जब छोरे गाभरू होंगे-  प्रभात सिंह

कहानी


जब छोरे गाभरू होंगे

ताजा लेकर खाने वाले मजदूरों व गरीब किसानों के लिए भादवे का महीना तेरहवां महीना होता है। जहां खाते-पीते लोग सावण-भादवे में घूम-घूम कर आ रहे बादलों का आनन्द ले रहे होते हैं, वहीं मजदूरों  को इ स अभावग्रस्त समय में उधार लेने के लिए भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। इस मौके पर कहीं किसी को पांच रुपए सैंकड़ा भी मिल जाए, तो वह अपने-आपको बड़ा भाग्यशाली मानता है। कितने ही लोगों को खेत से घास-फूस चारा आदि लाने के लिए बेगार भी करनी पड़ती है।

रामफल अपनी पत्नी के साथ चिंता में बैठा सोच रहा है। पूरे घर में कुल मिलाकर रसोई समेत कच्ची ईंटों के दो ही कमरे हैं। रसोई की छत बुरी तरह से टूट चुकी है। बरंगों से घास निकला हुआ है। थोड़ी सी बूंद भी अंदर बर्तनों पर आ गिरती है। पास में ही दो बकरियां बंधी हुई हैं, जिनके मिंगण रहने वाले कमरे में ही सीधे आ जाते हैं। कमरे का लेवल भी काफी नीचा है। बरसात शुरू होने पर एक आदमी को तो दरवाजे से नाव की तरह पानी उलीच-उलीच कर बाहर करना पड़ता है। उस रोज आठम का दिन था। रामफल की बेटी गुड्डी ने व्रत रखा हुआ था। उसके लिए कोई फल वगैरा का प्रबंध नहीं था। कुछ बच्चे जो इधर-उधर खेल रहे थे। मन ही मन खुश हो रहे थे  कि बहन के व्रत  के लिए फल आएंगे तो उन्हें भी कुछ न कुछ तो मिलेगा ही। जहां सभी अपने बच्चों की सेहत को देखकर खुश होते हैं, वहीं रामफल और उसकी पत्नी को अपनी बेटी का दूज के चांद की भांति हो रहा शारीरिक विकास डरावना सा लग रहा था। बेटी के स्याणे होने की चिंता उन्हें घुन की तरह खाए जा रही थी। धर्म चंद जब अगली आगल हटा, उनके पास आकर राम-राम कहता है, तब जाकर कहीं चिंतामग्न बैठे दम्पति का ध्यान भंग होता हैं।

राजी खुशी, चाय-पानी की औपचारिकताएं पूरी होने पर धर्मचन्द ने पूछा, ‘क्यों भाई के बात सै, किस चिंता में डूब रहे सो?’

‘धर्म चन्द तने बेरा ए सै, जिसके घर मैं छोरी स्याणी हो ज्या, उसने इसतै न्यारी के चिंता हो सै। बस कोए हाण-जोड़ का बालक मिल ज्या, अर कोई सीधा-साधा परिवार मिलज्या, तो लड़की के हाथ पीले कर द्यूं। दो डांकले भी पढ़ रह्या सै वो भी मुंह बावै सै। जुगाड़ क्यां ए का सै नहीं, अर जमाना खराब आ रह्या सै। जै हो ज्या किसी ए दिक्कत तो कोण से कुएं मैं पड़ांगै। इस चिंता मैं बालकां की मां भी दो साल तै अपणे पीहर नहीं गई।’

