हरियाणा का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य- टी. आर. कुण्डू

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

हरियाणा के प्रसिद्ध चिंतक व बुद्धिजीवी डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल जी की स्मृति में 2006 में कुरुक्षेत्र में स्थापित किए गए डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान के तत्ववाधान में हरियाणा का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य विषय पर वार्षिक डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल ऑनलाइन स्मृति व्याख्यान आयोजित किया गया। ग्रेवाल जी के साथियों में से एक प्रसिद्ध सामाजिक चिंतक, अर्थशास्त्री एवं शिक्षाविद् डॉ. टी.आर. कुंडू ने मुख्य व्याख्यान रखते हुए हरियाणा के इतिहास, भूगोल, समाज के विभिन्न वर्गों, विकास के अन्तर्विरोधों के संदर्भ में हरियाणा के समाज व संस्कृति के विविध आयामों से परिचित करवाया। व्याख्यान का संचालन संस्थान के सचिव डॉ. रविन्द्र गासो ने किया और अध्यक्षता संस्थान के अध्यक्ष दयाल सिंह कॉलेज करनाल में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए विनोद भूषण अबरोल ने की।

खालीपन को भरकर प्रेरित करती है संस्कृति: प्रो. टी.आर. कुंडू

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग से सेवानिवृत्त जाने-माने चिंतक प्रोफेसर टी.आर. कुंडू ने कहा कि हरियाणा दो-तीन दशकों में आर्थिक, तकनीकी व विविध क्षेत्रों में बहुत तेजी से बदला है। लेकिन उसकी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान बहुत धुुंधली है। समाज मूल रूप से एक नैतिक इकाई है, जो सामूहिकता में बसती है। उसकी सामूहिक चेतना होती है। उसका एक सामूहिक मिजाज होता है। यह एक सुपर ओरगैनिक कृति है। हर समाज का एक विशिष्ट ढ़ांचा होता है। उसमें अनेक समूह होते हैं, जिनके अपने-अपने हित होते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए अपना-अपना सामर्थ्य होता है, पावर होती है। पावर के कईं स्रोत हैं। धन, सामाजिक-राजनैतिक हैसियत, ज्ञान एवं कौशल, परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करने के कौशल आदि शक्ति के स्रोत हैं। जिसके पास सबसे अधिक शक्ति होती है, वह रूलिंग इलीट कहलाता है। बाकी जनता कहलाती है। हर समाज का आधार उसकी संस्कृति होती है। संस्कृति के बारे में टैगोर ने कहा था- ‘संस्कृति खूबसूरत व्यवहार है।’ खूबसूरती हर समाज की अलग होती है। हर समाज में खूबसूरती की अवधारणा भी अलग हो सकती है। खूबसूरत व्यवहार के बारे में कोई भी आचरण, जो आपके आत्मसम्मान में वृद्धि करे, वह खूबसूरत नैतिकता है। लेकिन वह आचरण जो दूसरे के आत्मसम्मान में वृद्धि करे, वह खूबसूरत मैनर है।


हर संस्कृति के कुछ आधारभूत मूल्य होते हैं, जिन्हें हम अहमियत देते हैं। जो हमारे खालीपन को भरते हैं, जो हमें प्रेरित करते हैं। ऐसे मूल्य जो हमारे आदर्श होते हैं, उन्हें हम अपने संविधान में भी शामिल करते हैं। जैसे बंधुता, मानवता, स्वतंत्रता, समानता, वैज्ञानिक सोच आदि हमारे संवैधानिक मूल्य हैं। कुछ व्यवहार के नियम होते हैं और कुछ मानक होते हैं। जैसे- अभिव्यक्ति की आजादी हमारा मूल्य है और इस आजादी की हमें रक्षा करनी चाहिए, यह मानक है। जिन मानकों को हम अत्यधिक महत्व देते हैं, उन्हें हम मूल्य व्यवस्था का हिस्सा बना लेते हैं। बाकी हमारी परंपराएं, रीति-रिवाज हैं, जिन्हें समाज की लोक लाज के लिए अपनाते हैं।  


