गोदान के होरी का समसामयिक संदर्भ – आदित्य आंगिरस

आलोचना


गोदान प्रेमचंद का एक ऐसा उपन्यास है जिसमें उनकी कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची है। गोदान में भारतीय किसान का संपूर्ण जीवन – उसकी आकांक्षा और निराशा, उसकी धर्मभीरुता और भारतपरायणता के साथ स्वार्थपरता और बैठकबाजी, उसकी बेबसी और निरीहता का जीता जागता चित्र उपस्थित किया गया है जिसमें उसकी गर्दन जिस पैर के नीचे दबी है उसी को वह सहलाता, अपनी पीड़ा, क्लेश और वेदना को झुठलाता, ‘मरजादÓ की भावना पर गर्व करता, ऋणग्रस्तता के अभिशाप में पिसता, तिल तिल शूलों भरे पथ पर जीवन यापन करते हुऐ दिखाया है। वास्तव में भारतीय अर्थव्य्वस्था का मेरुदंड यह किसान कितना शिथिल और जर्जर हो चुका है, यह गोदान में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। गोदान वास्तव में, 20वीं शताब्दी की तीसरी और चौथी दशाब्दियों के भारत का ऐसा सजीव चित्र प्रस्तुत करता है वैसा साहित्य की किसी भी अन्य शैली में मिलना दुर्लभ है। नगरों के कोलाहलमय चकाचौंध ने गाँवों की विभूति को कैसे ढँक लिया है। जमींदार, मिल मालिक, पत्र-संपादक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डाक्टर, राजनीतिक नेता और राज कर्मचारी जोंक बने कैसे गाँव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं और कैसे गाँव के ही महाजन और पुरोहित उनकी सहायता कर रहे हैं। गोदान में ये सभी तत्व प्रेमचन्द के इस उपन्यास में हमारे सामने स्वत: ही प्रत्यक्ष हो जाते हैं। गोदान में बहुत सी बातें एक साथ कही गई हैं। जान पड़ता है प्रेमचंद ने अपने संपूर्ण जीवन के व्यंग और विनोद, कसक और वेदना, विद्रोह और वैराग्य, अनुभव और आदर्श सभी को इसी एक उपन्यास में एक साथ भर देना चाहा है। अत: कई आलोचक इसी कारण यदि उसमें शिथिलता की बात करते हैं तो वे गलत नहीं हैं क्योंकि उसका कथानक शिथिल, अनियंत्रित और स्थान-स्थान पर अति नाटकीय जान पड़ता है। ऊपर से देखने पर पाठकगण निश्चित रूप से महसूस करते हैं परंतु यदि सूक्ष्म रूप से देखें तो गोदान में लेखक का अद्भुत उपन्यास-कौशल दिखाई पड़ेगा क्योंकि उन्होंने जितनी बातें कहीं हैं उनक प्रखरता के माध्यम से कहीं न कहीं निर्वहन किया गया है। सभी बातें कहने के लिये उपयुक्त प्रसंगकल्पना, समुचित तर्कजाल और सही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रवाहशील, चुस्त और दुरुस्त भाषा और वणर्नशैली में उपस्थित कर देना प्रेमचंद का अपना विशेष कौशल है और इस दृष्टि से उनकी तुलना में शायद ही किसी उपन्यास लेखक को रखा जा सकता है। यह तो निश्चित रूप से मान्य तथ्य है कि जिस समय प्रेमचन्द का जन्म हुआ वह युग सामाजिक-धार्मिक रुढि़वाद से भरा हुआ था और भारतवर्ष पराधीन होने के साथ साथ न केवल मूल्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा था अपितु भारतीय अर्थव्यवस्था का ढांचा भी बदल रहा थ जिसमें भारत परम्परागत कृषि को त्याग कर पश्चिमी औद्योगिक नीतियों को स्वीकार कर रहा था।

यह तो निश्चित रूप से सर्वमान्य तथ्य है कि उपन्यासकार प्रेमचंद के द्वारा सन 1936 में रचा गया गोदान हिंदी साहित्य की एक ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसने भारतीय संस्कृति की आधारशिला कृषक का मार्मिक वर्णन मिलता है। यद्यपि प्रेमचंद ने इससे पहले भी उपन्यास लिखे जो अपनी दिशा व उद्देश्य के अभाव में या तो केवल उपदेशवादी और सुधारवादी स्वरों को अभिव्यक्त करने वाले बन गये अथवा गांधीवादी विचारधारा का परिपोषण करने वाले बन गये थे।  गोदान में देखने को मिलता है जहां वें उपदेशात्मकता के अभाव में यथातथ्य भारतीय सामाजिकता का स्वरूप प्रकट करते हैं।

