हिंदी के आलोचक – 37
फर्रूखाबाद जिले (उ.प्र.) के सिकंदरपुर नामक कस्बे में जन्मे और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रहे प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल ( 4.3.1943- 8.2.2015 ) का आलोचना-फलक व्यापक है. उनकी आलोचना- दृष्टि मध्यकालीन भक्ति साहित्य से लेकर आज के दलित और स्त्री-साहित्य तक विस्तृत है. ‘पं. रामनरेश त्रिपाठी का काव्य’, ‘महादेवी वर्मा की रचना प्रक्रिया’, ‘मैथिलीशरण गुप्त : प्रासंगिकता के अंत:सूत्र’, ‘भवानीप्रसाद मिश्र का काव्य संसार’, ‘सर्वेश्वर और उनकी कविता’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का चिन्तन जगत’, ‘मध्ययुगीन हिन्दी काव्यों में नायक’, ‘भक्तिकाव्य से साक्षात्कार’, ‘हिन्दी आलोचना का सैद्धांतिक आधार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी तथा अन्य निबंध’, ‘भारतीय नयी कविता’, ‘गिरिजाकुमार माथुर’, ‘उत्तर आधुनिकतावाद की ओर’, ‘हिन्दी आलोचना : समकालीन परिदृश्य’, ‘हिन्दी का आलोचना पर्व’, ‘हिन्दी आलोचना के नये वैचारिक सरोकार’, ‘डॉ. अंबेडकर : समाज-व्यवस्था और दलित साहित्य’, ‘स्त्री-विमर्श के स्वर’, ‘निर्मल वर्मा ( विनिबंध)’, ‘उत्तर आधुनिकतावाद और दलित साहित्य’, ‘सृजन का अंतर्पाठ’ आदि उनकी प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. उन्होंने ‘मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली (12 खंड)’, तथा ‘अज्ञेय रचनावली (18 खंड)’ का कुशल संपादन किया है. इसके अलावा उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चंद्र, रामचंद्र शुक्ल, लक्ष्मीकान्त वर्मा, टॉलस्टाय, खलील जिब्रान, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे रचनाकारों के रचना संचयन का भी संपादन किया है.
कृष्णदत्त पालीवाल की खूबी यह है कि वे किसी राजनीतिक विचारधारा से बँधे नहीं है इसलिए, रचना के मूल्याँकन के लिए प्राय: रचना के भीतर से ही मानदंड खोजने के आग्रही हैं. किन्तु गाँधी के दर्शन का उनके ऊपर सबसे ज्यादा प्रभाव देखा जा सकता है. कृति की आलोचना करते समय वे कृति में पूरी तरह डूब जाते हैं इसलिए उनकी आलोचना अधिक विश्वसनीय होती है.
कृष्णदत्त पालीवाल ने मध्यकालीन काव्य से लेकर आधुनिक काल के अपने समकालीन कवियों तक के बारे में विस्तार से लिखा है. उनकी पुस्तक ‘हिन्दी का आलोचना पर्व’ में मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, अज्ञेय, सर्वेश्वर, कुँवरनारायण, गिरिजाकुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, धूमिल, राजकमल चौधरी, बालकृष्ण राव और विनोद कुमार शुक्ल तक पर लिखे गए आलोचनात्मक लेख हैं. इस ग्रंथ में उनकी मुख्य चिंता हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा को विस्मृति और उपेक्षा के कुहासे से बाहर लाना है.
कृष्णदत्त पालीवाल के सबसे प्रिय कवि अज्ञेय हैं. ‘अज्ञेय रचनावली’ के संपादन के अलावा भी उन्होंने अज्ञेय के साहित्य पर केन्द्रित ‘अज्ञेय के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार’ तथा ‘अज्ञेय से साक्षात्कार’ जैसी पुस्तकें लिखी हैं. अज्ञेय के निबंधों, भूमिकाओं, संस्मरणों, यात्रा साहित्य तथा उनके द्वारा आयोजित व्याख्यान मालाओं और यात्रा शिविरों में लेखकों, विद्वानों, कला-मर्मज्ञों के व्याख्यानों का अंतर्पाठ करते हुए इस पुस्तक में दिखाया गया है कि अज्ञेय ने भारतीय समाज, हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति को औपनिवेशिक आधुनिकता से मुक्त कराने और भारतीय आधुनिकता को दिशा प्रदान करने का प्रयास किया. ‘अज्ञेय से साक्षात्कार’ शीर्षक पुस्तक से अज्ञेय के रचना कर्म और उनकी वैचारिक यात्रा के समूचे इतिहास का साक्षात्कार किया जा सकता है.
