
[11-12 अप्रैल 81 को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा में आयोजित प्रेमचंद-जन्म शताब्दी समारोह के लिये प्रेषित हिन्दी को सुप्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा का उद्घाटन भाषण]
समागत बन्धुओ,
आपके बीच मैं उपस्थित होना चाहती थी; परन्तु अधिक अस्वस्थ हो जाने के कारण और 12 तारीख के यहां के कार्यक्रम के कारण यात्रा करने में समर्थ नहीं हो सकी। यहीं से आपको अपनी शुभ कामनाएं भेजती हूँ। आप युग-प्रवर्तक शिल्पी प्रेमचंद जी की शती मना रहे हैं। प्रेमचंद जी हमारे यहाँ के क्रान्तिकारी शिल्पी थे । एक ऐसे युग में जब तिलस्मी, ऐयारी, जासूसी आदि कथाएं प्रचलित थीं, जिसमें आश्चर्य ही था, कुतूहल ही था, उस युग में प्रेमचंद जी ने सामान्य व्यक्ति को प्रतिष्ठित किया और कथा का उसे नायक बनाया, क्रांतिकारी पग था और सर्वथा नवीन था। उस समय तो उसका महत्व किसी ने उतना समझा नहीं; लेकिन जैसे-जैसे हमारी स्वतंत्रता का संग्राम वेग पकड़ता गया, उनकी रचनाएं महत्व पाती गयी क्योंकि कोई देश जब स्वतंत्र होना चाहता है. तो सामान्य जन की उपेक्षा नहीं कर सकता। सामान्य जन ही उस स्वतंत्रता का वैतालिक होता है। बड़े व्यक्तियों को स्वतंत्रता परतंत्रता कुछ भी कष्ट नहीं पहुँचाती ; सामान्य जन ही अपनी अस्मिता के लिये लड़ता है, संघर्ष करता है।
प्रेमचंद जी उस युग के सच्चे अर्थ में ‘कलम के सिपाही’ थे और बहुत कम व्यक्ति जानते हैं कि उन्होंने उस संघर्ष में कैसा भाग लिया। अपने संबंध में वे निरभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने क्या किया इसका कोई अहंकार भी उनके पास नहीं था, सहज ही लिखते थे। एक ग्राम में जन्म पाया था, ग्राम्य विकास पाया था, एक अत्यंत साधन-हीन, निर्धन घर पाया था, परिवार पाया था। परिवार में भी बालक को स्नेह मिलता है वो उन्हें नहीं मिला, माता नहीं रही, पिता नहीं रहे, सौतेली माता का भी कठोर ही रहा उनके प्रति । परंतु अपने मन की कोमलता से उन्होंने दूसरों की व्यथा समझी। ऐसा बहुत ही कम होता है। मैंने उनको जब से देखा, उनमें किसी प्रकार की कटुता न देखी । सहज, निश्छल व्यक्ति थे। सहज जैसे एक ग्रामीण होता है, वेश-भूषा में भी रहन-सहन में भी ; और विचार में इतने ऊंचे थे कि उस युग का कोई उनके कंधे तक भी नहीं पहुँच था। पहले वे महात्मा जी से प्रभावित हुए; अंत तक महात्मा जी के अर्थात् बापू के जीवन मूल्यों में उनकी आस्था निरंतर रही और उसके उपरांत वे मार्क्स से प्रभावित हुए। इन दोनों का ही समन्वय हमें उनकी रचनाओं में मिलता है और आज यह प्रश्न बार-बार उठता है – इस युग में प्रासंगिकता क्या है। उनके संबंध में बार-बार व्यक्ति कहते हैं, प्रासंगिकता है। प्रासंगिकता किसी