हिन्दी साहित्य में गोदान को किसान जीवन की समस्याओं, दुखों और त्रासदियों को द्योतित करता हुआ महाकाव्य माना जाता है और इस महाकाव्य की कथा में गांव और शहर के आपसी द्वंद्व ,भारतीय ग्रामीण जीवन के दुख, गांवों के बदलने टूटने  बिखरने के यथार्थ और जमींदारी के चक्र में उलझ कर आतंकित किसानों की पीड़ा का मार्मिक एवं विशद चित्रण एवं विश्लेषण है जिसको पढ़कर सहृदय पाठक न केवल भारतीय किसान की विषम स्थिति के बारे में करुणापूर्वक विचार करता है अपितु सामाजिक परिस्थितियों में भी परिवर्तन की अपेक्षा करता है जिसके परिणामस्वरूप किसान की आर्थिक दशा में सुधार हो सके।

इस  उपन्यास की कथा का मूल होरी नामक किसान है जो एक अति साधारण प्रकार का मनुष्य है जो भारतीय कृषि में अनुस्यूत व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। यदि होरी का व्यक्तिगत साक्षात्कार करने की आकांक्षा हो तो उस व्यक्ति को केवल धूप से झुलसी, सांवली और सूखी पड़ी त्वचा, पिचका हुआ मुंह, सिर पर अन्दर की ओर धंसी हुई निस्तेज आंखें और कम उम्र में ही अकारण ही संघर्ष की मार से मुरझाया हुआ मुख  की मात्र कल्पना करना ही उचित होगा। होरी के इस बिंब से किसी भी भारतीय किसान का चेहरा बरबस सामने आ जाता है।  होरी के जीवन की आर्थिक दुर्दशा का चित्र प्रस्तुत करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं – ‘घर का एक हिस्सा गिरने को हो गया। द्वार पर केवल एक बैल बंधा हुआ था। वह भी नीमाजान। अब इस घर के संभलने की क्या आशा है। सारे गांव पर यही विपत्ति थी।  एक भी आदमी नहीं था जिसकी रोनी सूरत न हो। चलते फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे,घुटते थे, इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा और न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो, भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है।Ó

प्रेमचन्द का इस रचना में गांधीवाद से मोहभंग इसीलिये हुआ है क्योंकिं गांधीवाद किसी भी प्रकार से होरी जैसे किसानों की समस्या का निदान देने में असमर्थ रहा था और इसी कारण गोदान में आकर यथार्थवाद नग्न रुप में हमारे सामने अपने को प्रस्तुत करता है।  भारतीय नेता किसानों की समस्याओं का निदान ढूंढने में असमर्थ रहे हैं और कृषि संबंधी समस्याओं ने वर्तमान युग में विकराल रूप धारण कर लिया है जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान समय में किसान आत्महत्या करने के लिये बाध्य  हो जाता है।

‘गोदानÓ एक भारतीय कृषक की ऐसी कथा है जिसमें कृषक जीवन भर अथक प्रयास करता है कि उसकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो सके, इसी कारण वह अनेक कष्ट सहता है ताकि वह मर्यादा की रक्षा कर सके। वह दूसरों को प्रसन्न रखने का प्रयास भी करता है, किंतु उसे इसका फल नहीं मिलता और अंत में लुटने के लिये मजबूर होना पड़ता है और अपनी उस मर्यादा को बचा नहीं पाता जिसका वह बात-बात में उद्धरण देता रहता है। परिणामत: वह जप-तप के अपने जीवन को ही ‘मरजादÓ की रक्षा के लिये होम कर देता है। यह होरी की कहानी नहीं, उस काल के हर भारतीय किसान की आत्मकथा है।