टीएस इलियट के अनुसार- संस्कृति और कुछ नहीं है, मूल्य हैं। संस्कृति हमारे जीवन को अर्थ देती है। मोटे तौर पर संस्कृति को दो भागों में बांट सकते हैं-एक भौतिक संस्कृति, जो हमारे खान-पान में झलकती है। दूसरी, बौद्धिक संस्कृति, जिसे आध्यात्मिक संस्कृति भी कहा जा सकता है। हमारा काव्य, साहित्य, विचार-विमर्श बौद्धिक संस्कृति का हिस्सा हैं। सामान्य रूप से एक पश्चिम की संस्कृति है, जो भौतिकवाद से  प्रेरित है। एक पूर्वी संस्कृति है, जोकि अध्यात्मिकता से अधिक प्रेरित है। एक मिली-जुली संस्कृति है, जिसमें भौतिकता भी है और आध्यात्मिकता दोनों है और दोनों के बीच संघर्ष होता रहता है।

भौगोलिक स्थिति संस्कृति के निर्माण में योगदान करती है। संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है, जिसे हम सीखते रहते हैं। संस्कृति एक सुंदर ओरगेनिक संस्कृति है। जब हम ऊपर उठ कर जीने की कोशिश करते हैं, वही संस्कृति है। यह बात सत्य है, भौगोलिक स्थिति हमारी भौतिक संस्कृति को प्रभावित करती है। भौतिक संस्कृति की बात करें तो हमारे यहां पर कितना कुछ बदला है। माक्र्स के अनुसार आर्थिक स्थिति भी संस्कृति को प्रभावित करती है। आज हम वैश्विक युग में रह रहे हैं। एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है। रूलिंग इलीट भी बदलता रहता है। एक विद्वान ने कहा है- इतिहास रूलिंग इलीट का कब्रिस्तान है। सत्ताधारी संभ्रांत वर्ग कभी अपनी ताकत के बल पर आगे आ जाता है और कभी अपनी छल-कपट की रणनीति से भी सत्ता में आता है। रूलिंग इलीट के खिलाफ कईं बार सामाजिक असंतोष व आक्रोश बढ़ जाता है तो क्रांतियां होती हैं।

प्रोफेसर टी. आर. कुण्डू

सांस्कृतिक मंच बताता है कि क्या होना चाहिए। वहीं, सामाजिक मंच ताकत का मंच भी हो सकता है, जहां पर तरह-तरह की टकराहटें हो सकती हैं। रूलिंग इलीट मूल्यों को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश करता है ताकि उन्हें बिना विरोध के स्वीकार किया जा सकता है। इसे कैसे आंकें कि जो बदलाव हुआ है, वह कैसे हुआ है। किसके हक में है। अच्छे के हक में हुआ या बुरे के लिये। संवैधानिक मूल्य इसमें भूमिका निभाते हैं। क्या हम समानता, मानवता, वैज्ञानिक सोच आदि के आधार प्रगति कर पाए, यह हमारा महत्वपूर्ण मापदंड है। दूसरा मापदंड है कि हम कितने मानवीय बने हैं। क्या हमारी संवेदनाएं अपने तक ही सीमित रहे या उनका दायरा बढ़ा। समाज में क्या अपराध बढ़ा है या घटा है। अपराध बीमार समाज का प्रतीक है। हमने उसे कैसे डील किया?

सामाजिक समूह में इसकी गतिशीलता क्या है? क्या कोई एक समूह से दूसरे समूह में जा सकता है। उसकी समूह सदस्यता क्या है? हमारे नागरिकों की समूहों में हिस्सेदारी जितनी अधिक होगी, उससे सांस्कृतिक विकास उतना अधिक होगा। हम जब एक दूसरे से मिलते हैं तो एक दूसरे से अपना आचरण सांझा करते हैं। अपनी संस्कृति व व्यक्तित्व भी सांझा करते हैं। हम एक दूसरे का हिस्सा बन जाते हैं। यह संवाद केवल आमने-सामने ही नहीं होता, आज के दौर में यह ऑनलाइन भी हो सकता है। साहित्य के द्वारा भी हम संवाद करते हैं। एक साहित्यकार अपने साहित्य के जरिये अपनी संस्कृति सांझा करता है। विचार-विमर्श और समूहों में हिस्सेदारी हमारी संस्कृति का अंग है।