भी लेखक की उसकी गंभीर संवेदना में रहती है, जो कभी भी पुरानी नहीं रहती, बासी नहीं हो सकती, उपेक्षणीय नहीं हो सकती। इसीलिये आज वाल्मीकि प्रासंगिक हैं, तुलसीदास भी प्रासंगिक हैं, कालिदास भी प्रासंगिक हैं। इसी प्रकार मैं समझती हूं कि प्रेमचंद निरंतर प्रासंगिक रहेंगे। मनुष्य की संवेदना तो नहीं पुरानी होती, संवेदना उसे चाहिए, निरंतर चाहिए। यह हो सकता है कि देश उतना सम्पन्न हो जाए कि कोई विपन्न कोई दुःखी न रहे। लेकिन तो भी उसे परस्पर स्नेह, सौहार्द और बहुत से ऐसे कष्ट हैं जिसमें एक संगी चाहिए। मनुष्य सामाजिक प्राणी है तो प्रेमचंद जो की विशेषता या प्रासंगिकता उनकी गंभीर संवेदना में है। उनके पात्र को देखिये। पहले उन्होंने समाज को देखा, उसमें जो रुढ़ियां थी, जो कुरीतियां थीं, सभी के संबंध में जो दृष्टि थी, और हरिजन जिसे कहते हैं उसके प्रति जो दृष्टि थी उसको उन्होंने समझा और उनके आरंभिक जो उपन्यास हैं, उसमें वे ही आते हैं; जैसे सेवा-सदन; जिसको हम पतित कहते हैं; उपेक्षणीय कहते हैं, उसको मानो उन्होंने अपने अंक में उठा लिया और एक नया गौरव दिया। कहीं वे उपदेश नहीं देते, यह बहुत बड़ी बात है; अन्यथा जितने सुधारक आते हैं, वे उपदेश देते हैं– ऐसे कीजिए, ऐसा न कीजिए। प्रेमचंद अपनी रचनाओं में उपदेश नहीं देते; कहीं से उपदेशक नहीं हैं। वे साथी हैं, द्रष्टा हैं, और मानो हमारे मर्म को सहला देते हैं, हमारे घाव पर सहानुभूति का आलेपन लगा देते हैं। कुछ उनकी कहानियाँ ऐसी हैं, जैसी विश्व साहित्य में नहीं मिलेंगी। जैसे ‘कफन’ । उन कहानी में दो ही पात्र आते हैं, और दो ही कैसे विचित्र आते हैं। प्रेमचंद जी अंत में यह नहीं कहते हैं कि ये होना अच्छा है, ये नहीं होना अच्छा है, ऐसा कहीं कुछ नहीं कहते हैं, छोड़ देते हैं वहीं उन दोनों को ; लेकिन हमारे मन में एक जिज्ञासा जाग जाती है अजीब प्रकार की ये समाज कैसा है जिसमें ऐसे व्यक्ति हैं, किसलिए ऐसे व्यक्ति हो गये हैं और इनका यही रूप रहे तो समाज का क्या रूप होगा। अनेक समाधान हमारे मन में जागते हैं, तो बहुत बड़ी बात है रचनाकार की कि पढ़ने वाले से समाधान मांगे। वह स्वयं कोई समाधान न दे, ऐसी जगह वे छोड़ देते हैं।
इसी तरह उनकी ‘पूस की रात’ है, किस तरह से एक किसान, किन परिस्थितियों में धीरे-धीरे मजदूर हो जाता है। अपनी जमीन को बहुत चाहता है, अपनी खेती को बहुत चाहता है, हर पौधे को चाहता है और तब भी विवश हो जाता है; छोड़ के कहता है, अच्छा चलो यह सब कुछ छोड़कर मिल में कहीं नौकरी करें तो किस तरह से एक धरती का पुत्र यंत्र में जाकर सेवक हो जाता है। वहां वह स्वामी है अपनी धरती का, वहाँ सेवक हो जाता है। तो फिर हमारे मन में प्रश्न जागता है— कौन-सी यह परिस्थिति है ?