होरी के शोषण के ऐतिहासिक कारण हैं । रामविलास शर्मा इन्हीं संदर्भों में अपना मत अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि ”गोदान में किसानों के शोषण का रूप ही दूसरा है। रायसाहब के कारिंदे सीधे होरी का घर लूटने नहीं जाते, मगर होरी लुट जाता है कचहरी कानून के सीधे हस्तक्षेप के अभाव में भी उसकी जमीन छिन जाती है। होरी जैसा किसान शोषण के औपनिवेशिक तंत्र के सामने अकेला और निरीह है। होरी कहता है गांव में इतने आदमी तो हैं, किसी पर बेदखली नहीं आई, किस पर कुड़की नहीं आई । धनिया के पारिवारिक जीवन का अनुभव यह है कि कितनी भी कतर ब्योंत करो, लगान बेबाक होना मुश्किल है। इसी मुश्किल और असंभवता को प्रेमचंद ने गोदान का सार बना डाला है। गोदान अंतत: दो सभ्यताओं का संघर्ष है। एक ओर किसानी सभ्यता है जिसका प्रतिनिधित्व होरी करता है जबकि दूसरी ओर महाजनी सभ्यता है। यह स्वाभाविक है कि सामंती सभ्यता से महाजनी सभ्यता के इस बदलाव में आखिरकार होरी पराजित होता है। मरजाद की जिद के साथ होरी का मरना गोदान के अंत को एक त्रासद बिंदु बना देता है । इस यथार्थवादी उपन्यास के नायक होरी का यह त्रासद अंत पाठक को देर तक और दूर तक अपनी जद में लिए रहता है।

होरी कितने भी कष्ट सहकर मरजाद का मोह नहीं छोड़ पाता है। उसके जीवन का आधार मरजाद है और उस पर धर्म, संस्कारों , नैतिकता और आदर्शों का दबाव भी बहुत गहरा है। एकाध स्थान पर जब वह अपनी नैतिकता से डगमगाता भी है तब भी वह अपने नैतिक द्वंद्व और दर्द का अनुभव करता है कि उसे जो नहीं करना चाहिये वह वही कर रहा है क्योंकि वह सदा से ही दूसरों के दबाब में है। होरी जैसे मामूली से किसान को भी लेखक ने निम्न मध्यवर्गीय ऐसी नैतिकता का शिकार दिखाया है जो दूसरा इस द्वंद्व के कारण न तो वह नैतिकता का पूरी तरह से पालन कर पाता है और न अपने स्वार्थों की पूर्ति कर पाता है।

होरी की यह नैतिकता एक आम आदमी की अपरिभाषित और ओढी हुई नैतिकता का एक ऐसा जामा है जो भारतीय मनुष्य  को धर्म भीरू बनाए रखता है। होरी की जिंदगी की यही ओढी हुई नैतिकता जन्य नियति आज भी आम किसानों की नियति बन जाती है जहां वह अपने जीवन को गौरवपूर्ण बनाना चाहता है परन्तु अनथक प्रयासों के परिणामस्वरूप वह अपने जीवन को सामाजिक मर्यादा के अनुसार चलाने के लिये बाध्य हो जाता है। गरीबी और शोषण के बावजूद मर्यादा से साधारण जीवन जीने की इच्छा और जिद में पिसता हुआ होरी भारतीय समाज के सामने आज भी उद्धृत किया जाता है । सारे गांव के सामने अपनी पत्नी को पीटने में उसकी इज्जत नहीं जाती और अकारण ही पुलिस द्वारा उसके घर की तलाशी से जाती है। ठाकुर जी की आरती के लिए वह इसलिए नहीं उठ सकता क्योंकि उसके पास चढ़ावे के लिए तांबे का एक भी पैसा नहीं है और ऐसी स्थिति में वह सबकी आंखों के सामने हेठी होगी, जब ग्रामीण समाज को उसकी आर्थिक स्थिति का पता चलेगा। अपनी जान पर खेलकर कुल मर्यादा की रक्षा करने वाला होरी परम्पराओं, रुढिय़ों और धार्मिक कुरीतियों का निरीह शिकार दिखाई देता है। शोभा द्वारा पूछे गए सवाल कि इन  महाजनों से कभी पीछा छूटेगा या नहीं के उत्तर में होरी कहता है ‘इस जनम में तो आशा नहीं है भाई । हम राज नहीं चाहते , भोग विलास नहीं चाहते , खाली मोटा झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैंÓ। होरी गृहस्थ का आधार केवल जमीन को मानता है। अपने भाइयों से और फिर अपने बेटे गोबर से अलगोझे का आघात भी उस जैसे मरजाद पालक के लिए बहुत बड़ा आघात है ।