इस पर धर्म चन्द ने काफी देर चुप रहकर पूरा विचार करके सलाह दी, ‘रामफल। बात या सै। जमाने में जड़ै माड़े लोग होंगे ओड़ै या सोचण आले भी कम नहीं अकै किसे कै लिए दियै तै के हो सै? औरत मर्द सब बराबर हो सैं। ना तो दहेज लेणा चाहिए, ना ए देणां चाहिए। आजकल इसी शादी जगां-जगां हो रही सैं। मेरा तो एक तजुर्बा सै, जो शादी विचार मिलने तै होवै सै, उसका कोई मुकाबला नहीं होन्दा। ये शादियां सुथरी ढाल निभदी देखी सैं और दूसरी तरफ रण सिंह नैं थारी आंख्या आगै ए डेढ़ लाख खर्च करे थे। ओ बटेऊ रोज दारू मैं धुत रह्या करदा अर लड़की की मारपीट भी होती रहै थी। दो साल होगे छोरी नै घरां बैठी नै। इसलिए भाई कोए ठीक विचारां का छोरा देख ल्यांगे अर एक रुपया लागण नहीं द्यां। छोरी जिंदगी भी सुख पावैगी।’

रामफल व उसकी घरवाली को यह बात सपने में भी नहीं जंची, परन्तु इस ओर ध्यान जरूर किया। दोनों ने विचार भी किया। अड़ोस-पड़ोस में जब चर्चा की तो सबनै कहा-‘भाई समाज मैं सारी चीज हो सैं। खर्च भी लगाणां पड़ैगा। के भूरी कीड़ी फिर रही सै। के दिक्कत आवै से, दो बीघे किसे के खूड फालतू पाड़ लियो।’

कई दिन तक वे इसी विचार में उलझ-पुलझ रहे। आखिर आस-पड़ोस का दबाव हावी रहा और रामफल ने गुड्डी का रिश्ता कर दिया। रिश्ता करते वक्त अगलों की भाषा से ही लग रहा था के शादी पर जरूरत से ज्यादा खर्च करना पड़ेगा।

इसके लिए पूरा विचार करने पर रामफल का ताऊ धन सिंह उसको पड़ोसी गांव के जमींदार रामसिंह के यहां लेकर चला गया। यह जमींदार बड़ा ही मक्खीचूस था। किसी की फसल का हिसाब नहीं देता था। इसके यहां जो भी कोई आया, कई-कई साल रोटी-सट्टे पर ही कमाकर पिंड छुड़ा पाया। अब इसके कोई भी खेती करने को तैयार नहीं था। इसलिए ज्यादा पेशगी केवल वही दे सकता था। पूरी बातचीत के बाद मालिक ने मजदूर का फायदा उठाते हुए उनके सामने शर्त रखी तथा बेगार और पेशगी का ब्याज रामफल को स्वीकार करना पड़ा। जब जाकर 17 हजार रुपए व उससे आगे बढ़कर पांचवें हिस्से पर खेती दी। रामफल का माथा तो उसी समय ठनक गया था, परन्तु अब तो उसे लड़की की शादी से अलग कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। उसके नाम की तो धरती पानी की भरी पड़ी थी।