शहरीकरण व उपभोक्तवाद की जकड़ में हरियाणा

संस्कृति सबसे धीमी गति से परिवर्तित होती है। हरियाणा की संस्कृति को इसकी राज्य के रूप में स्थापना के वर्ष 1966 से लेते हैं। संस्कृति को समझने के तीन तरीके हैं- मूल रूप से संस्कृति साहित्य का विषय है। समाजशास्त्री संस्कृति को अलग तरह से समझता है। समाजशास्त्री लिप्त नहीं होता। वह अपने इमोशन को नियंत्रित करके देखता है। साहित्यकार की संवेदनाएं बहुत गहरी होती हैं। जो संवेदनाएं हम पकड़ नहीं  पाते, उसे साहित्यकार पकड़ता है। वह अपने साहित्य के द्वारा संवेदनाओं का विस्तार करता है। साहित्य में साहित्यकार की कल्पनाएं और दर्शन भी होता है। तीसरा, जिस देश व संस्कृति का हम अध्ययन कर रहे हैं, उसके बारे में लोक क्या कह रहा है। लोकगीत क्या कह रहे हैं।

दुर्भाग्य से हरियाणा के बारे में कम लिखा गया है, लेकिन इसके बावजूद लिखा गया है। यदि हम हरियाणा के बारे में लिखे गए साहित्य का अध्ययन करें तो हमें बहुत-सी चीजें समझ आएंगी। समाजशास्त्री के नाते मैं कैसे हरियाणा को देखता हूँ। जब हरियाणा बना तब 82 प्रतिशत लोग गांवों में रहते थे और 18 प्रतिशत शहरों में रहते थे। जो अपने हाथों से काम नहीं करते थे, वे शहरों में रहते थे और जो हाथ से काम करते थे वे गांवों में रहते थे। हाथ से काम नहीं करने वाले जैंटलमैन कहलाते थे। यह माना जाता है कि जैंटलमेन केवल पढ़ते-लिखते हैं। वे हाथ से बहुत कम काम करते हैं। जब करते हैं तो कईं बार विनाश करते हैं। हमारे हरियाणा में जातिवादी व्यवस्था बहुत मजबूत है।

पुराने दौर की बात करें तो हरियाणा में सबर का फल मीठा माना जाता था। जिन आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते थे, उस पर अंकुश लगाते थे। चादर में ही पैर रखने की बात की जाती थी। संगीत- घड़वे, तुंबे, बीन, बांसुरी आदि भी कम संसाधनों में अधिक काम लेने के प्रतीक हैं। हरियाणा में किसान, बैल, गड्डे और हल होते थे। किसान की खेती बैलों के बिना नहीं होती थी। बैल गाय से आते थे। गाय पालते थे तो दूध-दही मिलता था, यही हमारे खाने का मूल स्रोत था। आर्य समाज से प्रभावित थी हरियाणा की संस्कृति। आडंबरों से मुक्त था हरियाणा का समाज। आत्मा, परमात्मा, करणी-भरणी आदि केन्द्र में थे।

हरियाणा कैसे सोचता था। कहावतों के नजरिये से देखें तो-‘काम प्यारा है चाम प्यारा नहीं है।’ काम सर्वोत्तम था। श्रम को महत्व मिलता था। ‘सबर का धन सबसे बड़ा धन’- अभाव की संस्कृति से डील करने का सुंदर उदाहरण है यह कहावत। हमारी आकांक्षाओं व बेसब्री पर हम अंकुश लगाते थे और संतोष को सबसे बड़ा धन बताते थे। ‘करके खा लिया, ले कर दे दिया’- मुफ्तखोरे नहीं है। मांगना धिक्कार है। मुफ्त का घी पीने वाले नहीं हैं हम। अगर कोई साहूकार का कर्जा नहीं चुकाता है तो साहूकार उसके अंदर से पीपल बनकर उगेगा, यह माना जाता था। ‘पहले मारा सो जीतै’- हरियाणा का आदमी दब कर नहीं खेलता है। ‘दाबा करै खराबा’- परिणाम नहीं देखते, दबाव नहीं मानते। हरियाणा का बंदा साहसी, वीर होता है। साक्षी मलिक ने कुश्ती के आखिरी पांच सैकेंड में बाजी पलट दी। हरियाणा की संस्कृति को समझने के लिए हमारे मुहावरे, लोकगीत को खंगालने की जरूरत है।

