कुछ बदहवास और कुछ संभलते-संभालते
फरवरी 2016 में हरियाणा के कई शहरों ने विशेषकर रोहतक में वो मंजर देखा, जिसकी शायद किसी ने कभी कल्पना न की हो। आरक्षण आंदोलन की हिंसा-आगजनी-लूटपाट में सिर्फ दुकानें, घर, सम्पति ही नहीं जले, बल्कि लोगों के दिल और भावनाएं भी खाक हुई हैं। शहरी इस सदमे से स्तब्ध हैं, हताश हैं लेकिन उनमें फिर से उठने की चाह है, बेचैनी है और बहुत कुछ है, जो बयान नहीं किया जा सकता, सिर्फ महसूस किया जा सकता है। लोगों के अहसासात को रमणीक व सुधीर ने कुछ ‘खाके’ कलमबद्ध किए हैं। इस घटना के संबंध में आपके पास यदि अनुभव व विचार हैं, तो उनका ‘देस हरियाणा’ में प्रकाशन के लिए स्वागत है। सं.
ये खाके काल्पनिक नहीं हैं। जमीनी हकीकत के बयान हैं।
गई रात तीन-चार दुकानें लूटी गई हैं, इस ख़बर के बीच सुबह उस ने दुकान खोली। डर तो था मगर इतना भी नहीं कि दुकान न खोलें। 11 बजे होंगे शायद। पुलिस और फौज आते दिखाई दिए। यह कहते हुए निकले वहां से कि कफ्र्यू लगा है, हम ने सब सम्भाल लिया है, सब अपने-अपने घरों को जाएं।
सुनने में आ रहा था कि लूटपाट ही नहीं, आगजऩी भी हुई है। सुनना क्या, घर की छत पर खड़े थे तो उठता धुआं तो दिख ही रहा था। दुकान सम्भालनी होगी। घर से निकलना चाहा। नहीं निकलने दिया घरवालों ने। बैठा रहा बेचैनी की हालत में। मगर कब तक रुकता। समझाने की कोशिश की घरवालों को। और हिम्मत कर के बाहर निकल ही गया। गली से होता हुआ सड़क पर पहुंचा। तीन लड़के। बाइक पर। ढाठे बंधे हुए। एक के हाथ में फरसा, दूसरे के हाथ में पिस्तौल वाला कट्टा,तीसरा बैग जैसा कुछ लिए हुए। कट्टा उस की तरफ लहराया। और वे तेज़ी से उस के आगे से होते हुए निकल गए।
अगली सुबह। फिर समझाया घर वालों को और निकला घर से। रास्ते में पुलिस चौकी थी। कुण्डी लगी थी उस पर। सादा कपड़ों में घूमता एक आदमी दिखा-पुलिस वाला था, जो अकसर चौकी पर दिखाई दिया करता था। तभी उस ने किसी को आवाज़ लगाई,कुछ कहा और निकल गया वहां से।
दुकान तो उस की नहीं आई थी लूट और आगजऩी की ज़द में, मगर कुछ ही दूर एक और जलती दुकान दिखी। फिर शोर की आवाज़ ! आगे जाने की हिम्मत न हुई। दूर से दुकान सुरक्षित देख लौट गया।
बचा ली थी वो – पड़ोसियों ने।
आगे दुकान। पीछे मकान। खौफजदा मियां-बीवी घर में थे। पिछले 24 घण्टों से। दुकान जल रही थी। उन की हिम्मत न हुई बाहर आने की। अंधेरे में भी, बने रहे घर में ही। बहुत कोशिश की पड़ोसियों ने कि वे बाहर आएँ। आवाज़ें लगाईं। कुंडी खटखटाई। मगर नहीं। नहीं आए वे बाहर। अगले रोज फौज आई, अन्दर से बन्द दरवाजा किसी तरह ज़ोर-आज़माइश कर खोला। बाहर लाए उन्हें। डरे-सहमे, रोते-देखते जल चुकी दुकान, खड़े थे वो उस के सामने, होश-ओ-हवास गुम।
तपिश उन तक पहुंची थी-चेहरा झुलसा हुआ था पति का।
मालूम नहीं क्या चीज़ थी वो। सुना है कि तीली नहीं लगाई जाती थी। कुछ फैंका अन्दर और एक साथ उठा जोर का भभका और हो गया काम – विज्ञान का चमत्कार! ? (‘राज़ को राज़ रहने दो।’)
‘नुकसान पहुंचा लगता है आप की दुकान को भी।’ ऊपर को निगाह डालते हुए बोला वह।
‘बचा लिया पड़ोसियों ने।’
‘कैसे?’ – निगाहैं वहीं ऊपर टिकी हुईं, कुछ जगह से फटे, तिरछे हुए बोर्ड को देखते हुए उस ने हैरत में पूछा।
‘जो जख्मी बोर्ड देख रहे हो न आप, यह बलवाइयों की देन नहीं है। पड़ोसियों ने किया यह। और हमारी हिफाजत में उन की चाल कामयाब हो गई। बलवाई गुजर गए आगे, सोच कर कि काफी है इतना ही जो कर गए यहां से बढ़ चुके उन के साथी।’
17 साल का ख़ूबसूरत जवान था वो – दादी बोली। मारा गया बेकसूर, दो तरफ की लड़ाई में। एक तरफएक छोटी भीड़, दूसरी तरफ़ उस भीड़ से दो-ढाई गुना लोग। ऐसा बिछड़ा बाप से कि फिर मिला तो अस्पताल में – सफेद चादर उढ़ी, सिर्फ पैर दिखाई देते, जो काफी था समझने के लिए पूरी बात। गया था मदद को, दुकान खाली करवाने को – लौटा बाप के साथ मगर अपने पैरों पर नहीं।
सब बन्द था। और अफवाहैं गरम। मगर शादी में तो जाना था। ऑटो पकड़ा। लेकिन कहां तक पहुंच होती उस की? वहीं तक, जहां तक बैठे न मिलते अच्छी-खांसी संख्या में लोग सड़क पर। पैदल चला। कुछ ही आगे एक चौराहे पर बैठे पाए पहले से चार-पांच गुना लोग। पहुंच तो गया शादी में। मगर माहौल में तो भारीपन था। पहुंचा न था कि वापसी का खय़ाल आने लगा। रात का वक्त और…….
