देश का चेहरा धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए – कृष्णा सोबती

 (प्रख्यात कथा लेखिका कृष्णा सोबती को वर्ष 2017 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।  प्रस्तुत है आज की देश की सबसे ज्वलंत समस्या पर उनकी एक बेबाक टिप्पणी)

भारत में विभाजनकारी ताकतों द्वारा आए दिन ताजादम किया जाने वाला सांप्रदायिकता का चेहरा हर भारतीय नागरिक को चुनौती देता एक गंभीर खतरा है। यह खतरा वह नहीं है जो आपकी या यूं कहें हम सबकी हदों से बाहर है। यह वह है जो हम सब को कमोबेश अपने कंटीले जाल में समेटने की कोशिश में है। हमारा देश जिन आंतरिक खतरों और अलगाववादी चुनौतियोंं से गुजर रहा है, उसकी जिम्मेदारी सिर्फ सत्ता और सरकार पर डालकर हम अपने फर्ज से बरी नहीं हो जाते। भारत का नागरिक होने की हैसियत से अगर मैं अपने होने में सिर्फ हिंदू हूं, मुसलमान हूं, सिख, पारसी या ईसाई हूं तो भी राष्ट्र द्वारा दी गई संज्ञा सभी समूहों-संप्रदायों को, जातियों-धर्मों को एक नाम प्रदान करती है-भारतीय नागरिक।

हम भारत के नागरिक राष्ट्र की विशाल चौखट से उभरे अपने होने में मात्र अपने कुल, वंश, जाति,  क्षेत्र, धर्म, समुदाय के प्रतीक नहीं। हम अपने में समाए हैं राष्ट्र के भूगोल और इतिहास को, उसकी सांस्कृतिक विरासत को, जो यहां रहने वाले हर नागरिक की थाती हैं। मैं, मेरा देश, मेरा राष्ट्र पासपोर्ट की एंट्री भर नहीं। वह इस स्वाधीन राष्ट्र में सांस लेने वाले हर नागरिक की अस्मिता का प्रतीक है। हमें यह भी याद कर लेना चाहिए कि यह राष्ट्रीयता सत्ता-व्यवस्था, सरकार और राष्ट्रीय ध्वज में ही नहीं, राष्ट्र के उस नागरिक में भी मूर्त होती है, जो राष्ट्र के इतिहास और भूगोल को जीता है और अपने नागरिक की संज्ञा को अपनी रूह, अपनी आत्मा में महसूस करता है।

यह धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र की प्रशस्ति नहीं, उसके मूल्यों का गुणगान है, जिसे हर नागरिक अपनी सामथ्र्य के अनुसार जीता है। आज़ादी के बाद देश की एकता के सम्मुख उठ खड़ी हुई विसंगतियों में एक यह भी है कि अपने होने में मैं हिंदू, मुसलमान, सिख, पारसी के साथ एक भारतीय भी हूं। जबकि जो होना चाहिए था, वह यह  कि मैं भारत का नागरिक हूं, इसके साथ मैं अपने निजी धार्मिक विश्वासों में हिंदू, मुसलमान या कोई और हूं। इसे कुछ इस ढंग से प्रस्तुत करना चाहूंगी-

