डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिन्दी साहित्य के गंभीर अन्वेषक और मौलिक चिंतक हैं। आपकी रचनाओं में पांडित्य और सरसता का सुन्दर सामंजस्य पाया जाता है। बाणभट्ट की आत्मकथा, कबीर, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, अशोक के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क आदि आपके प्रसिद्ध ग्रंथ है। हिन्दी के श्रेष्ठतम निबन्धकारों में आपका महत्वपूर्ण स्थान है । कई वर्षों तक आप विश्वभारती, शांतिनिकेतन के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष पद सुशोभित करते रहे हैं । इन दिनों आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं। भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का आपने गहराई के साथ अध्ययन किया है । आप संस्कृत के प्रकांड पंडित हैं और हिन्दी के समर्थ साहित्यकार । आपका दृष्टिकोण सदा ही मानवतावादी रहा है आप साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने के पक्षपाती हैं । है कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। आपकी सभी रचनाएँ इसी मनुष्यता आपका विचार के महान आदर्श को अभिव्यक्त करती हैं। द्विवेदीजी की भाषा में प्रवाह और माधुर्य है। अभिव्यक्ति प्रभावोत्पादक एवम् सशक्त होती है आपकी समीक्षा-शैली पर कवीन्द्र रवीन्द्र के व्यक्तित्व की पूरी छाप पड़ी है अतः उसमें भावुकता का अंश संयुक्त रहता है ।
प्रेमचन्द का जन्म बनारस के पास ही एक गाँव में एक निर्धन परिवार में हुआ था। उन्होंने आधुनिक शिक्षा पाई नहीं थी, बटोरकर संग्रह की थी। मैट्रिक पास करते-करते उनकी आर्थिक स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी थी कि अपना निर्वाह वे पुरानी पुस्तकें बॅचकर भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने स्कूल में मास्टरी कर ली थी और स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर होने तक की अवस्था तक पहुँच चुके थे। महात्मा गान्धी की पुकार पर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और जीवन की अन्तिम घड़ियों तक कशमकश और संघर्ष का जीवन विताया वे दरिद्रता में जनमे, दरिद्रता में पले और दरिद्रता से ही जूझते जूझते समाप्त हो गए। फिर भी वे अपने काल में समस्त उत्तरी भारत के सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक थे । आप चाहें तो इस घटना से उस समाज की साहित्यिक कद्रदानी का भी अन्दाज लगा सकते हैं जिसका सर्वश्रेष्ठ वे संसार को सुनाने के लिये व्याकुल थे । उन्होंने अपने को सदा मजदूर समझा बीमारी की हालत में भी, मृत्यु के दिन पहले तक भी वे अपने कमजोर शरीर को लिखने के लिये मजबूर करते रहे । मना करने पर कहते “मैं मजदूर हूँ, मजदूरी किये बिना मुझे भोजन करने का अधिकार नहीं ।” उनके इस दाक्य में अभि मान का भाव भी था और अपने नाक़द्रदान समाज के प्रति एक व्यंग्य भी । लेकिन असल में वे इसलिये नहीं लिखते थे कि उन्हें मजदूरी करना लाजिमी था, बल्कि इसलिये कि उनके दिमाग में कहने लायक इतनी बातें आपस में धक्का-मुक्की करके निकलना चाहती थीं कि वे उन्हें प्रकट किये बिना रह ही नहीं सकते थे। उनके हृदय में इतनी वेदनाएँ, इतने विद्रोह-भाव, इतनी चिनगारियाँ भरी थीं कि वे उन्हें सम्हाल नहीं सकते थे। उनका हृदय अगर इन्हें प्रकट न कर देता तो वे शायद और भी पहले बन्धन तोड़ देते। विनय की वे साक्षात् मूर्ति थे, परन्तु यह विनय उनके आत्माभिमान का कवच था। वे बड़े ही सरल थे, परन्तु दुनिया की धूर्तता और मक्कारी से अनभिज्ञ नहीं थे, उनके ग्रंथ इस बात के प्रमाण हैं। ऊपर ऊपर से देखने पर अर्थात् राजा-महाराजा सेठ-साहूकारों के साथ तुलना करने पर वे बहुत निर्धन थे, लोग उनकी इस निर्धनता पर तरस