कविता
उस दिन
ना जाने शहर को
अचानक क्या हो गया
दिन का उजाला तो हुआ
ना सड़कों पर अखबार वाले लड़के
ना ही पार्कों की तरफ जाते लोग
गली के मोड़ पर छोटे बच्चे का बैग पकड़े
मां बस की इंतजार में नहीं
ना दुकानों के शट्टर खुलने की आवाजें
ना धूप बती की सोन्धी-सोन्धी खुशबू
ये किसकी नजर लग गई मेरे शहर को
हर दरवाजा बन्द है
दहशत में खिड़कियों से झांकते लोग
चौक मेें परिन्दों को दाना डालने कोई नहीं आया
ना किसी ने घर के आगे खड़ी गाय को रोटी दी
क्या जवाब दूंजब बेटा पूछता है
पापा मेरी बस व स्कूल को किसने जला दिया?
रक्षा करने वाले रक्षक
सड़क पर जुतियां घिसते रहे
सियासत वोट गिनती रही
राज को लकवा हो गया
आग व धूएं से इमारतें ही नहीं
हमारा मुंह भी काला हुआ है
आओ शहर को लगी बुरी नजर को उतारें
शहर फिर पहले की तरह मुस्कराने लगे।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( मई-जून 2016), पेज -29