बिरादरी को गोली मारो – रोहतास

 

                सेठ त्रिलोकचंद बंसल टूथपेस्ट के झाग कम, थूक ज्यादा उगल रहा है।

                अंधेरा आकाश से समाप्त हो चुका है। सूर्य लाल हो रहा है, शहर के गगन से टकराती इमारतों से होड़ ले चुका है।

                टॉयलेट से बाहर निकलती बंसल की बेटी के पांवों में एकाएक ‘दैनिक जागरण’ समाचार आकर गिरा।

                आधी उत्सुकता से पूर्ण जवान हो चुकी बेटी ने अखबार उठाया। स्वभावगत निगाह मुख्य पृष्ठ पर टिकनी ही थी।

                अचानक समाचार एवं चित्र देख, उत्सुकता ने पंख ओर फैला दिया।

                कदम रोक समाचार पढऩा प्रारंभ किया, पूरा पढऩे से पहले बाप की तरफ संबोधन बढ़ा दिया, जिसमें चहक, उत्साह, आग्रह समिश्रित प्रसन्नता के साथ एक रूपाकार हो गए।

                ‘पापा! मेरा क्लासमेट एचसीएस सिलेक्ट हो गया। रेेंक भी सैकिंड पाया है।’

                बाप का ध्यान अपनी क्रिया में ज्यादा था, पर कानों में पड़ी ध्वनि ने उन्हें सब कुछ समझा दिया। मुख से कुरला बाहर फैंकते ही उसी रूप में जवाब भी फैंक दिया।

                ‘तुम्हारे मेरे में से तो कोंइसा नहीं  हुआ?’ बेटी ने बाप के जवाब का अर्थ ग्रहण कर लिया था। अब चाल का अन्य रंग था। अखबार ड्राईंग रूम की मेज पर फैंक अंदर वापिस चली गई दोबारा सोने। एकमात्र भाई अभी मीठी निद्रा में सोया पड़ा है।

                त्रिलोक चंद्र की पत्नी रसोई में ढेरों बर्तनों को दोबारा झूठे करने के लिए तैयार कर रही है।

                बंसल साहब ड्राईंग रूम में आकर बैठ गए तथा अखबार पलटने लगे।

                पत्नी का नाम माया देवी भारतीय तरीके से रखा गया था। बेशक भारतीय तरीके में भारतीय पुरुष जो पुराने हैं, या पुराने पड़ चुके हैं, पत्नी का नाम लेकर नहीं बोलते। परन्तु त्रिलोक के साथ यह समस्या न थी।

                पत्नी को जैसे ही भान पड़ा, पूछ बैठी, ‘चाय अभी बनाऊं या बर्तन धो लूं।’

                सेठ ने अद्र्ध उत्तेजना में अपना अधिकार जताया। ‘बिना कहे तो  दिमाग में अपने-आप कोई बात आती ही नहीं। चाय तो अब तक बन जानी चाहिए थी।’

                पत्नी माया देवी ने फौरन हुक्म की तामील शुरू कर दी। सेवा भावना कूट-कूट, पैदा होते ही अनेक तरीकों से मां, दादी ने माया देवी में ठूंस रखी थी।

                पति के बाद कहने मात्र का अधिकार तो माया देवी के पास भी है। ऊंची आवाज में बेटी को पुकारा,

                ‘मम्मू चाय बना दूं क्या?’

                बेटी को ध्वनि सुन चुकी थी, ‘अभी नहीं! सो रही हूं।’ ममता नाम था एकमात्र बेटी का, एक ही बेटा है, मनोज जो बेटी से छोटा  है, गहरी निद्रा में सोया पड़ा है। छुट्टी हो तो सोने में कोई कंजूसी नहीं, दिन के 11 भी बज जाते हैं। छुट्टी न हो तो, कालेज से एक घंटा पहले उठना, एक घंटे में ही फ्रेश, ब्रुश, स्नान, नाश्ता सब करना, आधी अधूरी तैयारी के साथ कालेज दौड़ना, यही दिनचर्या बेटी की है तथा यही दिनचर्या बेटे की भी।