खाते थे, परन्तु वे स्वयं नीचे की ओर देखने वाले थे । लाखों और करोड़ों की तादाद में फैले हुए भुक्खड़ों, दाने-दाने को और चिथड़े-चिथड़े को मुहताज़ लोगों की वे जवान थे। उन्हें भी देखते थे, इसलिये अपने को निर्धन समझकर हाय हाय नहीं करते थे। इसको वे वरदान समझते थे। दुनिया की सारी जटिलताओं को समझ सकने के कारण हो वे निरीह थे, सरल थे धार्मिक ढकोसलों को वे ढोंग समझते थे, पर मनुष्यता को वे सबसे बड़ी वस्तु समझते थे। उन्होंने ईश्वर पर कभी विश्वास नहीं किया ; फिर भी इस युग के साहित्यिकों में मानव की सद्-वृत्तियों में जैसा अडिग विश्वास प्रेमचन्द का था वैसा शायद ही और किसी का हो असल में यह नास्तिकता भी उनके दृढ़ विश्वास का कवच थी । वे बुद्धिवादी थे और मनुष्य की आनन्दिनी वृत्ति पर पूरा विश्वास करते थे ।
‘गोदान’ नामक अपने अन्तिम उपन्यास में अपने एक पात्र के मुँह से वे मानो अपनी हो बात कह रहे हैं जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है इसपर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहाँ जीवन है, कोड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष है। और उपासना है । ज्ञानी कहता है, होठों पर मुस्कराहट न आये, आँखों में आँसू न आयें । में कहता हूँ अगर तुम हँस नहीं सकते और से नहीं सकते तो तुम मनुष्य नहीं, पत्थर हो । वह ज्ञान जो मानवता को पोस डाले, ज्ञान नहीं, कोल्हू है ।’
ऐसे थे प्रेमचन्द — जिन्होंने ढोंग को कभी बर्दाश्त नहीं किया, जिन्होंने समाज को सुधारने की बड़ी बड़ी बातें सुझाई ही नहीं, स्वयं उन्हें व्यवहार में लाए; जो मनसा-वाचा एक थे; जिनका विनय आत्माभिमान का, संकोच महत्व का, निर्धनता निर्भीकता का, एकान्त प्रियता विश्वासानुभूति का और निरीह भाव कठोर कर्तव्य का कवच था; जो समाज की जटिलताओं की तह में जाकर उसी टीमटाम और भम्भड़पन का पर्दाफ़ाश करने में आनन्द पाते थे और जो दरिद्र किसान के अन्दर आत्मबल का उद्घाटन करने को अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझते थे, जिन्हें कठिनाइयों से जूझने में मज़ा आता था; जो तरस खानेवाले पर दया को मुस्काराहट बिखेर देते थे, जो ढोंग करनेवाले को कसके व्यंग्यवाण और जो निष्कपट मनुष्यों के चेरे हो जाया करते थे । जो मानो अपने लिए स्थान नहीं है। यहाँ उन उपासकों की आवश्यकता है जिन्होंने अपने जीवन की सार्थकता सेवा में ही मान ली हो, जिनके दिल में दर्द को तड़प हो और मुहब्बत का जोश हो । अपनो इज्जत तो अपने हाथ है। अगर हम सच्चे दिल से समाज की सेवा करेंगे तो वर्तमान प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि हमारा पाँव चूमेगी । फिर मान प्रतिष्ठा को चिंता हमें क्यों सतावे? और इनके न मिलने पर हम निराश क्यों हों ? हमें समाज पर अपना बड़प्पन जताने, उसपर रोब जमाने को हविस क्यों हो ?……….. ..हम तो समाज का झण्डा लेकर चलनेवाले सिपाही हैं और सादी जिंदगी के साथ ऊँची निगाह हमारा लक्ष्य है। जो आदमो सच्चा कलाकार है, वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नहीं हो सकता, उसे अपनी मनःतुष्टि के लिए दिखाने की आवश्यकता नहीं, उससे तो उसे घृणा होती है । “
प्रेमचन्द आत्माराम थे।