स्कूटी पर निकली थीं वो दोनों। काम हो चुका था मगर रात भी हो चली थी। चलती-फिरती सड़क थी। इस का तो कोई डर न था। मगर जिंदा हो उठे चौराहे का तो था।
बन्द हो चुका था पूरा बाजार। वो पहले दिन शाम को देखने आया। सब ठीक था। दूसरे दिन फिर आया। तब भी राहत की सांस ली। तीसरे दिन भी जब पहुंचा देखने तो शांति ही थी।
कुछ घण्टों बाद लपटें उठती दिखीं, बाल्टियां भर-भर आईं पानी की, भरे हुए मटके तक आए। कौन आया, किधर से आया, कब लगा गया तीली, किधर निकल गया – कुछ मालूम नहीं। आया था या आए थे? ये भी मालूम नहीं।
छोटे सामान की रेहड़ी है साहब मेरी – देख ही रहे हो। परदेसी हैं हम तो। दिन में कहीं और, शाम को यहां लगाते हैं रेहड़ी। ये दस दिन तो बस पूछिए मत कि कैसे बीते। कमरे में ही बन्द रहे। कमरे की छत पर खड़े हो कर देखा है धुआं उठता जगह जगह से। और सुना यह भी कि मारा गया एक आदमी हमारे कमरे से कुछ ही दूर। गया था डरते-डरते दो-चार बार गोदाम में खड़ी रेहड़ी सम्भालने। एकाध बार तो उल्टे पैर वापिस आ गया – सामने से शोर आता सुन कर। पांच हज़ार रुपये की कमाई निकल गई साहब इन दिनों में हाथ से।
रह-रह के खय़ाल आता रहा कि बस! अब नहीं करना यह काम। और करना भी है तो इस शहर में तो नहीं। कई दिन यही ख्याल हावी रहा। मगर दिल का ही दूसरा हिस्सा बोलता – तेरे यहां तो सब तरह के, सब बिरादरियों के लोग आते हैं। दाद देते आए हैं तेरे काम की। तेरे शहर के लोगों ने तो किया भी नहीं यह सब। लोग मिलते। हौसला देते। मदद की बात भी करते। अब तय किया है कि फिर खड़ा होना है। आखिर रहना तो मिल-जुल कर ही है।
वो हैरान थी। ताज्जुब हो रहा था बच्चों में आए अचानक बदलाव को देख कर। कल तक के दोस्त आज कुछ खिंचे-खिंचे से थे। फिर एक बच्चे ने दूसरे को अजीब ही तरह से पुकारा – पुकारा भी उस के पहले नाम से नहीं। शायद घर-पड़ोस से निकल कर, घात लगाते हुए बात आ पहुंची थी। यहां तक – स्कूल में घर कर गई थी जात-पात की बात।
बेटे ने उसे बहुत मनाया – अकेला घर है हमारा उन सब घरों के बीच में, कौन बचाएगा हमें गर जान पे बन आई तो। मगर जिद्दी बाप ने भी एक न सुनी। आज तक पड़ोसी ही तो काम आते रहे थे उस के। बेटा घर छोड़ गया अपनी बीवी के साथ। मां क्या करे? रही – बीमार पति के साथ। डरी-सहमी, अफ़वाहों के बीच, तीन रातें कटीं आंखों में, अपने ही घर में कैद।
अजनबी थे वो। रुके थे उस घर पानी पीने के लिए। कुछ बातचीत हुई। मालूम हुआ कि एक बुज़ुर्ग और एक महिला – ससुर और बहू – बस यही लोग थे घर में। कफ्र्यू (?) लगा था। बाज़ार बन्द थे। बेसहारा इक-दूजे का सहारा बने – तब तक, जब तक बुजुर्ग का बेटा नहीं लौटा चार दिन बाद।
दोस्त का सन्देश पढ़ा तो वो चौंका। बेहद खिन्न था वो। घोर उदासी में। घिरा हुआ जैसे पि��जरे में। या किसी गहरी गुफा में कैद, छटपटाता, झुंझलाता कि करना चाहता है जो, वो कर नहीं पा रहा।
‘कुछ नहीं है यह, ये तो होता रहता है उस के साथ। कुछ ही देर की बात है, सब ठीक हो जाएगा’ – उसने सोचा।
लेकिन फिर जो सन्देश आया तो चौंकने से आगे जा पहुंचा वो – अन्दर तक हिल गया। उस का शहर, उस का दोस्त, शहर और दोस्त से दूर वो खुद – लगा उसे कि तीनों एक ही हालत से गुजर रहे हैं – लटकते किसी ऊंची खड़ी चट्टान से, अब गिरे कि अब गिरे।
हो गुजरे हैं वो उस सब से। खड़े हुए हैं फिर से।
देखें कब तक।
‘यार जिन्दा, सोहबत बाकी।’
‘उम्मीद पे टिकी है जिन्दगी।’
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( मई-जून 2016), पेज -25 -26