटना विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ वर्ष तक सुल्तान गंज के मोरारका कॉलेज में हिन्दी का अध्यापन करने के बाद नौकरी से त्यागपत्र देकर सीपीआई के सांगठनिक कार्यों से आजीवन जुड़े रहने वाले खगेन्द्र ठाकुर ( 9.9.1937-13.1.2020) एक प्रतिष्ठित मार्क्सवादी आलोचक हैं. उनकी आलोचना का क्षेत्र मूलत: आधुनिक साहित्य है. ‘विकल्प की प्रक्रिया’, ‘आज का वैचारिक संघर्ष और मार्क्सवाद’, ‘आलोचना के बहाने’, ‘समय, समाज और मनुष्य’, ‘कविता का वर्तमान’, ‘छायावादी काव्यभाषा की विवेचना’, ‘दिव्या का सौन्दर्य’, ‘रामधारीसिंह दिनकर : व्यक्तित्व और कृतित्व’, ‘कहानी : परंपरा और प्रगति’, ‘कहानी : संक्रमणशील कला’, ‘उपन्यास की महान परंपरा’, ‘नागार्जुन का कविकर्म’, ‘प्रगतिशील आन्दोलन के इतिहास पुरुष’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियाँ हैं. भगवतशरण उपाध्याय पर उन्होंने विनिबंध लिखा है.

खगेन्द्र ठाकुर एक प्रतिबद्ध आलोचक हैं. उनके अनुसार लेखक की भूमिका केवल बिम्बों और प्रतीकों की योजना में ही न होकर समाज को अधिक मानवीय और सुसंस्कृत बनाने में है. लेखक के लिए वे ‘जनता के बुद्धिजीवी’ होने पर जोर देते हैं. वे मानते हैं कि “लेखक पक्षधर होता है, लेकिन इस पक्षधरता का निर्माण वैचारिक प्रतिबद्धता से नहीं बल्कि सामाजिक सरोकार और सामाजिक न्याय की खोज से होता है. यह पक्षधरता परंपरा से चले आते हुए मानववाद का ही नया रूप है.”( आलोचना, अंक-75, पृष्ठ-22)

दुनिया भर में मार्क्सवाद के पतन से खगेन्द्र ठाकुर हताश और निराश नहीं हैं. वे मानते हैं कि सही विचारधारा ही साहित्य की श्रेष्ठता का निर्धारण करती है. कबीर का महत्व जातिवाद, संप्रदायवाद और रूढ़िवाद के विरुद्ध उनके संघर्ष में ही निहित है.

दिनकर और नागार्जुन खगेन्द्र जी के सर्वाधिक प्रिय कवि हैं. ‘नागार्जुन का कविकर्म’ उनकी महत्वपूर्ण कृतियों में से है. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन के दौरान नागार्जुन जब जेल से बाहर आये तो उन्होंने पहला साक्षात्कार खगेन्द्र ठाकुर को दिया जिसमें उन्होंने आंदोलन को लेकर काफी तल्ख टिपणियाँ की थीँ. नागार्जुन के अलावा खगेंद्र ठाकुर ने रामधारी सिंह दिनकर और भगवत शरण उपाध्याय पर पुस्तकें लिखीं.  दिनकर की काव्य चेतना पर जब वे विचार करते हैं तो उनकी अपनी आलोचना-दृष्टि की व्यापकता का पता चलता है. वे लिखते हैं, “कुरुक्षेत्र की चिन्ता मनुष्यता और मानव समाज की चिन्ता है, और यही बात कविता का उदात्तीकरण करती है. स्वतंत्रता संग्राम कविता का अत्यंत महत्वपूर्ण विषय था, लेकिन वह तात्कालिक या अल्पकालिक विषय था. क्योंकि देश के आजाद होते ही बहुतेरे कवियों का विषय लुप्त हो गया. दिनकर का जागरूक और क्रियाशील कवि आजादी की धमक पाकर ही राष्ट्र से ऊपर उठकर मानवता के भवितव्य के बारे में सोचने लगता है. कलिंग विजय से कुरुक्षेत्र तक यह चिंता सक्रिय है. कविता में दिया गया समाधान विचारणीय जरूर है, लेकिन वह अंतिम नहीं है. समाधान तो कविता से अधिक दिनकर की चेतना में है.” ( दिनकर की काव्य चेतना, हिन्दी समय डाट काम से )