महाजनी सभ्यता की बात वे बार-बार कहते हैं- वह सभ्यता जो एक मनुष्य को संपन्न बनाती है, दूसरे को दैन्य देती है, दीन बना देती है, उपेक्षित बना देती है। उसको इतने मर्ग से उन्होंने देखा है, इतनी सहानुभूति से गढ़ा है कि वह साँचा केवल उन्हीं के पास था, उस युग में और कोई वैसा नहीं दे सका। इसी तरह से गोदान जो उनका अंतिम उपन्यास है, उसमें हमारे मन को एकदम मथ डालने की शक्ति है, वैसा और कोई उपन्यास नहीं है। वे कुछ कहते नहीं हैं—किस प्रकार गाँव का साधारण व्यक्ति है, आस्थावान है, सत्य बोलता है, जीवन के मूल्यों में विश्वास करता है और कैसे उसके सारे स्वप्न नष्ट होते हैं और किस तरह अन्त में वह समाप्त होता है, बिल्कुल हमारे पूरे युग को मानों उन्होंने उसमें रख दिया है। उनके उपन्यासों में एक महाकाव्य अपने आप अंतर्निहित है। यह उपन्यास नहीं है, महाकाव्य में जैसे जीवन के हर पात्र को, हर चरित्र को स्थान मिल जाता है, हर परिस्थिति को मिल जाता है, हर विचार को मिल जाता है, हर भावना को मिल जाता है, उनके उपन्यासों में भी इसी प्रकार है। नागरिक सभ्यता भी उसमें है, वे उसका चित्रण भी तटस्थ भाव से करते हैं और ग्रामीण सभ्यता भी उसमें है, सम्पन्न भी है, विपन्न भी है, राजन भी है, किसान भी है, भी है, याने कोई जीवन का ऐसा पात्र नहीं है, समाज का ऐसा पात्र नहीं है, जिसका उन्होंने चित्रण नहीं किया हो और पूरे मन से नहीं किया हो, ऐसा नहीं है। मतलब यह है कि हर पात्र के साथ वे जोते हैं। कभी-कभी प्रश्न उठता है कि यह कैसा रचनाकार है जो हरेक के साथ जी सकता है। नहीं तो कुछ ऐसे हैं कि स्पष्ट जान पड़ता है कि इसके शत्रु हैं, इसके मित्र हैं, इसके पक्षधर हैं, इसके विपक्षी हैं ऐसा कोई जान नहीं पड़ता यहाँ। जिसका चित्रण है, पूरे मनोयोग के साथ है, तटस्थता के साथ है और ऐसा है कि अनायास हमें उस पात्र के निकट पहुंचा देता है, सब अपने लगते हैं। उनके बड़े-बड़े उपन्यास हैं जैसे वो रंगभूमि है— सूरदास अकेला ही है, अपने आप में जिस तरह से गोदान का होरी भी ऐसा है। तो ऐसा रचनाकार हमारे पास दूसरा नहीं है। बापू की जितनी भी संघर्ष की कथाएं है, उनके सब उपन्यासों में आ जाती है। अगर सारा इतिहास हमारा उस युग का समाप्त हो जाए तो हम प्रेमचंद जी के उपन्यासों के आधार पर, वो इतिहास बना लेंगे। जैसी उस समय स्थिति थी, सबका लेखा-जोखा हम ले लेंगे और तब भी ऐसा है कि न वे कहीं उपदेश देते हैं, न ऊबाई पर बैठकर के व्यासपीठ से वे बोलते हैं, बिल्कुल जैसे नित्य हमें मिलते हैं घर के व्यक्ति इसी तरह मिलते हैं, इसी तरह अपने जान पड़ते हैं।
वे उर्दू से आये थे, उर्दू का प्रवाह भी लाये थे बहुत कुछ हिन्दी में हिन्दी उनको सरल भी है किन्तु हिन्दी है। और जब उनसे मैंने पूछा कि आप तो उर्दू में इतना लिखते थे और प्रतिष्ठा भी आपको मिल चुकी थी वहां तो हिन्दी में क्यों आये ? तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैं समझता है कि हिन्दी ही यहां की राष्ट्र भाषा होगी। उस समय यह कल्पना नहीं किसी को थी कि हिन्दी ही यहां की राष्ट्रभाषा होगी। यह तो स्वतंत्र होने के उपरांत संविधान में आया और चूंकि बापू ने सारे में इसी भाषा को प्रयुक्त किया इस भाषा ने पूरे संघर्ष का भार झेला, उत्तर को दक्षिण से मिलाया, दक्षिण को उत्तर से मिलाया एवं को पश्चिम से मिलाया, लेकिन मिलाया हिन्दी ने ही बापू और किसी भाषा में बोले नहीं, अपनी मातृभाषा गुजराती में भी नहीं बोले। अंग्रेजी जो वे इतनी अच्छी लिखते थे, बोलते थे उसमें भी नहीं बोले- अपने देश में वे इसी में बोले तो इस भाषा ने देश को एक रखने का काम किया. इसके परिणाम में