रामफल ने लड़की की शादी पूरे धूमधाम से की। रिश्तेदार प्यारों से उठाकर पूरे 35 हजार शादी पर खर्च कर दिए। उसने पूरा जोर लगाकर जो दहेज दिया, अगले परिवार के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं थी। केवल एक दो दिन अड़ोस-पड़ोस में यह चर्चा जरूर चली कि बड़ा अच्छा ब्याह कर्या सै। अगलों के घर बिजली का कोई प्रबंध नहीं था। कुछ दिन बाद वो बटेऊ टेलीविजन तो दारू वाले को उधार में दे आया और कूलर कई दिन तक तूड़ी में पड़ा रहा। उनको कहां कूलर के नीचे बैठने की फुर्सत थी। कुछ दिन बाद पूरे परिवार को समान बांधकर किसी जमींदार के यहां खेती करने जाना पड़ा। उधर रामफल एक कंजूस जमींदार के यहां फंस गया था। जमींदार राम सिंह जहां पूंजी का तीन रुपए सैंकड़ा ब्याज लगाता, वहीं हिसाब में हेराफेरी करता था। अनेक कलम फालतू चढ़ा देता था। फसल का पूरा हिसाब तो उसने आज तक किसी को  दिया ही नहीं था। क्योंकि रामफल तो बुरी तरह फंसा हुआ था। इसलिए उसके साथ तो और भी बुरी बनी। उसको मालिक के पशुओं को भी चारा डालना पड़ता था। उसकी घरवाली का ज्यादातर समय पशुओं  के गोबर कूड़े में ही बीत जाता था। यहां पर ‘सीरी का बालक जितना घाम मैं बलै उतना ए आच्छा’ वाली जमींदारों की कहावत पूरे तौर पर लागू होती थी। पूरे चौमासे में चेजी पर काम करना पड़ता था। खेत में मालिक उसके नाम की दिहाड़ी लगाता था। इस तरह ज्यों-ज्यों समय निकलता गया, मालिक का शिकंजा उस पर कसता चला गया। बच्चों तक की भी पिटाई होने लगी। पूरे परिवार को कहीं बाहर जाने व रिश्तेदारों पर भ्ी उसने मिलने की पूर्णत: रोक लगा दी गई। इस परिवार की हालत जानवरों से भी बदतर एक बंधुआ मजदूर की तरह बना दी गई।

रामफल तीन साल पहले एक भट्ठेपर मजदूरी करता था, वहां पर तो एक मजबूत यूनियन थी, जिसने लंबे संघर्ष के बाद मालिकों की गुंडागर्दी व दमन पर पूर्णत: रोक लगा दी थी। लेकिन अब तो इस मालिक के शिकंजे से निकलने के सभी रास्ते बंद हो गए थे। एक रात इस कैद से छुटकारा पाने के लिए रामफल पूरे परिवार को खेत पर ही छोड़ कर निकल गया और बीस मील पैदल चलकर यूनियन के दफ्तर में पहुंच गया और सारी हालत यूनियन के प्रधान को बताई। यूनियन ने इसे लेकर कार्रवाई की और प्रशासन व पुलिस के सहयोग से जमींदार की ढाणी में पहुंचे। पहले तो मालिक ने गीदड़ धमकी दी, ताकि  यह मजदूर उसके पंजों के नीचे से निकलने न पाए। क्योंकि पूरे इलाके में मजदूर आंदोलन के कारण पुलिस पर भी यूनियन का भारी असर था, इसलिए जमींदार के प्रति पुलिस को सख्त रुख अपनाना पड़ा। जमींदार राम सिंह ने उनको मुक्त करने के लिए एक लाख रुपए की शर्त रखी। काफी देर बहस के बाद पूरे मामले पर विचार करने व पूरा हिसाब करने के लिए गांव में तीन दिन बाद एक पंचायत रख दी गई।

उस दिन पंचायत शुरू होने से पहले ग��ंव की चौपाल में जो नजारा मौजूद था, उससे पूरी की पूरी समाज व्यवस्था की पोल खुल रही थी। चौपाल में बिल्कुल सामने 15-20 कुर्सियां व चारपाइयां लगी हुई थीं। गांव के कुछ खाते-पीते लोग ही कुर्सियों पर बैठे थे। कुछ कुर्सियां खाली पड़ी थी। चारपाइयों पर पंगातों की तरह मैले कपड़े पहने जमींदार की बिरादरी के ही कुछ खेत मजदूर बैठे थे। वे अपने-आप को बराबर जरूर दिखाने की कोशिश कर रहे थे, परन्तु उन खाते-पीते लोगों  की नजर में इनका कोई मायना नहीं था। कुर्सियां, चारपाइयां खाली होने पर भी हरिजन खेत मजदूर आकर नीचे ही जमीन पर बैठ रहे थे। पंचायत शुरू होने से पहले सभी जमींदार इस प्रकार एक स्वर में बोल रहे थे। मानो सलाह मिलाकर आए हों। मजदूरों में आ रही चेतना को निशाना बनाकर पुराने दिनों की दुर्दशा से तुलना करते हुए जली-बुझी सुना रहे थे। कुछ ही क्षणों  में ऐसा माहौल बना दिया गया, मानो सारा कसूर मजदूर का ही हो। मजदूरों के एक हिस्से ने भी अपने मन में जंचा ली कि हम ही कसूरवार हैं।