हरियाणा का जन्म हरित क्रांति में हुआ। 1970 के दशक में हरियाणा में ढ़ांचागत विकास हुआ। गांव-गांव में बिजली पहुंचाई। 80 का दशक आते-आते हमारी रसोई व ड्राईंग रूम में परिवर्तन होने लगता है। 1990 के बाद स्थिति बिल्कुल बदल जाती है। अर्थव्यवस्था को खोल देते हैं। आयात-निर्यात होने लगता है। सरकार अपनी भूमिका कम करने लगती है। निजी क्षेत्र की भूमिका बढऩे लगती है। पूंजीपति हितैषी सोच को बढ़ावा देती है सरकार। आगे पाठ्यक्रम में क्या चीज शामिल की जाएगी, यह उपयोगिता पर निर्भर करेगा। आज का विकास जीडीपी ग्रोथ केन्द्रित हो गया है। जीडीपी ग्रोथ का स्वभाव है कि असमानताएं बढ़ेंगी तो यह बढ़ेगी। इससे पहले विकास का मतलब होता था असमानताएं कम करना। हमारे नीति-नियंताओं ने उपभोक्ता संस्कृति के लिए मैदान तैयार किया। हरियाणा उपभोक्ता संस्कृति के लिए मुख्य भूमि बनती है। यहां की मिडल व अपर क्लास का तेजी से विकास होता है। संस्कृति के नाम पर मैदान बिल्कुल खाली है। पुरानी संस्कृति आउटडेटिड हो गई है। जब उपभोक्ता संस्कृति का विकास किया जा रहा था, तब कुछ नए मूल्य इजाद किए जाने चाहिएं थे। शहरीकरण हुआ। नई क्लास का उभार हुआ। इस तरह से हरियाणा उपभोक्तावाद का शिकार होता है।

हरियाणा के वर्तमान परिदृश्य डॉ. रणबीर सिंह दहिया ने कहा हरियाणा तीन ढ़ाल का- एक पीछे रह गया हरियाणा, एक आगे बढ़ता हरियाणा और एक मस्त हरियाणा। अंदर से खालीपन को भरने के लिए दिखावा किया जा रहा है। अपराधबोध से ग्रस्त हैं। मंदिर में अपराधी की तरह जाते हैं। अपराध भावना से बचने के लिए जगराते करवाते हैं। दान करते हैं। मूलरूप से सरकार के साथ सांठगांठ करते हैं। ठेके लेते हैं। पीपीपी के नाम पर सरकार अपने लोगों को ठेके देती है। सरकार के अपराध में भागीदार है। अवैध कॉलोनियां, अवैध खनन, कानून को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता है। तीन कृषि कानून भी एक वर्ग ने सरकार से अपने हितों के लिए बनवा लिए हैं। बेलगाम हरियाणा समाज से कटा हुआ है और सरकार से मिला हुआ है

आगे बढ़ता हरियाणा शहरी क्षेत्र में है। हरियाणा में शहरीकरण बहुत तेज गति से हुआ है। पूरे देश में यह मिसाल बना है शहरीकरण की। पंजाबी समुदाय के लोग देहात से आए। यह महत्वाकांक्षी लोग हैं। इसमें छोटे व बड़े किसान हैं। कोई आढ़तिया बन गया है, किसी का पोल्ट्री फार्म है।
हालांकि पहले की तुलना में शहरी हरियाणा ज्यादा विवेकशील है। पंजाबियों के पास सिखाने के लिए बहुत कुछ है। ब्रिटिशों के बाद पंजाबी बड़े कॉलोनाइजर हैं। इनमें गजब का लचीलापन है।