                बाप इसके लिए मां को ही दोषी ठहराता है।

                ‘तुम्हारे कारण बच्चों की आदत खराब हुई है। अगर बचपन से ही समय पर उठाने की आदत डालती तो आज इनके  साथ झीक-झीक न करनी पड़ती।’

                पत्नी का जवाब भी कम तर्कपूर्ण न होता, ‘सिर पर चढ़ाने वाला कौन है? ना तो कभी आपने धमकाया, न कभी मुझे धमकाने दिया। बिना काम-कितनी ही बक-बक! पहले तो सिर पे चढ़ा लिए..’

                चाय निकल गई थी। अगली बातें छलनी में छलने लगी।

                त्रिलोक चंद्र बंसल का यही कुल परिवार है, जिसमें 44 वर्षीय पत्नी माया देवी, 24 वर्षीय पुत्री ममता बंसल, एमए पास, 22 वर्षीय पुत्र मनोज बंसल एमकाम का छात्र। स्वयं 70  दिनों के बाद पूरे 50 का हो जाएगा त्रिलोक चंद्र बंसल।

                सेठ बंसल सेल्फ स्टाइल, सेल्फ मेड इन्सान है। बाप के अनुसार चलने में अपने-आपको हमेशा ही असमर्थ पाया, जिसका खामियाजा शुरू में खूब भुगतना पड़ा। बाप ने छोटा सा साधन देकर साथ ही अलग कर दिया। पर पत्नी ने खूब साथ निभाया, साथ ही हौसला भी बनाए रखा। ससुर-सालों ने कुछ मदद की। आज अपने चाचा, ताऊ, भाइयों में सबसे अमीर है। तीन शोरूम, मुख्य बाजार में खूब चलती वों की दुकान, अच्छा राजनीतिक रसूख, फलदायी बिचौलियागिरी है। अनेकों जगहों से पैसा बनाना आता है। बच्चे न भी कमाएं तो सात पुश्तें बैठी खाती रहें। परन्तु आधुनिक विचारों के स्वामी त्रिलोक बंसल को इस पीढ़ी की भी चिंता नहीं। इसलिए एक वाक्य सिद्धांत रूप में हमेशा प्रकट करते रहते हैं। ‘जो करेगा सो अपने लिए, नहीं करेगा सो अपने लिए।’

                बाप की तरह अपने बच्चों पर वैसा आधिपात्य नहीं रखता। अधिक आजादी ने बच्चों को आलसी भी बना दिया है। नौकर-चाकर भी रखे हुए हैं। बच्चों को पढ़ाई के लिए पाबंद कर रखा है।

                त्रिलोक बंसल ने उसी खबर को एक बार फिर ध्यान से पढ़ा। जिसकी ओर बेटी ने ध्यानाकर्षण किया था।

                लड़के का गांव ढाणी चौकस, जाति चमार, एमए अर्थशा में  यूनिवर्सिटी पोजीशन।

                व्यापारी का दिमाग था बंसल साहब का सौ दिशा में घूमा।

                बेटी का कहीं इस लड़के के प्रति कोई आकर्षण तो नहीं। सीधा नहीं तो छुपा हुआ अवश्य है। लड़के की युनिवर्सिटी में पोजीशन है इसलिए  टैलेंट में तो कोई चूक नहीं। अवश्य ही अपने दम पे सिलेक्ट हुआ होगा। मेहनती मन, कभी खराब मन नहीं होता। आचरण का खरा होगा। खैर छोड़ो।

                माया देवी अपना काम निपटाती रही। इसके अलावा शायद इस अग्रवाल पुत्री को कुछ सिखाया भी तो नहीं गया था। बेटी को भी आप जैसा बनाना चाहती है, पर बाप वैसा नहीं है। अगर बाप भी वैसा ही बनाता तो बाजार वैसा नहीं बनने  देता। दोस्त अवश्य हैं पर शादी बाप की इच्छा के लड़के से करेगी। शायद कोई शिक्षा मां की भी असर में रखे हुए है। ढाणी चौकस का रोशन लाल निम्बडिय़ा भी उसी दोस्ती के बेड़े में शामिल है। तब ही तो उसके एचसीएस के चुनाव पर उसे भरपूर प्रसन्नता हई। गुपचुप मुबारकवाद भी दे चुकी है।