‘तारसप्तक’ तथा सप्तकों की भूमिकाएँ बहुत विवादित रही हैं. कवि- कर्म से संबंधित जितनी अवधारणाएँ, चिंतन और वाद-विवाद पिछले छह दशकों में पैदा हुए हैं उनका केन्द्र ‘तारसप्तक’ ही है. प्रयोग, परंपरा, आधुनिकता, काव्य सत्य, जटिल संवेदना, काव्यानुभूति, काव्यभाषा, काव्य- प्रतीक, काव्य-बिंब और लय आदि को लेकर उस दौर में जो तमाम बहसें उठ खड़ी हुईं, उनका उत्तर अज्ञेय ने निबंध लिखकर या साक्षात्कार देकर दिया था. इस पुस्तक में उनमें से अधिकाँश सवालों का जवाब मिल जाएगा.
‘आलोचक अज्ञेय की उपस्थिति’ शीर्षक अपने लंबे लेख में वे कहते हैं, “अज्ञेय ने आलोचना चिंतन में रूपवाद-व्यक्तिवाद का समर्थन कभी नहीं किया, हर कीमत पर ‘सौंदर्यबोध और शिवत्व बोध’ का समर्थन किया है तथा स्वच्छंदतावादी -रसवादी चिंतन के विरोध की निरंतर अगुआई की है……. इस अगुआई का ही नतीजा है कि उन्होंने भारतीय भूमि पर खड़े होकर अपने को पश्चिम के आतंक से मुक्त रखा है और चिंतन में पश्चिमी औपनिवेशिक आधुनिकता की कठोर आलोचना की है. मानव को निरंतर माँजनेवाली, संस्कार देने वाली मानवीयता और मुक्ति प्रदान करने वाली देसी आधुनिकता का या भारतीयता का पक्ष ग्रहण किया है. … अज्ञेय में आत्म-बोध, ज्ञान-बोध और विचार-बोध की जागृत क्लासिकल संवेदना है और इसी क्लासिकल संवेदना के मूल्य-बोध ने उनके आलोचक का निर्माण एवं परिष्कार किया है.” ( hindisamay.com).
उनकी मान्यता है कि, “रस-सिद्धांत, रस-विकास, रसवाद से अज्ञेय कभी आश्वस्त नहीं रहे. अज्ञेय के साथ नई कविता के सभी रचनाकारों ने रस-चिंतन के प्रतिमान को अस्वीकार किया. हरिऔध का ‘रसकलश’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ‘रस-मीमांसा’ का चिंतन और डॉ. नगेन्द्र का ‘रस- सिद्धांत’ कभी भी अज्ञेय को रास नहीं आया. अज्ञेय के नई कविता के सिद्धांत में रस- सिद्धांत को एकदम जगह नहीं है. रसानुभूति की अनिर्वचनीयता, अखंडता, तन्मयता, ब्रह्मानंद सहोदरता, संबंधित विश्रुति विश्रांति में अज्ञेय का दूर- दूर तक विश्वास नहीं है. अज्ञेय की अनुभव-संपदा के अनुसार आज के बुद्धि-प्रधान युग में मानव की अनुभूतियाँ रागात्मक नहीं रह गई हैं – नए रागात्मक संबंधों के उदय ने उनका पूरा संसार बदल दिया है…….
जो लोग अज्ञेय को पश्चिम का नकलची, व्यक्तिस्वातंत्र्यवाद का पूँजीवादी प्रचारक, रूपवादी कलावादी कहकर बदनाम करते रहे हैं उन्हें पुनर्विचार की जरूरत है. उन्हें ‘इतिहास और स्वातंत्र्यबोध’, ‘निरंतरता और स्वतंत्रता’, ‘स्वाधीन कर्तृत्व का ऊर्जास्रोत’, ‘मेरी स्वाधीनता सबकी स्वाधीनता’, ‘सभ्यता का संकट’, ‘समग्र परिवेश की राजनीति’, ‘देशीयता और मौलिकता’, ‘स्थान भाषा : समस्या के कुछ पहलू’, ‘भाषा कला और औपनिवेशिक मानस’ तथा ‘साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया’ जैसे चिंतन-प्रधान निबंधों पर अवश्य ध्यान देना होगा.” ( hindisamay.com).