मस्त हरियाणा को मैं लाचार हरियाणा कहता हूँ। 1991 में आर्थिक सुधार में खेती शामिल नहीं थी। न्यूनतम समर्थन मूल्य को मानने के लिए कोई तैयार नहीं है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के लिए भी कोई तैयार नहीं है। कृषि क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार किया गया। ग्रामीण क्षेत्र के मंझोले व बड़े किसान शहरों में आ गए। छोटे किसान गांव में रह गए। कृषक समाज एक तनाव की स्थिति से गुजर रहा है। इसलिए मैं इसे लाचार हरियाणा कहता हूँ।

इसके साथ ही एक उड़ता हरियाणा भी है। चिट्टा व मोबाइल का नशा युवाओं पर तारी है। आज मां-बाप के पास कोई समय नहीं है। पहले जैसे बच्चों को सुलाने के लिए अफीम देते थे, आज मोबाइल बच्चों के हाथ में दे दिए गए हैं। मोबाइल व ऑनलाइन माध्यमों के जरिये संवाद स्थाई संवाद नहीं है। युवा वर्ग अपनी भाषा भी खो चुका है। जिसके पास कुछ नहीं है, वह नशा कर लेता है।

संवैधानिक मूल्य पीछे धकेल दिए गए हैं। उनके बारे में कोई बात नहीं करता। 1990 से पूर्व समता पर जोर था। आज समानता जैसे संवैधानिक मूल्य हाशिये पर ढक़ेल दिए गए हैं। स्वतंत्रता बाद के हमारे नेताओं ने जाति को कम करके आंका। नेहरू मानते थे कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास होगा। उद्योग-धंधे बढ़ेंगे। परिवहन के साधन बढ़ेंगे। आपस में मिलकर कार्य करने की संस्कृति के जरिये जाति घिस-घिस कर खत्म हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जाति बलवान होती चली गई। राजनीति का एक हथियार बन गई। राजनीति का जातिकरण हुआ। जाति का राजनीतिकरण हुआ। जाति और साम्प्रदायिकता ने मिलकर सोच को बुरे तरह से प्रभावित किया है। आज जाति बड़ा फैक्टर बन कर उभरी है।

हरियाणा में 36 बिरादरी मानी जाती हैं। जाति ने मानवता व लोकतंत्र को पीछे खिसका दिया है। लोकतंत्र का सार इस बात पर निर्भर करती है कि अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे करें और उन पर नियंत्रण कैसे करें। ना तो हमारा प्रतिनिधियों को चुनने में हाथ रह गया है और ना ही उसे नियंत्रित करने में। जाति-सम्प्रदाय बड़े कारक बन गए हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर का यह विचार था कि लोकतंत्र से समानता आ जाएगी। आरक्षण भी वंचित समुदायों को सशक्त बनेगा, जिससे बंधुत्व आ जाएगा। संवैधानिक मूल्यों की सारी जिम्मेदारी राजनीति पर छोड़ दी गई। और कोई प्रयास ही नहीं किया गया। जाति दिवार बन कर खड़ी हो गई। जाति से टकराने में हमारा लोकतंत्र फेल हुआ है। ऐसे ही सांस्कृतिक स्वतंत्रता के मामले में भी हम पीछे रह गए। जाति बहुत से लोगों के स्टेटस व आत्मविश्वास को कम कर देता है।

महिलाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है। एक समूह से दूसरे समूह में जाने के मामले में भी हम पीछे रहे हैं। वैज्ञानिक सोच के साथ भी यही हुआ है। यह सोच भी गलत साबित हुई कि शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ विवेकशील सोच व तार्किकता बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मानवीय मूल्य और संवेदनाएं क्या हमारी अपनों तक ही सीमित रह गई है। क्या दूसरों की वेदनाओं की गूंज भी हममें है। हरियाणा में अपराध बहुत बढ़ा है। महिलाओं के लिए यह सबसे असुरक्षित स्थान साबित हुआ है। दुलीना, मिर्चपुर कांंड आदि जैसी घटनाएं दलितों पर अत्याचार की क्रूरतम घटनाएं हैं। हम अपने समाज को मानवीय चेहरा नहीं दे पाए। हमारा महानिर्वाण जाति के विनाश में है। ऐसे में जरूरी है कि सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव व नवजागरण के लिए मिलजुल कर प्रयास किए जाएं। स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों को साकार करने के लिए विचार-विमर्श की प्रक्रिया को तेज किया जाए।