प्रेमचन्द शताब्दियों से पद-दलित, अपमानित और निष्पेषित कृषकों की आवाज़ थे । पर्दे में कैद, पद-पद पर लांछित और असहाय नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे। गरीबों और बेक़सों के महत्व के प्रचारक थे । अगर उत्तर भारत को समस्त जनता के आचार-विचार, भाव-भाषा, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो में आपको निःसंशय बता सकता हूँ कि प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक आपको दूसरा नहीं मिल सकता । झोपड़ियों से लेकर महलों तक, खोमचेवालों से लेकर बैंकों तक, गाँव पंचायतों से लेकर धारा-सभाओं तक, आपको इतने कौशलपूर्वक और प्रामाणिक भाव से कोई नहीं ले जा सकता । आप बेखटके प्रेमचन्द का हाथ पकड़ कर मेड़ों पर गाते हुए किसान को, अन्तःपुर में मान किये प्रियतमा को, कोठे पर बैठी हुई वारवनिता को, रोटियों के लिए ललकते हुए भिखमंगों को, कूट परामर्श में लीन गोयन्दों को, ईर्षापरायण प्रोफेसरों को, दुर्बलहृदय बैंकरों को, साहस-परायण चमारिन को, ढोंगी पण्डित को, फरेबी पटवारी को, नीचाशय अमीर को देख सकते हैं और निश्चिन्त होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ आपने देखा है। वह गलत नहीं है, उससे अधिक सचाई से दिखा सकनेवाले परिदर्शक को अभी हिन्दी-उर्दू की दुनिया नहीं जानती। परन्तु सर्वत्र ही आप एक बात लक्ष्य करेंगे । जो संस्कृतियों और सम्पदाओं से लद नहीं गये हैं, जो अशिक्षित और निर्धन हैं, जो गँवार और जाहिल हैं, वे उन लोगों की अपेक्षा अधिक आत्म-बल रखते हैं और न्याय के प्रति अधिक सम्मान दिखाते हैं जो शिक्षित हैं, जो सुसंस्कृत हैं, जो सम्पन्न हैं, जो चतुर हैं, जो दुनियादार हैं, जो शहरी हैं। लेकिन यह बात जानकर आप प्रेमचन्द को गलत न समझें पश्चिम में महायुद्ध के बाद जो एक ‘प्रिमिटिविज्म’ की हवा बही है, जिसमें यह वकालत की जाती है कि सभ्यता की ओर अग्रसर होना ही गलती है, जो मेक्सिको के सभ्यता-हीन आदिमाध्युषित अंचलों में जा छिपने को ही त्राण का एकमात्र रास्ता समझते हैं, जो पीछे की ओर लौटना ही श्रेयस्कर मानते हैं; उन प्रतिक्रिया-पंथियों की पंगत में प्रेमचन्द को नहीं बैठाया जा सकता । प्रेमचन्द मनुष्य की सदवृत्तियों में विश्वास करते हैं। मनुष्य की दुर्वृत्तियों को वे अजेय तो समझते ही नहीं। उनको भाव-रूप में स्वीकार करते हैं या नहीं इसी में सन्देह है। वे हैं कि जड़ोन्मुखी सभ्यता ने हमें जड़ता को ही प्रधान मानने की ओर प्रवृत्त किया है। हमने टीमटाम को, भीड़-भभ्भड़ को, दिखाव-बनाव को और दुनिया-दौलत को प्रधातना दी हैं। ये वस्तुएँ मनुष्य को न तो महान् बनाती हैं और न क्षुद्र, परन्तु ये मनुष्य के मन को दुर्बल कर देती हैं, आत्मा को सशंक बना देती हैं। आत्म-बल हरएक व्यक्ति में है, पर जड़ पूजा की अधिकता से वह अवरुद्ध हो जाता है। इसीलिये जो जितना त्याग कर सकता है अर्थात् जो जितना इस जड़िमा के बन्धन को तोड़ सकता है वह उतना ही महान् हो जाता है; आत्म-बल के बाधक कुश-कंटकों को उखाड़ फेंकने में वह उतना ही सफल होता है। जिनके पास ये बन्धन जितने ही कम होते हैं वे उतने ही जल्दी सत्य-परायण हो जाते हैं। ‘रंगभूमि’ का सूरदास शिक्षित और धनी विनय की अपेक्षा शीघ्र और स्थायी आत्म बल का अधिकारी है और ठीक यही बात ‘गबन’ के कुंजड़े और किसान-स्त्री के सम्बन्ध में लागू होती हैं। स्त्रियों में भी वह शक्ति पुरुषों की अपेक्षा अधिक होती है क्योंकि वे पुरुषों के समान जड़ शिक्षा और जड़ सम्पदा के बन्धनों से कम बंधी रहती हैं ।
प्रेमचन्द ने अतीत गौरव का पुराना राग नहीं गाया और न भविष्य की हैरतअंगेज कल्पना ही की। वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा कि बन्धन भीतर का है, बाहर का नहीं । एक बार अगर ये किसान, ये गरीब यह अनुभव कर सकें कि संसार की कोई भी शक्ति उनको नहीं दबा सकती तो वे निश्चय ही अजेय हो जायें। बाहरी बन्धन उन्हें दो प्रकार के दिखाई दिये भूतकाल की संचित स्मृतियों का जाल और भविष्य की चिंता .से बचने के लिए संग्रहीत ईंट-पत्थरों का स्तूप एक का नाम है संस्कृति और दूसरे का सम्पत्ति । एक का रथ वाहक है धर्म और दूसरे का राजनीति | प्रेमचन्द इन दोनों को मनुष्यता के विकास का बाधक मानते हैं ।