                त्रिलोक बंसल नहाकर तैयार हो चुके हैं। बेटा, बेटी अभी सोये पड़े हैं। रविदास जयंती की छुट्टी है, पर सेठ जी को तो व बेचने हैं।

                नाश्ता मेज पर लग चुका है। अखबार का मुख्य पृष्ठ ही ऊपर है। नीचे मुंह कर सेठ जी ने जैसे ही कोर तोड़ा, निगाह एक बार फिर उसी चित्र पर गई जो पिछले ही वर्ष तक एकमात्र सुंदर कम स्वस्थ ज्यादा बेटी का क्लासमेट रह चुका है। दिमाग फिर दलालगिरी करने लगा।

                ‘काश! यह बनिया पुत्र होता।’

                दिमाग घूमा। ‘बनिया पुत्र होता तो शायद मेरी बेटी के नसीब में कहां? करोड़ों रुपए का दहेज देना पड़ता।’

                त्रिलोक चंद्र बंसल पूरी कोशिश करके ध्यान इधर से हटा लेना चाहता है, जैसे ध्यान हटाता, हल्का सा चिंता का आवरण चेहरे पर आ धमकता है। आज अजीब हरकतें नाश्ते के दौरान घट रही हैं। पत्नी ने ताड़ पूछा, वह ��ाजा परांठा देने आई। आज कुछ ज्यादा ही सोच में पड़े हो। पड़ने के दिनों में पड़े नहीं। आज किस चीज की कमी है, दूसरे हमसे ही आस रखते हैं।

                परन्तु सेठ जी ने सेठानी को कोई भी जवाब नहीं दिया। घर में सफाई वाली है, व धोने वाली है, कई-कई दिन बर्तन मांझने वाली भी लगी रहती है। परन्तु सेठानी का फिर भी मन नहीं टिकता। कमर दर्द, थकावट, चक्कर, जोड़ों का दर्द, दवाइयोंं  की अनेकोंं संख्या का उपयोग। सफाई से कोई समझौता नहीं, इसलिए बर्तन धोने वाली को तो हटाना ही पड़ता है।

                इधर संयोग भी देखिए। आज ही एक बहुत ही वफादार तथा पुराना ग्राहक, ढाणी चौकस का अपनी बेटी के साथ दुकान खुलते ही आ गया व खरीदने।

                दुआ सलाम के बाद काम-धाम की बात शुरू हुई। व देखते बीच पारिवारिक चर्चा का चलाना, ग्राहक को रिझाना अजमाया हुआ नुडखा है।

                बेटी ने पसंद किया सो लिया। ग्राहक के पास जो नकदी थी, सो दी। शेष खाते में लिखा। चलने ही वाला था कि चार ग्राहक आ गए।

                सेठ त्रिलोक चंद्र बंसल अपने इस पुराने ग्राहक से कुछ पूछना चाहता था। उसी गांव का है तथा उसी जाति का। सेठ को जानने की इच्छा आज टिकने नहीं दे रही।

                ‘एचसीएस दामाद’ बहुत बार सेठ जी का साबका एसडीएम से जीवन में पड़ा। कितनी पावर है बंसल जी सोच कर रोमांचित हो उठते हैं।

                परन्तु एक दलित व बनिये का सबंध। कैसे सड़क से गुजर पाएगा। पर बनियों ने मुझे दिया भी क्या है? उल्टा बिगाड़ा ही। संवारने वाले तो गैर बनिए हैं, खास कर दलित।

                दलित अफसर से यारी गांठ कर तो सेठ  जी ने यह धन महल खड़ा किया है। सो दलित कम पराए लगते हैं।

                ग्राहक चला गया और सेठ ने जाने दिया। चारों ग्राहकों को यह दुकान महंगी लगी। सो दस मिनट में ही उठकर चल दिए। उनकी हाजिरी में तो त्रिलोक चंद्र बंसल ने फोन मिलाया। पक्के ग्राहक के पास जो अभी खरीददारी करके गया है। शायद आसपास ही होगा सोचा।

                ‘हैलो! रणबीर कहां जा लिये?’

