विदाई समारोह – कुलदीप कुणाल

कविता


विदाई समारोह

एक विदाई समारोह देखा।
निबटारा देखा।
रिश्तों का पिछवाड़ा देखा।
कुछ आंसू थे, बेखुशबू के फूल बिछे थे-
पर जाते-जाते जाने वाले ने मुड़कर दोबारा देखा।
कुछ आंसू थे, कुछ पछतावे, कुछ लालच थे, कुछ खामोशी।
एक शिकायत का गट्ठर था।
इक पत्थर था बड़ा ही भारी, जो सीनों पर रखा रहा था बारी-बारी।
आशिकों का दिल फिर भी नर्म है।
पर अफवाहों का बाज़ार गर्म है-
इक चाकू था एक पीठ थी, माशूका ही जऱा ढीठ थी।
इक भंडा था जो आशिक ने ढीठ के सर पर जमा के फोड़ा।
आशिक गांठ लगाता फिरता, माशूका ने नाता तोड़ा।
आओ उदार बनें अब थोड़े, टूट-फूट पर क्या बतियायें…
आओ उनकी बात करें जिनके अब तक चक्कर चलते।


स्रोत- सं. देस हरियाणा (मई-जून 2016), पेज- 22

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