वे हरिवंशराय बच्चन से दिनकर की तुलना के बहाने दिनकर के काव्य में निहित स्थायी मूल्य की ओर संकेत करते हुए आगे लिखते हैं, “दिनकर की शक्ति और विशिष्टता यह है कि आधुनिक कविता में किसी एक प्रवृति और धारा के साथ न होकर भी वे आधुनिक कविता के विकास में अपनी सार्थकता और महत्ता सिद्ध करते हैं. उत्तेजना और संवेदना का सामंजस्य अपनी रचनात्मक भाषा में करने का विलक्षण प्रयोग उन्होंने किया है. उनकी इस रचनात्मक सामर्थ्य को व्यापक स्वीकृति प्राप्त है. दिनकर किसी काव्य प्रवृति के प्रवर्तक नहीं हैं, वे इतिहास चेतना के साथ मजबूती से चलते रहे हैं. बच्चन उनके समकालीन कवि हैं. एक समय में दोनो ही युवा पीढ़ी में अत्यंत लोकप्रिय रहे. बच्चन भी विकासमान काव्य चेतना के साथ कदम मिलाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते. दिनकर सफल इस अर्थ में हैं कि नई कविता और उसके बाद भी कोई उन्हें पिछड़ा हुआ या पीछे पड़ा हुआ कवि नहीं कहता. प्रवृति विधायक कवि नहीं होने के कारण दिनकर किसी दौर में न आते हुए रचनाकारों को प्रभावित नहीं कर सके, फिर भी स्वातंत्र्योत्तर काल के कवियों और पाठकों से भी उन्हें अत्यधिक आदर मिला.” (उपर्युक्त )

खगेन्द्र जी भक्ति काव्य को अपनी प्रगतिशील धारा की विरासत मानते हैं और खुद को उसका वारिस. वे लिखते हैं, “भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य हमारी विरासत है. हम उस महान जागरण और सृजन के वारिस हैं. विरासत एक ऐतिहासिक जवाबदेही है. हमारे उन पुरखों ने जिस सत्य और न्याय के लिए संघर्ष किया और अपना दायित्व अधूरा छोड़ गए, उसे अपने आज के संघर्ष से जोड़कर उसे पूरा करने की जवाबदेही कबूल करना ही विरासत को स्वीकार करना है. हम उसे हू-ब-हू नहीं कबूल करते, उसकी समीक्षा करके उसकी सीमाओं से बचकर, आज की अपेक्षाओं को विकसित करके ही हम विरासत को मंजिल तक ले चलने में सफलता हासिल कर सकते हैं. हमें अपनी विरासत पर नाज है. इस विरासत को आधुनिक युग में प्रगतिशील आन्दोलन ने ग्रहण किया है.

भक्ति- काव्य की विरासत को कबूल करते हुए हमें इतना ध्यान में रखना होगा कि आज हमारी लड़ाई पूँजीवाद या विश्व पूँजीवाद के खिलाफ है. आज का पूँजीवाद, वित्तीय पूँजीवाद है, मनुष्यता का सबसे बड़ा दुश्मन. इस दुश्मन को पराजित किए बिना हम अपनी विरासत और उद्देश्य को चरितार्थ नहीं कर सकते.”( भक्ति आन्दोलन : पुनर्मूल्यांकन, हिन्दी समय डॉट काम से)