ऐसी हालत में रामफल व उसके परिवार को पूरी तरह जंच गई थी कि इस पंचायत में उनकी कहने वाला कोई नहीं है। निराश होकर रामफल की घरवाली पंचायत में हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और धर्मचंद की ओर मुंह करके कहा, ‘देवर धर्मचन्द, मनैं इसा  लागो सै, उरै गरीब की सुणनियां कोए कोन्या। हम ठहरे सारे के सारे अनपढ़, पढ़ण लिखण की तो कोए जाण नहीं, सो इब तो जो इना नै लिख राख्या सै, ओ ए सही मान्या जागा। अर असली बात तो या सै अक् इन तीन साला में नाज का तो नेम नहीं, बाकी कोए भी खर्चा कर्या हो तो पड़ौस में रहएिये उठ कै बतौ सकैं सैं। हामने इनके उतरे होए कपडय़ां मैं टेम पास कर्या सै। उरै तो कदे रिश्तेदार-प्यारा नै भी चोपड़ी रोटी नहीं खाकै देखी और ना कदे खाली बैठ के देख्या। देश भर की पैदा होई सै, पर फेर भी मेरे समझ मैं या नहीं आंदी अक् यू कर्जा एक लाठी आगै क्यूं चाल्लै सै? दूसरी बात या सै अक् हम किसे का खाकै नहीं भाजणा चांहदे, एक-एक पीस्सा द्यांगे। ठीक हिसाब होंदा हो तो देख ल्यो, ना तो जो भी इना नै बणा राख्या सै भरांगे,’ कहने-कहने उसकी आवाज रुआंसी हो गई।

वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहनेे लगी-‘ज्यूकर भी हो, म्हारा इस नरक तै पैंडा छुटवा द्यो। आज तो म्हारै पै कुछ लेण-देण नै सै नहीं, मेरे  बालकां का घर भरया सै, अर बड़ा छौरा 11 साल का सै। दो साल पाच्छे जब छोरे गाभरू हो ज्यांगे तो इन सबके नाम की भट्ठे पर ते पेशगी ले कै सारा कर्जा उतार द्यांगे।

पंचायत विधिवत् चलाने की बजाए खाते-पीते व प्रभावशाली लोग ही अपनी-अपनी चला रहे थे। जब गांव के सभी मौजिज आदमी इक्ट्ठा हो गए तो रामधन नंबरदार ने अपनी बातचीत शुरू करते हुए कहा-‘यो गाम-राम बेठ्या सै, उरै दूध का दूध पाणी का पाणी होना चाहिए।’

सबसे पहले जमींदार राम सिंह ने अपने मुंह से फूल बिखेरने शुरू कर दिए। ‘भाइयो मेरा इस रामफल तै कोए झगड़ा नहीं, इसकी काम करण की नीयत नहीं, अर यू मेरे पीस्से मार कै भाजणा चाहवै सै। उरै कोए हराम का माल थोड़ा ए सै। धोरै तै रकम काढ के दे राक्खी सै। मैं तो इन सब भाइयां कै बीच इसतैं  न्यू पूछणा चाहूं सूं अक बिना मतलब इस गाम नै कट्ठा करकै मेरी बेइज्जती क्यूं कराई गई? और कोए बात नहीं, ये तो घणे सिर पै चढ़ा दिए। आज सारे कट्ठे होरें सां, इनका तो जरूर कोए न कोए राह बांधना पड़ैगा।’