प्रेमचन्द के मत से प्रेम एक पावन वस्तु है। वह मानसिक गंदगी को दूर करता है, मिथ्याचार को हटा देता है और नई ज्योति से तामसिकता का ध्वंस करता है । यह बात उनकी किसी भी कहानी और किसी भी उपन्यास में देखी जा सकती है । यह प्रेम ही मनुष्य को सेवा और त्याग की ओर अग्रसर करता है। जहाँ सेवा और त्याग नहीं वहाँ प्रेम भी नहीं है। वहाँ वासना का प्रावल्य है । सच्चा प्रेम सेवा और त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है। प्रेमचन्द का पात्र जब प्रेम करने लगता है तो सेवा की ओर अग्रसर होता है, अपना सर्वस्व परित्याग कर देता है
प्रेमचन्द ने बहुत विस्तृत क्षेत्र का चित्रण किया है। कहते हैं उन्होंने निम्न श्रेणी और मध्यम श्रेणी के पुरुषों और स्त्रियों को ही सफलता पूर्वक चित्रित किया है । उच्च श्रेणी के चरित्रों को चित्रित करने में वे उतने सफल नहीं रहे । में ठीक नहीं जानता, मैं उस श्रेणी से ठीक-ठीक परिचित नहीं हूँ। अगर आपमें से कोई उस श्रेणी के जानकार हों तो स्वयं इस बात की जाँच करें, परन्तु में इतना तो कह ही सकता हूँ कि उनके अधिकांश पात्र उसी श्रेणी के हैं जिनके चित्रण में उन्हें समर्थ बताया गया है और निम्न श्रेणी तथा मध्यम श्रेणी के पुरुषों और स्त्रियों से आपके यथार्थ परिचय का अर्थ है देश की वास्तविक समस्याओं की जानकारी उन्हें जानकर ही आप अपनी ताकत का अन्दाजा लगा सकते हैं अपने गंभीर तत्व की मजबूती या कमजोरी का पता लगा सकते हैं। फिर वही ऐसे हैं जो शताब्दियों तक केवल उपेक्षित और पद-दलित ही नहीं रहे, परिहास और अपमान के पात्र भी बने रहे। हजारों वर्ष के भारतीय साहित्य में इनकी आशाओं, आकांक्षाओं, सुख-दुखों और सूझ-बूझों की चर्चा नहीं के बराबर हुई है। ये ही हैं जो भारतवर्ष के मेरुदण्ड हैं, जिनके बनने बिगड़ने पर हमारा और इसीलिये सारे संसार का बनना बिगड़ना निर्भर है। अगर आप शहर के रहनेवाले रईस है तो आपको एक अत्यन्त आश्चर्योद्रेचक नवीन जगत् का परिचय मिलेगा और अगर मेरे समान गाँव के निवासी हैं तो विश्वास कीजिए आपको अपने सहवासियों को देखने के लिए नई आँख मिलेगी। आप इन हाड़-मांस पाकर किसी प्रकार ठगे नहीं जायेंगे । जीवित प्रतिमाओं से परिचय पाकर किसी प्रकार ठगे नहीं जीयेंगे।
लेकिन आप प्रेमचन्द में यदि किसी नये आदर्श की आशा करेंगे तो आपको निराश होना पड़ेगा वे देश को मौलिक समस्याओं के समाधान में अपने युग के राजनीतिक नेताओं से बुरी तरह प्रभावित थे। पहले महात्मा गांधी के आदर्शों को और बाद में समाजवाद के सिद्धान्तों को उन्होंने राष्ट्र की बुनियादी समस्याओं के समाधान का उपाय बताया, परन्तु आप शायद इन आदर्शों के लिए ऋणी होने को, मेरे ही समान, दोष हेतु नहीं मानेंगे और प्रेमचन्द की वास्तविक विशेषता का फिर भी सम्मान कर सकेंगे। जिस विचित्र युग में हम वास कर रहे हैं उसमें देश-विदेश के इतने आदर्शों से हमें टकराना पड़ता है कि एकाध नये आदर्श के और मिल जाने से हमें कुतूहल नहीं होता और न मिलने से कोई पश्चात्ताप भी नहीं होता। हम जब आदर्शों को जीवन में व्यवहृत देखते हैं तो हमारी कुतूहल-वृत्ति जरूर आकृष्ट होती है। गांधी में हमने आदर्शों को इसी जीवन्त रूप में देखा है और प्रेमचन्द के पात्रों में हम आदर्शों और कल्पनाओं को इसी जीवन्त रूप में पाते हैं। यह जीवन में ढालकर आदर्श को सरस और हृदयग्राही बना देना ही प्रेमचन्द को विशेषता है यह जीवन ही उनको कृतियों में सर्वत्र छलकता हुआ मिलता है औषधियाँ घर-बाहर सर्वत्र हैं, कुछ को हम जानते हैं कुछ को नहीं जानते; पर जानते हों या न जानते हों, हम गाय के कृतज्ञ जरूर होंगे जिसने इन औषधों को अपने जीवन में ढालकर सरस दूध करके हमारे सामने रखा। हम आदर्शों को जीवन से छानकर सामने रखनेवाले प्रेमचन्द के भी निश्चय ही कृतज्ञ होंगे.