                रणबीर नाम था ढाणी चौकस के इस स्थाई ग्राहक का, जाति चमार व व्यवसाय रेलवे में ट्रेक मैन की पक्की नौकरी। सेठ ने वापिस बुला लिया था।

                रणबीर को कुछ संशय अवश्य हुआ पर निश्चिंत हो लौट चला। बेटी को अवश्य खला। उसे सूट सिलने की जल्दी सता रही थी।

                सेठ जी ने अलग होकर रणबीर से पूछा तुम्हारे गांव से कोई हरिजनों का लड़का बड़ी नौकरी लगा है क्या?

                त्रिलोक चंद्र को रणबीर सिंह की समझ पर संशय था।

                रणबीर ने उछलते ही जवाब दिया।

                ‘हमारे ही परिवार में है नजदीकी भतीजा लगता है। एचसीएस अपने दम पर कामयाब हुआ  है। आईएएस के पेपर भी पास कर रखे हैं।’

                सेठ त्रिलोक चंद्र बंसल का कलेजा रोमांच से फडफ़ड़ा उठा। साथ ही रणबीर के ज्ञान पर आश्चर्य। परन्तु सवर्ण हैसियत ने जबान थोड़ी देर चुप रखी। सेठ को चुप व सोच में डूबे देख रणबीर सिंह ने इंतजार कर पूछा।

                ‘क्या बात है? आपको कैसे पता चला?’

                सेठ ने इस बात का जवाब नहीं दिया। पर व्यापारिक प्रक्रिया प्रारंभ की।

                ‘रणबीर तू मेरा खास आदमी है। सोच के देख ले, कभी किसी मदद के लिए मना किया? एक बात कहना चाहता हूं। जो तेरे और मेरे बीच रहेगी। तुम्हें मेरी दोस्ती की कसम।’

                आज सेठ, ग्राहक का दोस्त बन गया। लेने-देने के बदले में जो लिया, उसे कुशल बुद्धि ने कमतर बना दिया।

                पर सेठ बोला बिल्कुल एकाएक,

                ‘रणबीर इस लड़के से क्या तुम मेरी मुलाकात करवा सकते हो?’

                रणबीर ने उत्साह में भर कर हां कर दी।

                भोला जीव था। सोच विचार तो  बहुत किया, परन्तु सेठ की मंशा रणबीर सिंह रेलवे का खलासी अभी तक भांप नहीं सका।

                रणबीर अनपढ़ था तो क्या? रेलवे की चतुर्थ श्रेणी की पक्की नौकरी थी, सो घर में रोटी थी। बेटे पढ़ चुके थे, सो व्यापार की भाषा पिछड़़ेपन के साथ ही सही बेशक  समझने लग गया था। सोचा कोई न कोई गरज जरूर होगी।

                सक्रिय व्यक्ति था, ऊपर से ईमानदार, बात का धनी, ऊपर से सेठ ने यार जो कह दिया।

                रोशन लाल निम्बडिय़ा आज से पहले तो दूर का भतीजा था, परन्तु आज रणबीर सिंह के नजदीक का भतीजा बन गया। घर पहुंचते ही लगा डोरे डालने। वैसे भी मिलनसार व्यक्ति था।

                इधर रोशन लाल मेहनती व शरीफ  समझा जाने वाला नौजवान था। कालेज में आया ही था, प्रशासनिक सेवा का लक्ष्य लेकर। वरना मैट्रिक में जिसकी नाममात्र नकल से मैरिट हो, उसके लिए इंजीनियरिंग, डाक्टरी कौन सी मुश्किल थी। ऊपर से जिसे रिजर्वेशन का सहारा प्राप्त हो। अभी तक ज्वाइनिंग दूर थी, ट्रेनिंग  बाकी, सो घमंड का चक्रव्यूह नजदीक नहीं फटका था।