‘अज्ञेय रचनावली’ का संपादन करते हुए अपने निवेदन में वे लिखते हैं, “अज्ञेय उन गिने -चुने भारतीय रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा, भारतीय आधुनिकता के साथ साहित्य-कला-संस्कृति, भाषा की बुनियादी समस्याओं, चिंताओं, प्रश्नाकुलताओं से प्रबुद्ध पाठकों का साक्षात्कार कराया है. व्यक्तित्व की खोज, अस्मिता की तलाश, प्रयोग-प्रगति, परंपरा-आधुनिकता, बौद्धिकता, आत्म-सजगता, कवि-कर्म में जटिल संवेदना की चुनौती, रागात्मक संबंधों में बदलाव की चेतना, रूढ़ि और मौलिकता, आधुनिक संवेदन और संप्रेषण की समस्या, रचनाकार का दायित्व, नयी राहों की खोज, पश्चिम से खुला संवाद, औपनिवेशिक आधुनिकता के स्थान पर देशी आधुनिकता का आग्रह, नवीन कथ्य और भाषा- शिल्प की गहन चेतना, संस्कृति और सर्जनात्मकता आदि तमाम सरोकारों को अज्ञेय किसी न किसी स्तर पर रचना- कर्म के केन्द्र में लाते रहे हैं.” ( निवेदन, अज्ञेय रचनावली )
अज्ञेय की रचनावली का संपादन करते हुए और उनके रचना संसार का अध्ययन- विवेचन के बाद कृष्णदत्त पालीवाल की स्थापना है कि अज्ञेय की दृष्टि में साहित्य का सर्वोपरि मूल्य है स्वातंत्र्य. भारतीयता, सामाजिकता और आधुनिकता-तीनों को विलक्षण ढंग से साधने वाले अज्ञेय अपनी रचनाओं से पाठक की स्वाधीन चेतना और आत्मबोध जगाने का निरंतर प्रयास करते हैं.
पालीवाल जी के दूसरे प्रिय कवि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हैं जिनकी ग्रंथावली का उन्होंने पूरे मनोयोग से संपादन किया है. मैथिलीशरण गुप्त के विषय में उनकी मान्यता है कि, “राष्ट्रीय सांस्कृतिक नवजागरण ने हमारी संस्कृति-सभ्यता के इतिहास और साहित्य में विश्वास का जो स्वर उत्पन्न किया था, उसकी अधिकाधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति सबसे पहले मौथिलीशरण गुप्त की सर्जनात्मकता में ही हुई. हिन्दी प्रदेशों के साथ भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का मैथिलीशरण गुप्त ने पचास वर्ष तक नेतृत्व किया. गुप्त जी ने अनुभव किया कि लोक-वेदना और लोक-चिन्ता को वाणी दिए बिना कवि-कर्म का दायित्व पूरा नहीं होता. फलत: वे अपने देश और काल की समस्याओं- चुनौतियों के अनुरूप काव्य -सृजन में पूरे मनोयोग से प्रवृत्त हो गए. उन्होंने हिन्दी कविता को रीतिवाद से मुक्त करते हुए देश- प्रेम, राष्ट्रीयता, साम्राज्यवाद- विरोध की दिशा में मोड़कर दम लिया.” ( मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली, पहला खण्ड, साहित्य सदन, संस्करण 2008, निवेदन, पृष्ठ-6 )
वे आगे लिखते हैं, “गुप्त जी गाँधी युग के प्रतिनिधि कवि हैं. गाँधी युग की प्राय: समस्त मूल प्रवृत्तियाँ -अंग्रेजी शासन के अत्याचार और उनके विरुद्ध संघर्ष, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, किसान -मजदूर आन्दोलन, जेल- जीवन, स्वतंत्रता का उल्लास, विभाजन की विभीषिका, गाँधी जी की हत्या, संसद की गतिविधि, मँहगाई की समस्या, चीन का आक्रमण, राजभाषा का प्रश्न, दलित- समस्या, उपेक्षिताओं के उद्धार की समस्या, नारी अस्मिता के खौलते प्रश्न, अशिक्षा की समस्या, पाश्चात्य संपर्क के शुभ-अशुभ प्रभाव, पारिवारिक जीवन-विधान में होने वाले परिवर्तन, ग्राम्य जीवन का चित्रण आदि विद्यमान हैं. अद्भुत बात यह है कि उनमें प्रगति और परंपरा, आधुनिकता और समसामयिकता, इतिहास और संस्कृति, परिवर्तन और निरंतरता दोनो का संतुलित योग है. युगबोध की दृष्टि से अपने समकालीन साहित्यकारों में वे प्रेमचंद के समकक्ष खड़े हैं.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-7)