इस बात पर यूृनियन का प्रधान गुस्से में लाल-पीला हो गया और उसे बीच में ही रोककर कहने लगा, ‘मेरी बात सुण भाई, फालतू तो बोलण की जरूरत नहीं, जिसे सबद ईब तूं  कहण लागर्या सै तेरी सजा कराण नै तो यें ए भोत सै, अर दूसरी या सै अक् पंचायत में ही लेवांगे, हम उधार खाता कोन्या राख्या करते।’ इस बात का समर्थन करते हुए सभी खाते-पीते लोगों ने कहा-‘रकम तो उरै ए देणी पड़ैगी।’

धर्मचन्द व यूनियन का प्रधान भी कुर्सियों पर ही बैठे थे। प्रधान हरिजन परिवार में जरूर पैदा हुआ था, लेकिन यूनियन की गतिविधियों के कारण जो उसकी पहचान थी, उससे सभी लोग उसको सम्मान देने के लिए मजबूर थे।

इन दोनों ने आपस में बातचीत की और फिर प्रधान ने बोलना शुरू किया, ‘ग्रामवासियो, सम्मानित सज्जनों व मेहनत करके खाने वाले मेरे मजदूर भाइयो और बहनों! जैसी हालत रामसिंह ने इस रामफल की कर राखी सै, हम चांहदे तो सीधा हाईकोर्ट की रेड मरवा सकां थे, या फिर यूनियन के दम पै जिला प्रशासन नै इसके खिलाफ कार्रवाई करण पै मजबूर कर सकां थे, जिसतै यो मजदूर परिवार भी मुक्त हो ज्यांदा, अर यो चौधरी भी जुण सा आड़ै भरी पंचायत में जाणे अणजाणे ये श्लोक सुणाग्या, आज उरै की बजाए जेल में होन्दा। पर भाइयो, हम एक जिम्मेदार ट्रेड यूनियन के कार्यकत्र्ता सां, इसलिए हम अपना पहला फर्ज यू ए समझ कै इस मालिक तै बातचीत करण खातर इस धौरै आए थे कि आसानी से समस्या सुलझज्या, लेकिन इसनै सीधे मुंह बात तक नहीं करी, इस कारण तै या पंचायत बुलाणी पड़ी। इब बात या सै, हमने हिसाब की या पूरी लिस्ट पढ़ ली। इसमें इसने ठीक जोड़ कर राख्या सै अक् हेराफेरी कर राख्याी सै या तो यू जाणे या इसका दे  धर्म, पर इस लिखाई के मुताबिक यो हिसाब केवल खेती में सीर का सै। भरी पंचायत में मैं राम सिंह तै एक बात पूछणा चाहूं सूं अक् इसके डांगरां नै कौण नीरा करदा, गोबर-कूड़ा कोण करा करदा, अर इसके घर में कौण पाणी भरा करदा?’

इस पर धर्मचन्द को छोड़ कर कुर्सियों पर बैठे सभी लोग उछल पड़े और कहने लगे ‘या भी कोए बात होई या तो सारे ए करैं सै, इसकी के चर्चा सै?’

इस पर प्रधान ने दोबारा बोलना शुरू किया और कहा, ‘भाइयो, काम वही होगा, जिसमें सीर था। मजदूरां के बालकां नै कोए चौथे हिस्से का दूध थोड़ा ए दिया करदा। करे होए काम का एक-एक पैसा देणा होगा। इस पर मालिक लोग सहम गए। थोड़ी देर खुसर-फुसर के बाद नंबरदार खड़ा हुआ और कहने लगा,-‘भाई प्रधान जी, पंचायती बण, इन बातों का के धन हो सै? बात नै बिचलावै ना बल्के सिरै चढ़ाण की कोशिश कर।’