                अत: पहले दूर,्र अब नजदीक के चाचा की बात रख ली। दो दिन बाद मिलने का समय दे दिया। उधर रणबीर ने खुशी से उछलते सेठ को संदेश दे दिया।

                सोच-विचार कर धैर्य के साथ यदि किसी बात पर विश्वास किया जाए और उसपे ठहरा जाए तो प्राय: निर्णय फलदायी ही होता है।

                दुकान बढ़ा, शोरूमों की संभाल ले, सेठ त्रिलोक चंद्र बंसल रात्रि 9 बजे घर पहुंचे।

                पत्नी ने गेट खोला, गाड़ी खड़ी कर सीधे ड्राईंग रूम में गए। और दिनों सीधे बैडरूम में जाते थे।

                पत्नी पीछे-पीछे टेढी-मेढी चलती आई। थकावट भरी आवाज में पूछा।

                ‘चाय लाऊं! या खाना लगा दूं।’

                त्रिलोक बंसल में इस समय थकान का असर अवश्य था पर चिंता दबी हुई थी। आत्मविश्वास से बोले सेठानी पहले मेरी बात सुन। सोचते से बोले :

                ‘मम्मू तथा मन्नू कहां हैं?’

                ‘सो गए दोनों!’ सुबह 11 बजे उठे थे। नहा खना खा मम्मू तो टीवी के आगे धरी गई। शाम को उठी। पढ़ाई से फ्री हो गई है। तुम्हारे कपड़े प्रेस करने के लिए कहा था। एक बार प्रेस की तरफ चली गई, उसके बाद कल का नाम लेकर फोन पर माथा मारने  लगी। वो शेर नहा, खा मोटर साइकिल लेकर निकला था। अंधेरा होय घर में घुसा। थोड़ी देर वो कंप्यूटर के आगे बैठा रहा। फिर दोनों खाना खा, झगड़ कर अपनी-अपनी जगह जा पड़े।

                सेठानी ने विस्तार से कथा कह दी। त्रिलोक बंसल जैसे सपने से जगा, एक दम चौंक सा बोला, ‘सेठानी! एक जुआ खेलू सूं। तनैअ मेरा साथ देना होगा।’

                सेठानी माया देवी के पांव नीचे की धरती घूमने लगी। आचरण में बदलाव वह बंसल साहब में सुबह ही देख रही थी। विस्मित होकर पूरा मुख खोल कर बोली।

                ‘कै जुआ खेलो हो?’ साफ-साफ कुछ क्यूं नहीं कहते? तड़के से ही रूह बदली हुई तुम्हारी।’

                ‘पहले देख औलाद जागै अक सूती है।’

                सेठानी ने तसल्ली दिलाई तो सेठ ने धीरे-धीरे धीमी मद्धम आवाज में किसी चतुर र���जनेता की भांति अपनी योजना सेठानी के दामन में खोलनी शुरू कर दी।

                ‘मम्मू का एक क्लासमेट एचसीएस सिलैक्ट हुआ, जो एसडीएम से डीसी तक पहुंचता है।’

                सेठानी ने ध्यान गहरा गाढ़ दिया। खुशी, चौकन्नी आंखों में आ उतरी।

                ‘फेर’

                ‘फेर कै, कोशिश करता हूं लड़का मिल जाए।’

                सेठानी बीच में बोली ‘दिक्कत क्या है?’