भक्ति आन्दोलन से अपनी प्रगतिशीलता को जोड़ते हुए खगेन्द्र जी उसका पुनर्मूल्याँकन करते हैं और उसके उद्भव के विषय में जार्ज ग्रियर्सन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की स्थापनाओं को प्रश्नांकित करते हुए उसका संबंध सूफियों तथा बौद्ध मत से जोड़ते हैं. वे कहते हैं, “ऐसे सूफी संत 1192 में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद भारत आए थे और बाद में अजमेर जाकर बस गए थे, जिनमें ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का बड़ा नाम रहा है. आज भी अजमेर शरीफ मशहूर है. सतीश चंद्र लिखते हैं, “तुर्कों के भारत आगमन से काफी पहले से ही यहाँ एक भक्ति आंदोलन चल रहा था जिसने व्यक्ति और ईश्वर के बीच रहस्यवादी संबंध को बल देने का प्रयत्न किया था.” ( मध्यकालीन भारत, पृष्ठ-120). यह दक्षिण भारत में उत्पन्न और प्रसारित भक्ति आंदोलन था. बौद्ध आंदोलन के समानांतर बहुत हद तक उसके प्रसार का विरोध करते हुए यह भक्ति आंदोलन फैला. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का उद्भव और प्रसार प्राय: चार पाँच सौ वर्ष बाद में हुआ. इसका ऐतिहासिक और सामाजिक कारण यह है कि  उत्तर में बौद्ध प्रभाव के कारण दलितों पर अत्याचार दक्षिण की तुलना में कम था.” ( उपर्युक्त ).

प्रगतिशील लेखक संघ, बिहार के तत्वावधान में पटना में मनाए जा रहे मुक्तिबोध जन्मशताब्दी समारोह की अध्यक्षता करते हुए खगेन्द्र जी ने जो कहा उससे उनकी वैज्ञानिक और दूर-दृष्टि तथा सामाजिक यथार्थ की समझ का अनुमान किया जा सकता है. उन्होंने कहा था, “ मैं भी मुक्तिबोध की तरह नेहरू के विचारों से पहले सहमत नहीं था. लेकिन जिस तरह अक्सर नेहरू की खबर रखते हुए अंत समय में मुक्तिबोध कहने लगे थे कि -नेहरू के बाद फासिस्ट आ जाएगा. इसलिए नेहरू का होना जरूरी है.- वैसे ही आज मैं भी मानता हूँ कि नेहरू अच्छे थे. उनके जाने के बाद फासिस्ट का खतरा है. और यह भी सच है कि आज वे सत्ता में आ गए हैं लेकिन अभी तक फासिज्म आया नहीं है. और इसके लिए कांग्रेस खुद ही जिम्मेदार है. जब- जब वामपंथ कमजोर होता है, जनतंत्र कमजोर होता है.“

मुक्तिबोध के बारे में रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की मान्यताओं पर अपनी असहमति दर्ज करते हुए उन्होंने कहा कि, “ रामविलास शर्मा जो उन्हें वाम और दक्षिण अवसरवाद का जंक्शन मानते थे और नामवर सिंह जो उन्हें अस्मिता की खोज वाला कवि कहते हैं. इन दोनों ने ही इनका मूल्यांकन गलत किया है. जिस तरह उनकी कविता ‘अँधेरे में’ को पिछले कुछ वर्षों से बढ़ा- चढ़ा कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जितना उनके व्यक्तित्व का बखान किया जा रहा है उतना वे हैं नहीं. सबसे बड़े कवि के रूप में नागार्जुन हैं, और मुक्तिबोध से कई मायने में बेहतर और जनवादी कवि हैं. मुक्तिबोध की कविता का अंधेरा पूँजीवाद का अंधेरा है जो दिखाई नहीं देता इस कारण वो खतरनाक है. लोगों को सामंती फासीवाद दिखता है जबकि पूँजीवादी फासीवाद सबसे खतरनाक है.” ( जानकीपुल, 29 जुलाई 2017, प्रभातरंजन की रिपोर्ट, नागार्जुन मुक्तिबोध से बड़े कवि : खगेन्द्र ठाकुर )