कुछ  देर माहौल में सुर-बुर सुर-बुर सी रही। उसके बाद धर्मचन्द और प्रधान ने मालिकों और मजदूरों की अलग-अलग राय ली। धर्मचन्द पैदा तो मध्यम वर्ग में हुआ था, परन्तु प्रगतिशील लोगों के साथ लंबे समय से जुड़े रहने के कारण वह हर इन्सान को बराबर समझता था। उसने बोलना शुरू किया, ‘भाइयो! प्रधानजी नै जो बात कही सै, या तो सोलह आने सही, पर उरै मजदूर व मालिकां के आपस के तालमेल तै चाल्लें ए पार पड़ैगी। सारयां तै बातचीत करयां पाच्छै मैं तो एक निचोड़ पै पहुंचा सूं या तो इन मजदूरां के सारे के करे काम की दिहाड़ी द्यो या फेर इनके पूरी रकम का ब्याज नहीं लगणां चाहिए। इस बात से पूरा माहौल बदला हुआ नजर आया। हर बिरादरी के मजदूरों के चेहरों पर नई रोशनी सी दिखाई दे रही थी।

चारों तरफ बदले माहौल को मालिकों ने इशारों ही इशारों में भांप लिया। नंबरदार सभी जमींदारों व खाते-पीते लोगों को एक तरफ बुलाकर विचार करने लगे। जमींदार लोग जिन अपनी जाति के मजदूरों को अपने साथ लेकर आए थे अब वे भी उनकी तरफ जाने की बजाए चौपाल के एक कोने में जाकर खुसर-फुसर करने लगे। सभी मजदूरों में एक ही चर्चा थी, बात तो न्याय की सै, ना तै भाई पूरी जिंदगी आड़ै रोटी-सांटे पै ए कमाणा पड़ैगा।’

जमींदारों व खाते-पीते लोगों ने बदले माहौल में बड़ा ही सोच-समझ कर फैसला किया और नंबरदार ने सबके बीच में आकर सुनाते हुए कहा, ‘भाइयो! अपणा फैसला सुणाणा तैं पहल्यां मैं दो बात कहूंगा, ‘जै ये फंस ज्यां सैं तो आकै नै पैर पकड़ ले अर पांच रुपए सैंकड़ा ब्याज भी देण ने तैयार होज्यां सै। भरोट���-पूली, गोबर-कूड़ा, पाणी-पात ये तो सारे ए करैं सैं, अर भाई, ये तो आपणी-आपणी लिहाज की बात सै। इनके कोण तो पीस्से ले था, अर ना ए इसी चर्चा करके हामनै नया बखेड़ा खड़ा करणा चाहिए। तो भाइयों इब फैसला तो के सै बस आपणा मन समझाण आली बात सै। हामनै तो म्हारी सागी-सागी रकम दे द्यो ब्याज बिना ए सार ल्यांगे।

इस फैसले पर दोनों थोक सहमत हो गए और मजदूर का हिसाब-किताब जोडऩा शुरू कर दिया। हिसाब तो घर की बही अर काको लिखणियो।

मालिक ने जो-जो लिख कर दिया वही सही था। परन्तु जब शुरू से लेकर हिसाब लगाया तो मालिक की लिखाई के अनुसार ही मजदूर रामफल की लेणदारी जमींदार की तरफ 38 हजार में ही हिसाब चुकता करने की बात पंचायत में कह चुका था। कुल मिलाकर रामफल के ही तीन हजार रुपए मालिक की तरफ निकले। इनको लेकर नंबरदार बड़बड़ाया तो बहुत, लेकिन अब चारों तरफ माहौल ही कुछ ऐसा बन गया था और यूनियन का दबाव सिर पर था, इसलिए उसने अपनी जेब से तीन हजार रुपए निकाले और पंचायत में रख दिए।

ज्यों ही पंचायत खत्म हुई रामफल का सारा सामान लादे फोरव्हीलर चौक में पहुंच चुका था।


स्रोत- सं. देस हरियाणा (मई-जून 2016), पेज- 4 -6

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