और जब मौत नहीं आयी – शिव वर्मा

सोमैया इस संसार में बिल्कुल अकेला था। उसे न तो अपनी मां की याद थी और न बाप की। गांव के बड़े-बूढ़ों से जो कुछ सुनता था, उसे ही सच मानकर जी बहला लेता था। उसे समझाया गया था कि भगवान ने उसके मां-बाप की तकदीर में गरीबी और अभाव की जिंदगी लिख दी थी और इसीलिए उसकी मां जिंदगी भर चक्की पीसती रही और बाप ने सारी जिंदगी बड़े लोगों की सेवा करने के बाद भी कभी पेट भर खाना नहीं खाया। फिर एक दिन पहले विश्वयुद्ध के बाद देशव्यापी महामारी का शिकार होकर दोनों  इस दुनिया से कूच कर गये, सोमैया को अनाथ और अकेला छोड़कर।

गांव वालों की दया पर उनके रूखे-सूखे टुकड़े खाकर जब सोमैया कुछ बड़ा हुआ, तो उसे दूसरों की दया पर आश्रित जिंदगी से छुटकारा पाने की चिंता हुई। उसने जंगल से सूखी लकडिय़ां बीनकर या काटकर बेचना आरंभ कर दिया। उन दिनों जंगल से सूखी लकड़ी लाने पर आज जैसी सख्ती या पाबंदी नहीं थी। वह जंगल से लकड़ी लाकर कभी इस परिवार में दे देता, तो कभी उस परिवार में। बदले में उसे एक समय का भरपेट भोजन मिल जाता। रात पानी के सहारे बीतती। सोमैया ने इस जिंदगी को तकदीर का खेल समझकर उसके साथ समझौता कर लिया।

एक दिन जब वह लकडिय़ां  काटकर वापिस आ रहा था, तो रास्ते में उसने एक युवक की लाश पड़ी देखी, युवक किसी सम्पन्न परिवार का जान पड़ता था और उसकी हत्या किसी तेजधार हथियार से की गई थी। सोमैया ने सोचा कि क्योंं न इसकी सूचना गांव के थाने में देता चले। उसे क्या पता था कि वह वफादारी उसे महंगी पड़ेगी। जांच-पड़ताल की जहमत से बचने के लिए थाने के दरोगा ने हवालात में बंद कर दिया। लकड़ी काटने का फरसा उसके पास था ही। दो चश्मदीद गवाह भी आ गये और तलाशी में उसके पास से कुछ रुपए भी बरामद कर लिए गए। वह कहानी पूरी हो गई। युवक जंगल की तरफ हवाखोरी के लिए गया होगा। सोमैया ने पैसों के लालच में अपने फरसे से युवक की हत्या कर दी और उसकी जेब से पैसे निकाल लिए।

फिर आरंभ हुआ न्याय का नाटक। सोमैया की ओर से बचाव की पैरवी करने के लिए एक वकील भी दे दिया गया, जिसका काम था पुलिस के इशारे पर पैरवी करना। परिणाम वही हुआ जो होना था। सोमैया निचली अदालत से हाईकोर्ट तक हारता चला गया और उसकी मौत की सजा बरकरार रही।

मौत की सजा पाने वाले जिन कैदियों के आगे-पीछे कोई नहीं होता, उनकी ओर से आमतौर पर जेल के अधिकारी वायसराय के पास दया की याचिका लगा देते थे। आजकल  इस प्रकार की याचिका राष्ट्रपति के पास जाती थी।

राजमुंदरी आंध्रप्रदेश केंद्रीय कारागार के अधिकारियों ने भी सोमैया की ओर से दया की याचिका भेज दी। इस समय लॉर्ड इर्विन जाने की तैयारी कर रहे थे। जाने से पहले उनके सामने जितनी भी दया याचिकाएं रखी गईं, उन्होंने उन सब याचिकाओं को स्वीकार करते हुए सभी दया याचकों की मौत की सजाएं  रद्द कर दीं। सोमैया बरी हो गया।

आमतौर पर मौत की सजा पाने वाले जिन कैदियों की दया याचना स्वीकार हो जाती है, उन्हें पहले इस समाचार के लिए धीरे-धीरे तैयार करते हैं, लेकिन सोमैया के मामले में यह सावधानी बरतने के बजाये सीधे जाकर उसे वह शुभ समाचार सुना दिया गया। पहले तो उसे जेलर की  बात पर यकीन नहीं हुआ, लेकिन जब जेलर ने जोर देकर वही बात दुहराई तो सोमैया ने दौड़कर उसके पैर पकड़ लिए और काफी देर तक आंखेें फाड़कर उसकी ओर देखता रहा, जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहा हो। धीरे-धीरे उसकी वाणी और स्मरण शक्ति चली गयी और वह पागलों जैसा व्यवहार करने लगा।

जांच के बाद जेल के डाक्टरों ने इलाज के लिए उसे अस्पताल की पागलों वाली कोठरी में बंद कर दिया। अस्पताल की पर्ची पर लिखा था, ‘अत्यधिक  खुशी को सहन न कर सकने के कारण मानसिक संतुलन का डगमगा जाना।

स्रोत – सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा 15-16, जनवरी-फरवरी 2018, पेज 21

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