हिंदी के आलोचक – 23
हिन्दी कथा समीक्षा में गोपाल राय ( जन्म-13.7.1932) का महत्वपूर्ण स्थान है. वे शोधकर्ता और समीक्षक दोनो हैं. ‘हिन्दी उपन्यास का इतिहास’, ‘हिन्दी कहानी का इतिहास’, ‘उपन्यास का शिल्प’, ‘अज्ञेय और उनके उपन्यास’ ‘उपन्यास की संरचना’ आदि उनकी महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तकें हैं. ‘हिन्दी उपन्यास कोश’( दो खण्ड) उनके अध्यवसाय और सृजनशीलता का अनुपम उदाहरण है.
यद्यपि अपनी पुस्तक ‘हिन्दी उपन्यास का इतिहास’ में उन्होंने हिन्दी की अधिकांश औपन्यासिक कृतियों पर अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं किन्तु ‘गोदान’, ‘रंगभूमि’, ‘मैला आंचल’, ‘शेखर : एक जीवनी’, ‘दिव्या’ आदि पर उन्होंने विस्तार से लिखा है. गोपाल राय शोधाभिमुख आलोचक हैं. उनकी आलोचनाएं सूचनापरक हैं. औपन्यासिक शिल्प को गोपाल राय खास महत्व देते हैं, इसीलिए सार्थक शिल्प प्रयोग की दृष्टि से वे हजारीप्रसाद द्विवेदी, रेणु, नागार्जुन आदि को अधिक महत्व देते हैं. उन्होंने उपन्यास और कहानी दोनो के ऐतिहासिक विश्लेषण में रचनाकाल क्रम को तो ध्यान में रखा ही है, कृतियों का प्रभावशाली मूल्यांकन भी किया है. उनका अधिकाँश लेखन साहित्य की उच्च कक्षाओं के शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए भी अत्यंत उपयोगी है. इसीलिए उनकी अधिकाँश कृतियों के पेपरबैक संस्करण और उनके पुनर्मुद्रण होते रहते हैं.
डॉ गोपाल राय किसी एक विचारधारा के प्रति आग्रही समीक्षक नहीं हैं. वे एक चिन्तनशील, विवेकशील निज-दृष्टि सम्पन्न समीक्षक हैं. उन्होंने अपनी विचारधारा, नैतिकता और स्वाभिमान को लेकर कभी समझौता नहीं किया. किसी से वे डरने वाले भी नहीं थे. उन्होंने लेखकों की कमजोरियों को भी पूरी ईमानदारी से रेखांकित किया है और उनकी विशेषताओं को भी खुले हृदय से और पूरे उत्साह के साथ उकेरा है. उदाहरणार्थ भारतीय उपन्यास के विकास के बारे में समीक्षकों की मान्यताओं का पूरी निष्ठा और प्रमाण के साथ खण्डित करते हुए उन्होंने लिखा है, “ यूरोपीय उपन्यास के विकास में पूंजीवादी अर्थतंत्र और मध्यवर्ग का योगदान बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है और अक्सर इस अवधारणा को हिन्दी उपन्यास के इतिहास पर भी चस्पाँ कर दिया जाता है. पर हिन्दी क्षेत्र की परिस्थितियों को देखते हुए हिन्दी उपन्यास के संबंध में इस सामान्यीकरण को संगत नहीं माना जा सकता. 1870-90 की अवधि में हिन्दी क्षेत्र में न तो पूंजीवादी अर्थतंत्र का कोई वर्चस्व था, न ही कोई मजबूत मध्यवर्ग पैदा हुआ था. इस समय भारत, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल में तड़फड़ा रहा था और एक विदेशी पूंजीवादी उसका चौतरफा शोषण कर रहा था. इस विदेशी पूंजावाद की भाषा अँगरेजी थी. इस व्यवस्था के पोषक और सहायक के रूप में अंगरेजी पढ़ा लिखा मध्य वर्ग वजूद में आ रहा था, पर वह अधिकतर अहिन्दी भाषी, विशेष रूप से बँगला भाषी था. दरअसल हिन्दी उपन्यास हिन्दी भाषी जनता की राष्ट्रीय आकाँक्षाओं की अभिव्यक्ति था.” ( हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पहला पाठ्यपुस्तक संस्करण 2005, पृष्ठ-64)
गोपाल राय कभी न हारने वाले अनवरत सृजनरत अप्रतिम योद्धा थे. अपनी विकलांगता को धता बताने वाले ऐसे अप्रतिहत योद्धा से न जाने कितने लोगों ने ऊर्जा अर्जित की होगी. उन्ही में से मैं भी एक हूँ. मैं जब भी उनसे मिलता, अपने भीतर नई ऊर्जा अनुभव करता. वे एक योगी थे. साहित्य साधना ही उनका योग था. वैसे वे नियमित रूप से प्राणायाम और योग साधना भी करते थे. एक खुद्दार अध्यापक की सारी खूबी उनमें विद्यमान थी. खुशामदियों से वे घृणा करते थे. इसीलिए उनका लेखन हमारे लिए इतना विश्वसनीय लेखन बन सका है.