संविधान ने इसे राष्ट्रभाषा का पद दिया। अब यह देश का दुर्भाग्य है कि उसको यह पद अब तक नहीं प्राप्त हुआ। परन्तु उसको शक्ति तो प्रेमचंद जो जानते थे। और जैसी प्रेमचंद जी की हिन्दी है, वह हिन्दी निरंतर यहाँ देश को जोड़ती रही। आज भी आप किसी प्रदेश में जाइये, वह किसी कवि को नहीं जानता होगा, किसी कहानीकार को नहीं जानता होगा, लेकिन प्रेमचंद को जानता होगा निश्चित रूप से । इसलिये कि सब जगह होरी है, सब जगह सूरदास है, सब जगह महाजनी सभ्यता है, इस युग में; वह सभ्यता तो आज भी नहीं गयीं है; वह अभिशाप तो आज भी हमारे जीवन से नहीं हटा है। प्रेमचंद जी ने उसके लिये बहुत प्रयत्न किया और आज भी अगर वे जीवित होते तो वहीं प्रयत्न करते, संघर्ष आज भी उनके लिये वही था। उन्होंने आजीवन संघर्ष किया और अन्तिम क्षण तक संघर्ष किया। न उन्होंने अपने लिये ऐसा स्वप्न देखा कि मैं बड़ा आदमी हो जाऊँ और न अपने बच्चों के लिये देखा। अपने सारे कष्ट को उन्होंने अपने तक ही रखा। उनका अट्टहास हो गूंजता रहा, आँसू अगर रहे होंगे तो उनके भीतर रहे होंगे, आंखों में घिरे रहे होंगे । लेकिन हम जो जानते थे उनको, हम दूर से उनको इस उनके अट्टहास से ही समझ जाते थे कि प्रेमचंद जी आये हैं। ऐसा मुक्त मन का, निश्छल मन का, सरल व्यक्ति और इतना महान रचनाकार किसी युग में आता है, जिसने संपूर्ण युग को बदल दिया, युग-मानस को बदल दिया और आज भी हर वर्ग यह चाहता है कि प्रेमचंद हमारी ओर रहें, हमारे अपने रहें, तो आज देखेंगे कि उत्तर-दक्षिण नहीं विश्व भर में उनकी शती मनायी जा रही है। किसलिए मनाते होंगे–पराधीन देश में हुए वे, उसमें संघर्ष करके समाप्त हुए, आज हर देश कैसे मनाता है, इसलिए मनाता है कि हर जगह मनुष्य दुःखी है, मनुष्य ने मनुष्य को पीड़ित कर रखा है, इसीलिए सब प्रेमचंद जी को अपना बनाना चाहते हैं। अपने देश में भी हर प्रदेश में प्रेमचन्द हैं, उनके लिये सद्भावना है, प्रेम है। मरने के बाद अगर कोई अमरता होती है, तो वह अमरता वास्तव में आने वाली पीढ़ियों के मन में मिलती है, जिस व्यक्ति को जितनी अमरता मिल जाए। प्रेमचन्द जी को अपने आने वाली पीढ़ियों से अमरता मिलेगी और उनके जो समकालीन शेष हैं अब, जानते हैं कि इतना अच्छा व्यक्ति हमारे बीच में अब नहीं आयेगा और कलम चढ़के जो क्रांति उतरती है वह क्रांति किस तरह फैलती है, कितनी व्यापक होती है, यह उनकी रचनाओं से ज्ञात होता है। वास्तव में कोई क्रांति शून्य में नहीं उतरती और कोई क्रांति चांदनी में, चन्दन और फूलों में नहीं उतरती वह तो ज्वाला में हो उतरती है। वास्तव में प्रेमचन्द जी के हृदय में वह ज्वाला थी। मनुष्य जहाँ पीड़ित है—वहाँ प्रेमचन्द के मन की संवेदना है, असीम है, गहरी है। वे निरंतर प्रासंगिक रहेंगे जब तक मेरे विचार में भारत है और जब तक मनुष्य ऐसा नहीं हो जाता कि वह पहचान ही भूल जाए अपने साहित्यकार की। ऐसा कभी नहीं होगा। आप उनका स्मरण कर रहे हैं, बहुत अच्छा है। और उन्होंने जो संघर्ष किया, उसे समझिये और यह भी समझिये कि संघर्ष समाप्त नहीं हुआ है। आप यदि उनके उत्तराधिकारी हैं तो आपको निश्चित रूप से वह संघर्ष स्वीकार करना होगा। सूर्यास्त जब होने लगता है, तो हिमालय बहुत विशाल होने पर भी उसका उत्तराधिकार नहीं स्वीकार कर सकता, समुद्र इतना गहरा होने पर भी उसका उत्तराधिकार नहीं स्वीकार करता, केवल छोटा-सा दीपक स्वीकार कर लेता है, उसको लौ स्वीकार कर लेती है। यदि आप प्रेमचन्द के उत्तराधिकारी है तो आपको ज्वाला भी स्वीकार करनी होगी, वो काँटों का मार्ग भी पार करना होगा और मनुष्य को सुखी बनाने का प्रयत्न करना होगा। मेरा विश्वास है, आप यह कर सकेंगे।