विजयदेव नारायण साही भी पालीवाल जी के प्रिय आलोचकों में से हैं. उन्होंने अपने बहुत से निबंधों में अनेक बार अपनी मान्याताओं को पुष्ट करने के लिए साही को उद्धृत किया है. उनकी मान्यता है कि “विजयदेव नारायण साही की स्मृति नई पीढ़ी के दिमाग में बसी इतिहास, समाज, संस्कृति और परंपरा के चिंतन-सूत्रों की वह कभी न खत्म होने वाली स्मृति है, जो हमारी प्रगतिशीलता और भारतीयता के दोनो किनारों को गर्म रखती है.” (उद्धृत, ‘हिन्दी का आलोचना पर्व’ की अवजिनेश अवस्थी द्वारा की गई समीक्षा से, aajtak.in/india-today-hindi/,11 फरवरी 2012) वे साही के प्रसिद्ध निबंध ‘लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ के संबंध में लिखते हैं, “अकेले इसी लेख ने साही को हिन्दी समीक्षा के केन्द्र में ला दिया है. इस लेख के वाक्यों को विवश होकर मार्क्सवादी आलोचकों ने अपना हनुमान चालीसा बनाया तथा जोर-जोर से गाकर अपना भय दूर किया.” (उपर्युक्त)
‘भक्तिकाव्य से साक्षात्कार’ नामक अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक में उन्होंने भक्ति आन्दोलन के इतिहास, उसका महत्व और उसकी विशेषताओं के साथ ही कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, मीरा, रसखान, रहीम आदि के काव्य की बहुत ही सूक्ष्म और विस्तृत समीक्षा की है. भक्ति-साहित्य को देखने की उनकी अपनी दृष्टि है जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक की भूमिका में विस्तार से किया है. वे लिखते हैं, “आधुनिकता-विशेषकर यूरोपीय आधुनिकता भविष्य पूजन में जीती है और स्मृति-परंपरा अतीत को पोंछकर मिटा देना चाहती है. वहीँ प्रोटेस्टेंट धर्म और यूरोपीयता को आधुनिकता का पर्याय बताया गया. इसीलिए अरविन्द, कुमारस्वामी, विवेकानंद, गाँधी पश्चिम की आधुनिकता से भयभीत रहे हैं. फिर हमारा भक्ति-काव्य और भक्ति-आन्दोलन लोक जागरण की धुरी रहा है. उसे आज मध्ययुगीनता कहकर कैसे ठुकरा दें. जबकि हमारा मध्ययुगीन बोध पश्चिम का मध्ययुगीन बोध है भी नहीं. यहाँ लोक प्रबल है -शास्त्र बल कमजोर. इसलिए भक्ति-काव्य को ब्राह्मणवादी -पुरोहितवादी काव्य कहना गले नहीं उतरता. मेरे मन में यह गूँज बराबर रही है कि पश्चिमी प्रतिमानों से चाहे वे मार्क्सवादी या मनोविश्लेषणवादी प्रतिमान हों, भक्ति-काव्य का मूल्याँकन नहीं हो सकता, नहीं करना चाहिए. ऐसी प्रगतिशीलता किस काम की जो अपने ही हाथों अपनी नाक कटवाकर नकटा कहलवाने पर आमादा हो. इसलिए मैं दामोदरन, सतीशचंद्र और सुवीरा जायसवाल जैसे इतिहासकारों के भक्ति-पाठ से सहमत नहीं हो सका. जरूरत भक्ति, भक्ति-काव्य, और भक्ति-शास्त्र के दमित अर्थ को टेक्स्ट के भीतर से निकालने की थी, जिस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया. मैंने मिशेल फूको के विमर्श सिद्धांत को ओट में रखकर भक्ति-काव्य से साक्षात्कार किया है- अपनी संपूर्ण सीमाओं के साथ और गफलत से दूर रहकर.” ( भक्ति काव्य से साक्षात्कार, भारतीय ज्ञानपीठ, पहला संस्करण-2007, प्रस्तावना, पृष्ठ-9-10)
कृष्णदत्त पालीवाल ने अज्ञेय, मैथिलीशरण गुप्त और विजयनारायण साही के अलावा निर्मल वर्मा, शमशेर, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री जैसे प्रगतिशीलों के साहित्य पर भी पूरी निष्ठा से लिखा है. उनकी स्मृति बहुत उर्वर थी और बहुत से कवियों और लेखकों के पाठ उन्हें कंठस्थ रहते थे.
पालीवाल जी की एक अन्य महत्वपूर्ण खूबी यह है कि उनकी समीक्षा में उनकी भाषा, विषय के अनुकूल ढल जाती है. उनके एक प्रिय समीक्षक शशिभूषण द्विव्दी के शब्दों में, “उनकी भाषा हिन्दी आलोचना के एक तबके की धूर्तता, उसके काईंयांपन, उसकी उजाड़ो -बसाओं की राजनीति और उसकी बेईमानी के प्रतिरोध में खड़ी वह ताल ठोकती भाषा है जिसमें मर्दानगी का बाँकपन और समय -संदर्भों की शब्दावली की सहज- सामाजिकता का ऐसा सम्मिश्रण है, जो उन्हें ईर्ष्या या आलोचना का पात्र बनाता रहा है. फिर वे नामी-गिरामी नाम-‘वरों’ से लोहा लेते रहे हैं और उनकी चीर-फाड़ करते रहे हैं.” ( दस्तावेज, अंक 146, पृष्ठ -26)
इस तरह प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल स्वाधीन विवेक के और व्यापक फलक वाले आलोचक हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)