पुरानी पीढ़ी के हिन्दी साहित्यकारों में बहुत कम होंगे जो आधुनिक तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल करते हों. डॉ गोपाल राय लिखने के लिए कम्प्यूटर का ही इस्तेमाल करते थे. कलम उन्होंने बहुत पहले ही छोड़ दिया था. इस तरह वे विचारों में ही नहीं, आचरण, अध्ययन और लेखन में भी पूरी तरह आधुनिक थे.
हिन्दी में ऐसी साहित्यिक पत्रिका दूसरी कौन होगी जो किसी अकेले व्यक्ति के निजी प्रयास से पचास वर्ष से भी ज्यादा समय तक लगातार निकली हो- बिना किसी बैसाखी के सहारे? और जिसने अपने स्तर और उद्देश्य को लेकर किसी तरह का समझौता न किया हो? डॉ. गोपाल राय द्वारा संपादित ‘समीक्षा’ पत्रिका, पुस्तक समीक्षा के लिए समर्पित अपने चरित्र और उद्देश्य में अकेली पत्रिका है.
प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र के अनुसार, “गोपाल जी साहित्य के योद्धा थे. जो ठान लेते थे, उसे पूरा करके ही रहते थे. अपने बलबूते पर वे वर्षों तक ‘समीक्षा’ पत्रिका निकालते रहे. स्पष्ट है कि मार्ग में अनेक व्यवधान आए होंगे किन्तु गोपाल जी के दृढ़ निश्चयी मन ने हार नहीं मानी बल्कि व्यवधानों को पराजित करते रहे. ‘समीक्षा’ शुद्ध समीक्षा पत्रिका है. खंड खंड रूप में प्राय: सभी पत्र –पत्रिकाएं पुस्तक समीक्षा छापती हैं किन्तु ‘समीक्षा’ पूर्णत: पुस्तक समीक्षा की पत्रिका है. गोपाल जी किसी दल से आबद्ध नहीं थे. वे स्वतंत्र चेता थे. अत; अन्य अनेक संपादकों के बरक्स ‘समीक्षा’ के लिए आई हुई सभी पुस्तकों की समीक्षा वे देते थे. यानी कि ‘समीक्षा’ पत्रिका समीक्षा का खुला मंच रही है. हाँ पुस्तकों के महत्व के अनुसार उन्हें ज्यादा या थोड़ा महत्व दिया जाता रहा है. …. वे अपने संपादकीय लेखों में प्रमाण के साथ विस्तार से असत्य का प्रतिरोध करते थे और सत्य को उजागर करते थे. वे बहुत निर्भीक और सत्यनिष्ठ आलोचक थे. वे अपने स्वाध्याय और चिन्तन –मनन से अपनी राह खुद बनाते थे. पुस्तकों का मूल्यांकन अपने विवेक से करते थे. जिन पुस्तकों की जय बोली जा रही हो, उनकी सीमाओं को भी निर्भीक भाव से दिखाते थे और अपने निष्कर्ष निकालते थे”. ( सामयिक सरस्वती, अक्टूबर-दिसंबर, 2015, पृष्ठ- 7)
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)