मैं इकबाल चंद हूं, इंदौर में रहता हूं, भारतीय हूं।

मैं इकबाल महमूद, हैदराबाद में रहता हूं, भारतीय हूं।

मैं जॉन इकबाल हूं, पटना में रहता हूं और भारतीय हूं।

मैं इकबाल पालकीवाला, सूरत में रहता हूं, भारतीय हूं।

मैं इकबाल सिंह हूं, पटियाला में रहता हूं, भारतीय हूं।

यह राष्ट्रीय एकता को उभारने वाला कोई विज्ञापन नहीं, एक हकीकत है। आपस में मनमुटाव, शक-सुब्हे और एक-दूसरे पर हथियार उठा लेने से हम उस सांझेपन को कैसे बांट लेंगे जो हमें विरासत में मिला है। राजनीतिक ताकतों के अलग-अलग नाम न लें तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि सांप्रदायिकता का चेहरा वह नहीं, जिसे हम आए दिन पेश करते हैं। यह वह है जिसे वे अपनी विचारधाराएं बेचने के लिए इस्तेमाल करती हैं। धर्म, जाति, संप्रदायों के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद देश का नागरिक सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरों पर अपने अलगाव को संतुलित करने का प्रयास करता रहा है। इसी साधारण जन के नाम पर सांप्रदायिकता की सारी उठापटक होती है और यही इन विघटनकारी शक्तियों का शिकार होता है। जिन नेगेटिव तत्वों को खास प्रयोजन-आयोजन से उभारा-उछाला जाता है, वे भी उसी आम आदमी को घायल करते हैं। लोकतांत्रिक शक्तियों को इकट्ठा होकर इस षड्यंत्र को उघाडऩा होगा।

यहां हम अपने प्रबुद्ध वर्ग की चौकसी की सराहना नहीं, बल्कि उस पर संदेह करेंगे। यह वर्ग राजनीति  के दायरों में अपने-अपने जुगाड़ के मद्देनजर परिस्थितियों और घटनाओं को सही-सही परखने की बजाए उन्हें एक-दूसरे से गड़बड़ा देने की क्षमता रखता है। इस तबके को खास तौर पर अपना आत्मावलोकन करना चाहिए। प्रेस का चरित्र भी किसी से अनदेखा नहीं। इन हालात में सामाजिक परिवर्तनों की पहचान हमें आश्वस्त करती है। जिस तेजी से इनकी जटिल प्रक्रियाओं से देश निकल रहा है, वह बताता है कि साधारण नागरिक का सामाजिक और राजनीतिक अनुभव पहले से कहीं ज्यादा व्यापक हुआ है।

जो ताकतें सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं, इसके लिए पैसा खर्च करती हैं, उनका मुकाबला यह नया हिंदुस्तानी कर पाएगा, ऐसी उम्मीद हम करते हैं। आर्थिक चुनौतियों का जवाब क्या हम कर्मकांड से, घंटे-घडिय़ाल, अजान-अरदास से पा सकेंगे? नहीं, इसके लिए हमें अपने पुरानेपन  से निकलना होगा। नए को अपनाने की ललक सभी समुदायों में होती है। लोकतंत्र में जहां हम अपने धार्मिक विश्वासों को जीने के लिए स्वतंत्र हैं, वहीं राष्ट्र की मुख्यधारा से अपना हिस्सा उठाने के लिए भी। संकीर्ण प्रचार-प्रसार से हम शोषित और शोषण के हालात को नहीं बदल पाएंगे, न ही लड़ पाएंगे, उन ताकतों से जो हर संप्रदाय को उसका चेहरा घायल करके दिखाती हैं।

भारतीय मानस अपने विशिष्ट लचीलेपन से साहित्य और कलाओं के क्षेत्र में बहुत कुछ दे चुका है। हम निराश नहीं हैं, यह जानते हुए कि आज भी हमारे सृजनात्मक साहित्य में भारत की मूलभूत व्यापकता की कमी नहीं। जहां गिरिराज किशोर लिख रहे हैं। वहां अब्दुल बिस्मिल्लाह और मंजूर एहतेशाम भी। एक ओर राजेंद्र यादव थे तो दूसरी ओर शानी भी। यह प्राप्ति बहुत बड़ी न सही, एक बड़े रास्ते की ओर इशारा तो है ही। आखिर में इतना ही कि अपनी सामथ्र्य और आस्था के बल पर हम सांप्रदायिकता को जीतने नहीं देंगे। भारत का चेहरा सदियों से धर्मनिरपेक्ष रहा है। उसे धर्मनिरपेक्ष ही रहना चाहिए।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा 15-16 (जनवरी-फरवरी 2018), पेज-5

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