आलोचना में खगेन्द्र जी कभी भी अपने -पराए का ख्याल नहीं रखते और समझौता नहीं करते. आलोक धन्वा और अरुण कमल दोनो ही उनके प्रिय, अपने प्रदेश के और उन्हीं की तरह प्रगतिशील विचारों के कवि हैं, किन्तु जब उनके काव्य के मूल्याँकन की बात हुई तो उन्होंने सुमंत से एक इंटरव्यू में कहा,

“आलोक धन्वा पूरी तरह विकसित कवि नहीं हैं. दो- चार कविताओं के आधार पर उन्हें इतनी ख्याति मिल गई कि उनकी रचनात्मकता उसी ख्याति में दबकर रह गई. ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ इनकी सबसे चर्चित रचना है. इन कविताओं में भी घोषणाएं ज़्यादा हैं. वे एक वर्जित प्रदेश में जाना चाहते हैं पर गए नहीं. रचना की चेतना और जीवन-शैली में ज़्यादा फर्क होने से रचना पीछे छूट जाती है. मेहनत के बिना सुख सुविधा प्राप्त करते रहने से रचना की मनोदशा बदलती बिगड़ती है.”

इसी तरह पुष्पराज ने जब पूछा कि ‘अरुण कमल की कोई एक कविता जिसे आप नागार्जुन की कसौटी पर संघर्षरत जनता के पक्ष में खड़ा देखते हैं’,  तो इसका उत्तर देते हुए खगेन्द्र जी ने कहा,

“नागार्जुन को कसौटी मानकर अरुण कमल को परखने का तरीका उचित नहीं है. फिर भी तुम पूछ रहे हो तो मैं कहता हूँ कि अरुण कमल की कोई कविता इस समय मुझे स्मरण में नहीं है, जो नागार्जुन की तरह जनता के पक्ष में सीधे संघर्षरत हो. बावजूद, अरुण कमल शोषितों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और कई जगह अन्याय के विरुद्ध अपने विचार प्रकट करते हैं.”

साफ है, जहाँ वे आलोक धन्वा में रचना-चेतना और उनकी जीवन-शैली में भारी फर्क के चलते रचना के पीछे छूट जाने की कमी को स्पष्टतः रेखाँकित करते हैं, तो वहीं अरुण कमल को शोषितों के प्रति महज सहानुभूति रखने वाला कवि मानते हैं न कि नागार्जुन की तरह उनके संघर्ष के प्रति प्रतिबद्ध. यह है खगेन्द्र जी की वह बेधक आलोचना-प्रविधि जिसके आधार पर उनके संपूर्ण रचना-संसार की निर्मित हुई दिखती है. (youthkiawaaz.com/2020/01/life-of-khagendra-thakur, published on 15.1.2020)

‘कहानी : परंपरा और प्रगति’ कथा आलोचना पर केन्द्रित खगेन्द्र ठाकुर की महत्वपूर्ण कृति है. इस पुस्तक में कहानी के विकास की विभिन्न अवस्थाओं के साथ रचनात्मक विशेषताओं का भी परिचय मिल जाता है. हिन्दी कहानी के इतिहास को समझने की दृष्टि से यह पुस्तक बहुत उपयोगी है, यद्यपि यह कहानी के इतिहास की पुस्तक नहीं है. इसमें कहानी की प्रवृत्तियों की समीक्षात्मक खोज करने की कोशिश है. इसके साथ ही इसमें कहानी के विकास के निमित्त बने अनेक प्रमुख कहानीकारों की कहानी कला का मूल्यांकन भी है. पुस्तक में 1901 में प्रकाशित माधवराव सप्रे की कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी’ से चल कर अद्यतन कहानीकार की रचनाशीलता का विवेचन किया गया है. खगेन्द्र जी किसी कहानी का मूल्याँकन करते समय सबसे पहले कहानी के कथा-तत्त्व की व्याख्या करते हैं और फिर कथ्य को पकड़ते हुए उसके महत्व को रेखाँकित करते हैं. कहानी के मूल्याँकन की उनकी यह विशिष्ट पद्धति है. वे अपनी आलोचना में कभी आक्रामक नहीं होते और हमेशा अपना विवेक और सन्तुलन कायम रखते हैं.