                ‘दिक्कत-दाकत सारी है, लड़का हमारी जाति का नहीं है।’ जाति नीची होने पर शायद यह बाजी मेरे हाथ लग जाए। बनिया किसी भी सूरत में हमारा दामाद नहीं बनेगा। या तो बराबर की अफसर ढूंढेगा या उद्योगपति मालदार आदमी या फिर बड़ा नेता। हम ठहरे साधारण व्यापारी। लड़के की जाति चमार है। सेठानी का सारा उत्साह राख की भ_ी में जा गिरा। प्रसन्नता को आंखों से बाहर खदेड़ बोली। ‘उम्र बढऩे के साथ अक्ल बढ़ती है। पर तुम्हारी तो घट रही है। बिरादरी जीने देगी। ‘

                सेठ आवेश में बोला,

                ‘अरे! बिरादरी को मार गोली, सोच। सेठानी सोच। बाजार में टिकना है तो धर्म की दीवारें फोड़नी होंगी। सेठानी सोच। बाजार में टिकना है तो जातपात तोड़नी होगी। जात-धर्म को तोड़े-फोड़े बिना मायादेवी व्यवसाय के मैदान से आप माया नहीं बटोर सकते। सेठानी तू मेरा साथ दे, बाकी सब ठीक करने का गुर मेरे पास है। आज हर चीज पर व्यापार का कब्जा है।’

                ‘पत्नी मुरझा गई। पिछड़ेपन ने अपनी चादर और मोटी कर दी हतप्रभ होकर बोली।’

                ‘क्या साथ दूं? साथ देने वाली बात तो हो। हमेशा साथ दिया ही नहीं, पर…’

                सेठ जी ने सेठानी की असली नब्ज पकड़ ली। अब ज्यों ज्यों सेठ बहस कर रहा है, त्यों-त्यों सेठानी की मति चित हुए जा रही है?

                ‘सेठानी!’ बाप ने मुझे एक कोठरी देकर अलग कर दिया। चार गठरी कपड़ों की जगह नहीं थी। घर के नाम पर एक चौबारा। आज जिस आलीशान कोठी में बैठी हो, पता है तुम्हें, किसी की मदद से मिला। एक दलित अफसर से मित्रता गांठी तो उसने तरकीब और तरीका दोनों बताया। यह प्लाट दो साल पहले तक एक वाल्मीकि के नाम पर था। बड़ी जाति का होता तो शायद ब्लैकमेल जरूर करता। पर बिचारे ने  चुपचाप हमारे नाम करवा दिया। आज मुख्य बाजार में  मौके की दुकान है, उसके लिए जो लोन लिया, उस बैंक का मैनेजर भी चमार था। कोई बनिया होता तो शायद मोटा कमीशन खाता। मेरे बाप ने जो छोटी सी दुकान दी थी, उसने हमारे ऊपर कर्जा ही रखा, अंतत: आधे दाम पर बेच कर कर्जा पाड़ा। उन दिनों जब हम आत्महत्या करते  फिर रहे थे तो किस ने साथ  निभाया। मेरे कालेज का हरिजन मित्र उसी ने बैंक मैनेजर से मिलाया था। चाचे, ताऊ, भाई सभी ने आंख फेर ली थी। तेरे  बाप को भी बोझ लग रहे थे। सेठानी बीच में टोक बैठी, ‘वा बात तो ठीक है, पर लड़का जमा ए चमार है।’

                सेठ जी अब काबू पा चुके थे। बहस को आगे बढ़ाया।

                ‘तु कै सोचै है, यो लड़का आसानी से मिल जाएगा। यो तो एक जुआ है। एक तो यो हमसे नीची जात का है, शायद बनिए का दामाद बनने का लालच उसे मोह ले। दूसरा मम्मू इसकी क्लासमेट रही है, देखी भाली है, उसका दबाव पड़े। अभी कुछ ही वर्ष इन हरजिनों से फायदा लिया जा सकता है और फिर सोच मम्मू अपनी मर्जी से किसी दलित से कोर्ट में पकड़ शादी कर लेती, तू क्या करती तेरी बहन ने एक ही लड़की को वकील बनाया, उसने कर ली जात से बाहर शादी।’

                सेठानी को हावी होने का जैसा मौका मिल गया हो।

                ‘पर वो लड़का तो सैनी है।’