सम्पूर्ण गोदान में किसानों का खून चूसने वाली महाजनी सभ्यता का क्रूर शोषण चक्र दिखाई देता है जिसमें होरी और उस जैसे असंख्य गुमनाम किसान साधन विहीन किसान फंसे हुए हैं। व्यवस्था के शोषण के शिकार ये किसान अपमान और पीड़ा से भरी जिंदगी को मर मर कर अपना जीवन जीते हैं। महाजनी सभ्यता द्वारा किये जा रहे शोषण और संत्रास को वह चुपचाप सहता है। वह इस लंबी परम्परा को न उलटता है और न पलटता है केवल बर्दाश्त करता है। वह मानता है कि जिन तलवों के नीचे गर्दन दबी हो उनको सहलाने में ही उसकी कुशलता है।

होरी के चरित्र में विद्रोह और क्रांति की इच्छा न दिखाकर प्रेमचंद ने होरी को एक आम किसान का प्रतिनिधि बनाए रखा जो निद्र्वन्द्व भाव से सभी कष्ट सह कर भी अपनी ओढ़ी हुई मर्यादा को प्रमुखता देता है। इसे लेखक का यह यथार्थवादी नजरिया कह सकते हैं कि जिसके चलते होरी क्रांतिकारी नायक नहीं बन पाता अथवा शोषण करने वालों का हृदय परिवर्तन नहीं दिखता, क्योंकि महाजनी सभ्यता में यदि कुछ भी प्रमुख है तो वह केवल पैसा है जो होरी के पास नहीं है। प्रेमचंद ने औपन्यासिक कथा को दुखांत रूप दिया है। इसी सोच के कारण प्रेमचन्द  सामाजिक व्यवस्था पर एक ऐसा प्रश्नचिन्ह लगाते है जो समसामयिक समय में भी वैध है। इन्हीं संदर्भों में उपन्यास का अन्तिम भाग द्रष्टव्य है:

‘क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेज कर डाक्टर बुलाती। हीरा ने रोते हुए कहा – भाभी दिल कड़ा करो। गोदान करा दो, दादा चले। धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आंखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो धर्म है, क्या यह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था, उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है? और कई आवाजें आईं – हाँ, गोदान करा दो, अब यही समय है। धनिया यंत्र की भांति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रख कर सामने खड़े मातादीन से बोली – महराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है। और पछाड़ खा कर गिर पड़ी।Ó उपन्यास का यह अन्त पाठको के मन में गहरी संवेदना भर देती है।

 प्रेमचंद ने गोदान को संक्रमण की पीड़ा का दस्ताावेज बनाया है। इस उपन्यास में होरी ही एकमात्र ऐसा पात्र है जो समयानुसार परिवर्तित नहीं होता है। होरी का समयानुसार अपने को न बदल पाना ही उसके व्यक्तित्त्व  का अहम पक्ष है । भारतीय सामाजिक बदलाव के युग में सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर बदलते युग में होरी का बेटा गोबर किसान से मजदूर बन जाता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि यद्यपि गोबर का भी शोषण चलता रहता है लेकिन उसमें प्रतिरोध का स्वर बना रहता है  अत: वह बच जाता है। यहां तक कि धनिया भी विद्रोहिणी है, वह गांव भर के सामने सबसे लोहा लेती है । किंतु केवल एक होरी ही है सामंतवादी प्रथा के मूल्यों को ही ढोता रहता है ,वह  न तो अपनी मरजाद को छोड़ पाता है न ही गांव को, न जमीन को और न कृषि को। अंतत: वो मरता भी है गांव को शहर से जोडऩे वाली सड़क को बनाते हुए, वही सड़क जो अंतत: गांव पर शहर के आधिपत्य की घोषणा है। यह सड़क सामंतवाद के पतन की और पूंजीवाद की जीत की निशानी है।

गोदान में शोषण के अबाध चक्र को प्रस्तुत कर उसके प्रति जनजीवन को सावधान करते  और अंत में वर्गहीन समाज मे सामंजस्य का संदेश दिया है।

वीई.बी.आई.एस. एण्ड आई.एस., साधु आश्रम, होशियारपुर

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा 15-16 (जनवरी-फरवरी 2018), पेज-59-61

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