आलोचना के महत्व और उसके दायित्व बारे में खगेन्द्र जी की मान्यता है कि, “आलोचना सिर्फ लेखकों के लिए नहीं होती है, संपूर्ण समाज और समय काल के लिए होती है. नयी पीढ़ी के रचनाकार अगर आलोचना से प्रेरणा नहीं लेते हैं तो यह विडंबना है. आलोचक और रचनाकार के संबंध पर नागार्जुन की एक कविता है, “कलाकार ने फिर- फिर सोचा / कीर्ति का फल चखना है, तो आलोचक को खुश रखना है. आलोचक ने फिर- फिर सोचा / कीर्ति का फल चखना है तो कलाकार को नाथे रखना है.” मेरा अपना आलोचकीय अनुभव है कि मैंने जिनकी आलोचना लिखी, उन्होंने मुझे बताया कि आपकी आलोचना से मैंने प्रेरणा ली.” ( उपर्युक्त )

खगेन्द्र जी एक बेहतरीन और ईमानदार संगठनकर्ता रहे हैं. वे आजीवन कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े रहे. वर्ष 1993 से 1999 तक वे प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव रहे. इससे पूर्व 1974 से 1993 तक प्रलेस के प्रदेश महासचिव रहे. इसी दौरान बिहार के गया में उन्होंने प्रलेस का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया. प्रलेस बिहार की पत्रिका ‘उत्तरशती’ का उन्होंने 1981 से 1985 तक संपादन किया. कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘जनशक्ति’ से उन्होंने अपनी शुरुआत व्यंग्य कॉलम लिखने से की और बाद में अपनी प्रोफेसरी की सुरक्षित नौकरी छोड़कर उसके पूर्णकालिक संपादक बन गए और दो वर्ष तक उसका संपादन किया.

राजधानी पटना के प्रेमचंद रंगशाला को सीआरपीएफ से मुक्ति दिलाने के आन्दोलन में उनपर भी लाठियाँ पड़ी थी. वे शिक्षक आन्दोलन से भी जुड़े रहे. एक अच्छे वक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर भी उनकी विशिष्ट पहचान थी. राजनीतिक चेतना से संपन्न खगेन्द्र ठाकुर ने पटना और राँची में रहते हुए देश-देशांतर की वैचारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय सहभागिता की थी. बिहार में घूम-घूम कर, दूर दराज के क्षेत्रों में प्रगतिशील लेखक संघ के लिए उन्होंने दौरा किया था. 1980 में जब प्रेमचंद की जन्मशताब्दी मनाई जा रही थी तब उन्होंने पूरे बिहार में सैकड़ों सभाओं व कार्यक्रमों का आयोजन किया था.

खगेन्द्र ठाकुर ने कविताएँ भी लिखी हैं. ‘धार एक व्याकुल’, ‘आजादी का परचम’ और ‘रक्त कमल परती पर’ उनके कविता संग्रह हैं. ‘देह धरे को दंड’ और ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ उनके व्यंग्य संग्रह हैं. ‘उत्तरशती’ पत्रिका के अलावा उन्होंने ‘प्रेमचंद प्रतिनिधि संकलन’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल’ तथा ‘आलोचक के मुख से (नामवर सिंह के व्याख्यानों का संकलन)’ का संपादन भी किया है.

उनकी निम्नलिखित कविता उनके व्यक्तित्व को भी अभिव्यंजित करती है.

हाँ हम काले हैं
काली होती है जैसे मिट्टी
जब खुलता है उसका दिल
तो दुनिया हरी-भरी हो उठती है
जब जलता है तो
हो जाता है बिल्कुल लाल. 

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

अमरनाथ

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