                पर वह सेठ से तेज नहीं थी। जानकारी का भंडार था सेठ त्रिलोकचंद्र। तब ही तो प्रगतिशीलता का आचरण जेब में लिए घूमता है।

                ‘अर वो मेरी बुआ वाली लड़की, दो साल पहले लैक्चरर लगी थी, उसने तो चमार के साथ ही कोर्ट मैरिज किया। मत पूछो बिरादरी! लड़का आज कालेज में प्राध्यापक है। लाख से ऊपर सेलरी आती है घर में हर महीने। पैसा बड़ा है, सेठानी पैसा।’ आज पैसे का राज है। जिस दिन पैसे का राज समाप्त होगा। उस दिन दलितों का राज होगा। सोच सेठानी! उस दिन कौन पूछेगा तेरी सेठदारी को?’

                माया देवी यह कहकर उठ गई।

                ‘तुम्हारी जी में आए जो करो। मम्मू की क्या गारंटी जो मान जाएगी। इस टिंगर तै भी तो पूछना पड़ेगा। मैं तो खाना ल्या रही हूं। थारै और थारी औलाद कै जो जी म्हं आवै वो करो।’

                सेठानी खाना लाई तथा चुपचाप बैठी।

                सेठ का तरकश अब लखेसरी बाण चलाने लगा।

                ‘सेठानी! आज तो पद और पैसे का राज है। मुझे दलितों का राज आता हुआ दिख रहा है और उन दलितों का जिन्हें आज तक कुछ हाथ नहीं लगा। जिस दिन इन दबे-कुचले लोगों के हाथ में बागडोर होगी। उस दिन न कोई सेठ होगा, न कोई हरिजन। सब, सब तरह से बराबर। वो राज मुझे दौड़ा चला नजर आ रहा है। तु मुझे यह जुआ खेलने दे। शायद मैं अपने बच्चों को तो इस पद तक न पहुंचा सकूं। कम से कम दामाद पा लूं।’

                सेठानी अब बिल्कुल ढीली पड़ चुकी थी। सारे हथियार सेठ के कदमों में रख दिए।

                ‘अच्छा बाबा। जी मैं आए जो करो। रोटी खा लो जल्दी से। पूरा शरीर हरकत से टूटा जा रहा है। इधर से निपटू तो आराम पाऊं।’

                सेठानी बर्तन रसोई में रख एक तरफ निढाल हो सो गई। सेठ अब भी सोच रहा है और छत ताक रहा है।

                पद में कितनी ताकत है। कितनी आसानी से पांच सौ गज का प्लाट अफसर ने दिला दिया। पिस्टल का लाईसैंस, रिश्वत दिए न मिले, पर इधर तो बिना कहे ही मिल गया। बैंक अधिकारी तुरंत पच्चास लाख का कर्ज पास न करता, तो आज शायद इस दुनिया में न होते। आज सब पद वालों की मेहर से है। बच्चों को इसलिए ही तो कारोबार से दूर रखा। शायद अच्छे अफसर बन जाएं। लड़की की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। लड़का मर्जी का मालिक। आस टूटी जा रही है। कुछ दिन लोग बात बनाएंगे। मतलब पड़ेगा तो सरपट दौड़े आएंगे। परिवार वालों से तो बोलचाल बंद है ही, रिश्तेदारों से और सही। आगे-आगे सबके साथ यही बनने वाली है। मैं तो खुद अपने साथ बना रहा हूं। मुझे दुख किस बात का। दुख तो उनको होगा, जो टालने पर डटे हुए हैं। बनियों की तरक्की का राज अब और जात वाले जान रहे और सब बनिए हुए जा रहे हैं। लुटेरे का लुटेरा क्या लुटेगा। सेठानी मान गई। चोखा हुआ। सच्ची साथिन निकली। पर काम में पीस कर बेचारी को बीमार कर दिया। कितना चालाक है आदमी, हर तरीके से औरत को काबू में रखने की कला जानता है। अगर बात सिरे चढ़ गई, तो आगे जीवन में संभल कर चलूंगा। खूब प्यार  से रखूंगा। शायद खुश रहेगी तो, बीमारी भी जाती रहे। औलाद का क्या भरोसा। थोड़ा मतलब हल न हुआ तो, आंख फेरी। पत्नी तो मेरी अपनी है, सच्ची जीवन संगिनी। एक बार जी में आया, बालों में हाथ फेरूं पर निंदा्र में विघ्न न पड़ जाए, सोच करवट बदल सोने की चेष्टा करने लगा सेठ। केवल यही बुड़बुड़ाया। ‘सारा दिन बेचारी का पंजा नहीं टिकता। किस काम का इतना धन।’