सवाल-जवाब व टिप्पणियों का सत्र-

लोक इतिहास के जानकार सुरेन्द्रपाल सिंह ने कहा कि प्रबुद्ध वक्ता ने 1966 से हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर विचार रखे हैं। जबकि इसे प्राचीन काल से शुरू किया जाना चाहिए। ताकि हरियाणा के प्राचीन इतिहास के संदर्भ में हरियाणा के समाज व संस्कृति को समझा जा सके।
चंडीगढ़ में रह रहे प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार सत्यपाल सहगल ने हरियाणा के अलग-अलग भौगोलिक खंडों, दिल्ली से सटे गुडग़ांव, फरीदाबाद और नजदीकी क्षेत्र, पंजाब से जुड़े अंबाला से छछरौली तक का क्षेत्र और अन्य हिस्सों के संदर्भ में हरियाणा को समझने की जरूरत को रेखांकित किया।
कॉलेज प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए हरियाणा के जाने-माने साहित्यकार डॉ. ओमप्रकाश करुणेश ने हरियाणा के वंचित वर्गों व घुमंतु समुदायों की जीवन-स्थितियों को हरियाणा के समाज व संस्कृति में समावेशित करने की जरूरत जताई।

हरियाणा के साक्षरता आंदोलन के अग्रणी नेता एवं कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर प्रमोद गौरी ने कहा कि हरियाणा की मुख्यधारा का मानस ज्यादा चर्चा में आया है। समाज की संरचना में छोटी-छोटी धाराओं का अहम योगदान है। हरियाणा में 20 प्रतिशत से ज्यादा दलित आबादी है, जोकि श्रमिक संस्कृति का निर्माण करती है। हरियाणा में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जो संघर्ष की संस्कृति उभरी। आया राम गया राम की संस्कृति सभी को अध्ययन का विषय बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज के हरियाणा को व्यापकता में देखने की जरूरत है। आज शहरीकरण का मैट्रापोलिटन चरित्र उभर कर सामने आया है। प्रवासी मजदूरों की संख्या बहुत अधिक है। इससे क्या सामाजिक अंतरविरोध पैदा होंगे? हरियाणा में प्राचीन काल के अवशेष तो आज भी दिखाई देते हैं। सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करने वाली संस्थाओं का अभाव है।

अर्थशास्त्र के अध्यापक डॉ. सुनील कुमार ने कहा कि हरियाणवी संस्कृति की बात करते हैं तो गलोरिफिकेशन की बात करते हैं। प्राचीन से बेहतर है आधुनिक, लेकिन बातचीत में प्राचीन बेहतर दिखाया जाता है। डॉ. आबिद अली व गजानन पांडेय ने कहा कि व्याख्यान के जरिये उन्हें हरियाणा को बेहतर ढ़ंग से समझने का मौका मिला है।

अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए वी.बी. अबरोल ने कहा कि आज से 30 साल पहले सर्च राज्य संसाधन केन्द्र की त्रैमासिक पत्रिका हरकारा में डॉ. ग्रेवाल ने हरियाणा के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश पर अपना सारगर्भित लेख लिखा था। आज कुंडू साहब ने आज के संदर्भ में इस पर चर्चा की है। उन्होंने कहा कि हरियाणा में आज कहीं ज्यादा अंतर्विरोध व विसंगतियां हैं। विकास के फल आज आम आदमी तक पहुंचने की बजाय कुछ राजनेताओं और नौकरशाहों तक ही पहुंचे हैं। उच्च वर्गीय वर्चस्व ने भ्रष्टाचार को कईं गुणा बढ़ा दिया है। इस ठोस वास्तविकता के संदर्भ में लगातार बदल रहे परिवेश पर और अधिक चर्चाओं की जरूरत है। डॉ. रविन्द्र गासो व डॉ. अबरोल ने व्याख्यान में शामिल हुए सभी प्रबुद्ध नागरिकों का आभार जताते हुए कहा कि हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श पर लगातार चर्चाएं आयोजित की जाएंगी।

अरुण कैहरबा, हिन्दी प्राध्यापक, संस्कृतिकर्मी एवं स्तंभकार

संपर्क – 9466220145 

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