                रणबीर सिंह दो दिन बाद रोशन  लाल को लेकर बंसल के पास आ गया।

                सेठ जी ने, लड़के से खूब परिचय पाया। अपना ठाट-बाट दिखाया। अपनी इच्छा साफ-साफ शब्दों में रखी। लड़के ने दो दिन का समय मांगा। सेठ को बात बनती नजर आई तो आगे की तैयारी मन में पकानी शुरू कर दी।

                एचसीएस रोशन लाल ने मित्रों से सलाह ली। मित्र सभी राजी हुए। मां-बाप मजदूर, बेटे की खुशी में अपनी खुशी समझी। जमाने को भी पहचान रहे थे। कुछ राजी, कुछ नाराज मतभेद की लीला तो रूकती नहीं। अंतत: रोशन लाल ने शादी के लिए हां भर दी। पर शादी होगी ट्रेनिंग पूरी होने पर। हां वायदे से नहीं पलटूंगा। यह आश्वासन अवश्य दे दिया।

                बेटी अचंभित हुई, पर तैयार है। बेटा खुद जाट लड़की से विवाह की योजना तैयार किए हुए है। विरोध कर अपने पांव क्यों काटे।

                तीन महीने बाद सेठ ने अपनी बेटी एक दलित अफसर से ब्याह  दी। मीडिया ने इसे क्रांतिकारी कदम बताकर सेठ त्रिलोक चंद्र बंसल को बहुत ऊंचे आसन पर बैठा दिया। समाज में विरोध था पर राजनीतिक हलके सेठ त्रिलोक चंद्र बंसल को पुकार रहे थे। इधर सेठ बंसल का नया संसार खुल रहा था।  उधर, रोशन लाल अपनी ब्याहता को आगे पढ़ाने व बढ़ाने की तैयारी। सेठानी शांत व चुप, पर ममता अपने भाग्य पर इतरा रही थी।

                रोशन लाल ने ठाट-बाट देखा तो देखता ही रह गया। विचारों में ऐसा खोया कि लाख ढूंढे भी न मिले।

                रोशन लाल निम्बडिय़ा सोच रहा है, बनिया हाथ जोड़ कर अपनी बेटी दे रहा है। बेटी भी देखी भाली है। लड़की में कोई खास कमी नहीं। जमाने की हवा तो लगी, पर खराब कम ही लगी। लड़की तो जाति में भी अच्छी नौकरी वाली मिल सकती है, अच्छा घर भी। परन्तु सवर्ण जाति का दामाद बनना ज्यादा बेहतर है। हमेशा जिनके तलवे चाटे, आज बराबर  बैठने का अवसर हाथ आ रहा है। यह पद न मिलता तो कौन पूछता। अपनी जाति वाले भी लड़की ब्याहते रोते।

                मन पर पूरा प्रेशर डाल बार-बार सोचा, हर बार यही जवाब मिला, ‘मौका नहीं चूकना चाहिए। लड़की तेरे से तो गुणों में अच्छी है। कभी कोई बनियों वाली चालाकी नजर नहीं आई। तेरे पास तो पद ही आया है। अंतत: प्रथम परामर्श मित्रो, फिर माता-पिता। माता-पिता के पास तो आज पढ़े-लिखों ने कोई छोड़ी ही नहीं। मात्र औपचारिकता निभानी है सो गरीब मां-बाप समझ गए।’

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (अंक8-9, नवम्बर2016 से फरवरी 2017), पेज-

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